Tuesday, July 19, 2022

कबीर ग्रंथावली | परिशिष्ट (साखी) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Parishisht / Sakhi | Kabirdas


 
आठ जाम चौंसठि घरी तुअ निरखत रहै जीव।

नीचे लोइन क्यों करौ सब घट देखौ पीउ॥1॥


ऊँच भवन कनक कामिनी सिखरि धजा फहराइ।

ताते भली मधूकरी संत संग गुन गाइ॥2॥


अंबर घनहरू छाइया बरिष भरे सर ताल।

चातक ज्यों तरसत रहै, तिनकौ कौन हवाल॥3॥


अल्लह की कर बंदगी जिह सिमरत दुख जाइ।

दिल महि साँई परगटै बुझै बलंती लाइ॥4॥


अवरह कौ उपदेस ते मुख मैं परिहै रेतु।

रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु॥5॥


कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेसु।

हम राखे गुरु आपने उन कीनो आदेसु॥6॥


आखी केरे माटूके पल पल गई बिहाइ।

मनु जंजाल न छाड़ई जम दिया दमामा आइ॥7॥


आसा करिये राम की अवरै आस निरास।

नरक परहि ते मानई जो हरिनाम उदास॥8॥


कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि।

नागे पांवहु ते गये जिनके लाख करोरि॥9॥


कबीर इहि तनु जाइगा कवने मारग लाइ।

कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ॥10॥


एक घड़ी आधी घड़ी आधी हूं ते आध।

भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ॥11॥


एक मरंते दुइ मुये दोइ मरंतेहि चारि।

चारि मरंतहि छंहि मुये चारि पुरुष दुइ नारि॥12॥


ऐसा एक आधु जो जीवत मृतक होइ।

निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखौ तत सोइ॥13॥


कबीर ऐसा को नहीं इह तन देवै फूकि।

अंधा लोगु न जानई रह्यौ कबीरा कूकि॥14॥


ऐसा जंतु इक देखिया जैसी देखी लाख।

दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक॥15॥


कबीर ऐसा बीजु सोइ बारह मास फलंत।

सीतल छाया गहिर फल पंखी केल करंत॥16॥


ऐसा सतगुर जे मिलै तुट्ठा करे पसाउ।

मुकति दुआरा मोकला सहजै आवौ जाउ॥17॥


कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीन।

मरने ते क्या डरपना जब हाथ सिधौरा लीन॥18॥


कंचन के कुंडल बने ऊपर लाख जड़ाउ।

दीसहि दाधे कान ज्यों जिन मन नाहीं नाउ॥19॥


कबीर कसौटी राम की झूठा टिका न कोइ।

राम कसौटी सो सहै जो मरि जीवा होइ॥20॥


कबीर कस्तूरी भया भवर भये सब दास।

ज्यों ज्यों भगति कबीर की त्यों त्यों राम निवास॥21॥


कागद केरी ओबरी मसु के कर्म कपाट।

पाहन बोरी पिरथमी पंडित थाड़ी बाट॥22॥


काम परे हरि सिमिरिये ऐसा सिमरो चित।

अमरपुरा बांसा करहु हरि गया बहोरै बित्त॥23॥


काया कजली बन भया मन कुंजर मयमंतु।

अंक सुज्ञान रतन्न है खेवट बिरला संतु॥24॥


काया काची कारवी काची केवल धातु।

सावतु रख हित राम तनु माहि त बिनठी बात॥25॥


कारन बपुरा क्या करै जौ राम न करै सहाइ।

जिहि जिहि डाली पग धरौं सोई मुरि मुरि जाइ॥26॥


कबीर कारन सो भयो जो कीनौ करतार।

तिसु बिनु दूसर को नहीं एकै सिरजनुहार॥27॥


कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल।

पाछै कछू न होइगा जौ सिर पर आवै काल॥28॥


कीचड़ आटा गिर पर्‌या किछू न आयो हाथ।

पीसत पीसत चाबिया सोई निबह्या साथ॥29॥


कबीर कुकरु भौकता कुरंग पिछैं उठि धाइ।

कर्मी सति गुर पाइया जिन हौ लिया छड़ाइ॥30॥


कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि।

पंडित पंडित जल मुवे मूरख उबरे भागि॥31॥


कोठे मंडल हेतु करि काहे मरहु सँवारि।

कारज साढ़े तीन हथ धनी त पौने चारि॥32॥


कौड़ी कौड़ी जोरि के जोरे लाख करोरि।

चलती बार न कछु मिल्यो लई लँगोटी छोरि॥33॥


खिंथा जलि कोयला भई खापर फूटम फूट।

जोगी बपुड़ा खेलियो आसनि रही बिभूति॥34॥


खूब खाना खीचरी जामै अंमृत लोन।

हेरा रोटी कारने गला कटावै कौन॥35॥


गंगा तीर जू घर करहि पीवहि निर्मल नीर।

बिनु हरि भगति न मुकति होइ यों कहि रमे कबीर॥36॥


कबीर राति होवहि कारिया कारे ऊभे जंतु।

लैं गाहे उठि धावते सिजानि मारे भगवंतु॥37॥


कबीर मनतु न कीजियै चाम लपेटे हाथ।

हैबर ऊपर छत्रा तर ते फुन धरती गाड़॥38॥


कबीर गरबु न कीजियै ऊँचा देखि अवासु।

आजु कालि भुइ लेटना ऊपरि जामै घासु॥39॥


कबीर गरबु न कीजियै रंकु न हसियै कोइ।

अजहु सु नाउ समुद्र महि क्या जानै क्या होइ॥40॥


कबीर गरबु न कीजियै देही देखि सुरंग।

आजु कालि तजि जाहुगे ज्यों कांचुरी भुअंग॥41॥


गहगंच परौं कुटुंब के कंठै रहि गयो राम।

आइ परे धर्म राइ के बीचहिं धूमा धाम॥42॥


कबीर गागर जल भरी आजु कालि जैहै फूटि।

गुरु जु न चेतहि आपुनो अधमाझली जाहिगे लूटि॥43॥


गुरु लागा तब जानिये मिटै मोह तन ताप।

हरष सोग दाझै नहीं तब हरि आपहि आप॥44॥


कबीर बाणी पीड़ते सति गुरु लिये छुड़ाइ।

परा पूरबली भावनी परगति होई आइ॥45॥


चकई जौ निसि बीछुरै आइ मिले परभाति।

जो नर बिछुरै राम स्यों ना दिन मिले न राति॥46॥


चतुराई नहिं अति घनी हरि जपि हिरदै माहि।

सूरी ऊपरि खेलना गिरैं त ठाहुर नाहि॥47॥


चरन कमल की मौज को कहि कैसे उनमान।

कहिबे को सोभा नहीं देखा ही परवान॥48॥


कबीर चावल कारने तुमको मुहली लाइ।

संग कुसंगी बैसते तब पूछै धर्मराइ॥49॥


चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारै।

जैसे बच रहि कुंज मन माया ममता रे॥50॥


चोट सहेली सेल की लागत लेइ उसास।

चोट सहारे सबद की तासु गुरु मैं दास॥51॥


जग कागज की कोठरी अंध परे तिस मांहि।

हौ बलिहारी तिन्न की पैसु जू नीकसि जाहि॥52॥


जग बांध्यौ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर।

जैहहि आटा लोन ज्यों सोन समान शरीर॥53॥


जग मैं चेत्यो जानि कै जग मैं रह्यौ समाइ।

जिनि हरि नाम न चेतियो बादहि जनमें आइ॥54॥


कबीर जहं जहं हौ फिरो कौतक ठाओ ठांइ।

इक राम सनेही बाहरा ऊजरू मेरे भांइ॥55॥


कबीर जाको खोजते पायो सोई ठौर।

सोइ फिरि के तू भया जकौ कहता और॥56॥


जाति जुलाहा क्या करे हिरदै बसै गुपाल।

कबीर रमइया कंठ मिलु चूकहि सब जंजाल॥57॥


कबीर जा दिन ही सुआ पाछै भया अनंद।

मोहि मिल्यो प्रभु अपना संगी भजहि गोबिंद॥॥58॥


जिह दर आवत जातहू हटकै नाही कोइ।

सो दरु कैसे छोड़िये जौ दरु ऐसा होइ॥59॥


जीया जो मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु।

दफतर दई जब काढिहै होइगा कौन हवालु॥60॥


कबीर जेते पाप किये राखे तलै दुराइ।

परगट भये निदान सब पूछै धर्मराइ॥61॥


जैसी उपजी पेड़ ते जो तैसी निबहै ओड़ि।

हीरा किसका बापुरा पुजहिं न रतन करोड़ि॥62॥


जो मैं चितवौ ना करै क्या मेरे चितवे होइ।

अपना चितव्या हरि करैं जो मारै चित न होइ॥63॥


जोर किया सो जुलुम है लेइ जवाब खुदाइ।

दफतर लेखां नीकसै मार मुहै मुह खाइ॥64॥


जो हम जंत्रा बजावते टूटि गई सब तार।

जंत्रा बिचारा क्या करे चले बजावनहार॥65॥


जो गृह कर हित धर्म करु नाहिं त करु बैराग।

बैरागी बंधन करै ताकौ बड़ौ अभागु॥66॥


जौ तुहि साध पिरम्म की सीस काटि करि गोइ।

खेलत खेलत हाल करि जौ किछु होइ त होइ॥67॥


जौ तुहि साध पीरम्म की पाके सेती खेलु।

काची सरसो पेलि कै ना खलि भई न तैलु॥68॥


कबीर झंखु न झंखियै तुम्हरो कह्यो न होइ।

कर्म करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ॥69॥


टालै टेलै दिन गया ब्याज बढंतो जाइ।

नां हरि भज्या ना खत फट्यो काल पहूँचो आइ॥70॥


ठाकुर पूजहिं मोल ले मन हठ तीरथ जाहि।

देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि॥71॥


कबीर डगमग क्या करहि कहा डुलावहि जीउ।

सब सुख की नाइ को राम नाम रस पीउ॥72॥


डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि।

परोसी के जो हुआ तू अपने भी जानि॥73॥


डूबा था पै उब्बरो गुन की लहरि झबक्कि।

जब देख्यो बड़ा जरजरा तब उतरि परौं ही फरक्कि॥74॥


तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु।

छाया रूपी साधु है जिन तजिया बादु बिबादु॥75॥


कबीर तासै प्रीति करि जाको ठाकुर राम।

पंडित राजे भूपती आवहि कौने काम॥76॥


तूं तूं करता तूं हुआ मुझ मं रही न हूं।

जब आपा पर का मिटि गया जित देखौ तित तूं॥77॥


थूनी पाई थिति भई सति गुरु बंधी धीर।

कबीर हीरा बनजिया मानसरोवर तीर॥78॥


कबीर थोड़े जल माछली झीरवर मेल्यौ जाल।

इहटौ घनै न छूटिसहि फिरि करि समुद सम्हालि॥79॥


कबीर देखि कै किह कहौ कहे न को पतिआइ।

हरि जैसा तैसा उही रहौ हरखि गुन गाइ॥80॥


देखि देखि जग ढूँढ़िया कहूँ न पाया ठौर।

जिन हरि का नाम न चेतिया कहा भुलाने और॥81॥


कबीर धरती साध की तरकस बैसहि गाहि।

धरती भार न ब्यापई उनकौ लाहू लाहि॥82॥


कबीर नयनी काठ की क्या दिखलावहि लोइ।

हिरदै राम न चेतही इक नयनी क्या होइ॥83॥


जा घर साध न सोवियहि हरि की सेवा नांहि।

ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन मांहि॥84॥


ना मोहि छानि न छापरी ना मोहि घर नहीं गाउँ।

मति हरि पूछे कौन है मेरे जाति न नाउँ॥85॥


निर्मल बूँद अकास की लीनी भूमि मिलाइ।

अनिल सियाने पच गये ना निरवारी जाइ॥86॥


नृपनारी क्यों निंदिये क्यों हरिचेरी कौ मान।

ओह माँगु सवारै बिषै कौ ओह सिमरै हरि नाम॥87॥


नैंन निहारै तुझको òवन सुनहु तुव नाउ।

नैन उचारहु तुव नाम जो चरन कमल रिद ठाउ॥88॥


परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि।

खिंथा जल कुइला भई तागे आँच न लागि॥89॥


परभाते तारे खिसहिं त्यों इहु खिसै सरीरु।

पै दुइ अक्खर ना खिसहिं त्यों गहि रह्यौ कबीरु॥90॥


पाटन ते ऊजरूँ भला राम भगत जिह ठाइ।

राम सनेही बाहरा जमपुर मेरे भाइ॥91॥


पापी भगति न पावई हरि पूजा न सुहाइ।

माखी चंदन परहरै जहँ बिगध तहँ जाइ॥92॥


कबीर पारस चंदनै तिन है एक सुगंध।

तिहि मिलि तेउ ऊतम भए लोह काठ निरगंध॥93॥


पालि समुद सरवर भरा पी न सकै कोइ नीरु।

भाग बड़े ते पाइयो तू भरि भरि पीउ कबीर॥94॥


कबीर प्रीति इकस्यो किए आगँद बद्धा जाइ।

भावै लंबे केस कर भावै घररि मुड़ाइ॥95॥


कबीर फल लागे फलनि पाकन लागै आँव।

जाइ पहूँचै खसम कौ जौ बीचि न खाई काँव॥96॥


बाम्हन गुरु है जगत का भगतन का गुरु नाहिं।

उरझि उरझि कै पच मुआ चारहु बेदहु माहि॥97॥


कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेक हजार।

हरुये हरुये तिरि गये डूबे जिनि सिर भार॥98॥


भली भई जौ भौ पर्‌या दिसा गई सब भूलि।

ओरा गरि पानी भया जाइ मिल्यौ ढलि कूलि॥99॥


कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु।

दावा काहू को नहीं बड़ी देस बड़ राजु॥100॥


भाँग माछुली सुरापान जो जो प्रानी खाहि।

तीरथ बरत नेम किये ते सबै रसातल जांहि॥101॥


भार पराई सिर धरै चलियो चाहै बाट।

अपने भारहि ना डरै आगै औघट घाठ॥102॥


कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर।

पाछै लागो हरि फिरहिं कहत कबीर कबीर॥103॥


कबीर मन पंखी भयो उड़ि उड़ि दह दिसि जाइ।

जो जैसी संगति मिलै सो तैसी फल खाइ॥104॥


कबीर मन मूड्या नहीं केस मुड़ाये काइ।

जो किछु किया सो मन किया मुंडामुंड अजाइ॥105॥


मया तजी तो क्या भया जौ मानु तज्यो नहीं जाइ।

मान मुनी मुनिवर गले मानु सबै को खाइ॥106॥


कबीर महदी करि घालिया आपु पिसाइ पिसाइ।

तैसेई बात न पूछियै कबहु न लाई पाइ॥107॥


माई मूढहू तिहि गुरु जाते भरम न जाइ।

आप डूबे चहु बेद महि चेले दिये बहाइ॥108॥


माटी के हम पूतरे मानस राख्यो नाउ।

चारि दिवस के पाहुने बड़ बड़ रूधहि ठाउ॥109॥


मानस जनम दुर्लभ है होइ न बारै बारि।

जौ बन फल पाके भुइ गिरहिं बहुरि न लागै डारि॥110॥


कबीर माया डोलनी पवन झकोलनहारु।

संतहु माखन खाइया छाछि पियै संसारु॥111॥


कबीर माया डोलनी पवन बहै हिवधार।

जिन बिलोया तिन पाइया अवन बिलोवनहार॥112॥


कबीर माया चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि।

एकु कबीरा ना मुसै जिन कीनी बारह बाटि॥113॥


मारी मरौ कुसंग की केले निकटि जु बेरि।

उह झूलै उह चीरिये नाकत संगु न हेरि॥114॥


मारे बहुत पुकारिया पीर पुकारै और।

लागी चोट मरम्म की रह्यौ कबीरा ठौर॥115॥


मुकति दुबारा संकुरा राई दसएँ भाइ।

मन तौ मंगल होइ रह्यौ निकस्यो क्यौं कै जाइ॥116॥


मुल्ला मुनारे क्या चढ़हि साँई न बहरा होइ।

जाँ कारन बाँग देहि दिल ही भीतरि जोइ॥117॥


मुहि मरने का चाउ है मरौं तौ हरि के द्वार।

मत हरि पूछै को है परा हमारै बार॥118॥


कबीर मेरी जाति की सब कोइ हंसनेहारु।

बलिहारी इस जाति कौ जिह जपियो सिरजनहारु॥119॥


कबीर मेरी बुद्धि को जसु न करै तिसकार।

जिन यह जमुआ सिरजिआ सु जपिया परबदिगार॥120॥


कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु।

आदि जगादि सगस भगत ताकौ सब बिश्राम॥121॥


जम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ।

एक जु साधु मोहि मिलो तिन लीया अंचल लाइ॥122॥


कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ।

पाछै भोग जु भोगवै तिनकी गुड़ लै खाइ॥123॥


रस को गाढ़ो चूसिये गुन को मरिये रोइ।

अवमुन धारै मानसै भलो न कहिये कोइ॥124॥


कबीर राम न चेतिये जरा पहूँच्यौ आइ।

लागी मंदर द्वारि ते अब थ्या कादîो जाइ॥125॥


कबीर राम न चेतियो फिरिया लालच माहि।

पाप करंता मरि गया औध पुजी खिन माहि॥126॥


कबीर राम न छोड़िये तन धन जाइ त जाउ।

चरन कमल चित बोधिया रामहि नाम समाउ॥127॥


कबीर राम न ध्याइयो मोटी लागी खोरि।

काया हाड़ी काठ की ना ओह चढ़े बहोरि॥128॥


राम कहना महि भेंदु है तामहिं एकु बिचारु।

सोइ राम सबै कहहिं सोई कौतुकहारु॥129॥


कबीर राम मैं राम कहु कहिबे माहि बिबेक।

एक अनेकै मिलि गयां एक समाना एक॥130॥


रामरतन मुख कोथरी पारख आगै भोलि।

कोइ आइ मिलैगो गाहकी लेगी महँगे मोलि॥131॥


लागी प्रीति सुजान स्यों बरजै लोगु अजानु।

तास्यो टूटी क्यों बनै जाके जीय परानु॥132॥


बांसु बढ़ाई बूड़िया यों मत डूबहु कोइ।

चंदन कै निकटें बसे बांसु सुगंध न होइ॥133॥


कबीर बिकारहु चितवते झूठे करंते आस।

मनोरथ कोइ न पूरियो चाले ऊठि निरास॥134॥


बिरहु भुअंगम मन बसै मत्तु न मानै कोइ।

राम बियोगी ना जियै जियै त बौरा होइ॥135॥


बैदु कहै हौं ही भला दारू मेरे बस्सि।

इह तौ बस्तु गोपाल की जब भावै ले खस्सि॥136॥


वैष्णव की कुकरि भली साकत की बुरी माइ।

ओह सुनहिं हर नाम जस उह पाप बिसाहन जाइ॥137॥


वैष्णव हुआ त क्या भया माला मेली चारि।

बाहर कंचनवा रहा भीतरि भरी भंगारि॥138॥


कबीर संसा दूरि करु कागह हेरु बिहाउ।

बावन अक्खर सोधि कै हरि चरनों चित लाउ॥139॥


संगति करियै साध की अंति करै निर्बाहु।

साकत संगु न कीजिये जाते होइ बिनाहु॥140॥


कबीर संगत साध की दिन दिन दूना हेतु।

साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु॥141॥


संत की गैल न छांड़ियै मारगि लागा जाउ।

पेखत ही पुन्नीत होइ भेटत जपियै नाउ॥142॥


संतन की झुरिया भली भठी कुसत्ती गाँउ।

आगि लगै तिह धोलहरि जिह नाहीं हरि को नाँउ॥143॥


संत मुये क्या रोइयै जो अपने गृह जाय।

रोवहु साकत बापुरो जू हाटै हाट बिकाय॥144॥


कबीर सति गुरु सूरमे बाह्या बान जु एकु।

लागत की भुइ गिरि पर्‌या परा कलेजे छेकु॥145॥


कबीर सब जग हौं फिरो मांदलु कंध चढ़ाइ।

कोई काहू को नहीं सब देखी ठोक बजाइ॥146॥


कबीर सब ते हम बुरे हम तजि भलो सब कोइ।

जिन ऐसा करि बूझिया मीतु हमारा सोइ॥147॥


कबीर समुंद न छाड़ियै जौ अति खारो होइ।

पोखरि पोखरि ढूँढते भली न कहियै कोइ॥148॥


कबीर सेवा की दुइ भले एक संतु इकु राम।

राम जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥149॥


साँचा सति गुरु मैं मिल्या सबद जु बाह्या एकु।

लागत ही भुइ मिलि गया पर्‌या कलेजे छेकु॥150॥


कबीर साकत ऐसा है जैसी लसन की खानि।

कोने बैठे खाइये परगत होइ निदान॥151॥


साकत संगु न कीजियै दूरहि जइये भागि।

बासन करा परसियै तउ कछु लागै दागु॥152॥


साद्दचा सतिगुरु क्या करै जो सिक्खा माही चूक।

अंधे एक न लागई ज्यों बासु बजाइयै फूँकि॥153॥


साधू की संगति रहौ जौ की भूसी खाउ।

होनहार सो होइहै साकत संगि न जाउ॥154॥


साधु को मिलने जाइये साधु न लीजै कोइ।

पाछे पाउं न दीजियो आगै होइ सो होइ॥155॥


साधू संग परापति लिखिया होइ लिलाट।

मुक्ति पदारथ पाइयै ठाकन अवघट घाट॥156॥


सारी सिरजनहार की जाने नाहीं कोइ।

कै जानै आपन धनी कै दासु दिवानी होइ॥157॥


सिखि साखा बहुतै किये केसी कियो न मीतु।

चले थे हरि मिलन को बीचै अटको चीतु॥158॥


सुपने हू बरड़ाइकै जिह मुख निकसै राम।

ताके पा की पानही मेरे तन को चाम॥159॥


सुरग नरक ते मैं रह्यौ सति गुरु के परसादि।

चरन कमल की मौज महि रहौ अंति अरु आदि॥160॥


कबीर सूख न एह जुग करहि जु बहुतैं मीत।

जो चित राखहि एक स्यों ते सुख पावहिं नीत॥161॥


कबीर सूरज चाद्दद कै उरय भई सब देह।

गुरु गोबिंद के बिन मिले पलटि भई सब खेह॥162॥


कबीर सोई कुल भलो जा कुल हरि को दासु।

जिह कुल दासु न ऊपजे सो कुल ढाकु पलासु॥163॥


कबीर सोई मारिये जिहि मूये सुख होइ।

भलो भलो सब कोइ कहै बुरो न मानै कोइ॥164॥


कबीर सोइ मुख धन्नि है जा मुख कहिये राम।

देही किसकी बापुरी पवित्रा होइगो ग्राम॥165॥


हंस उड़îौ तनु गाड़िगो सोझाई सैनाह।

अजहूँ जीउ न छाड़ई रंकांई नैनाह॥166॥


हज काबे हौं जाइया आगे मिल्या खुदाइ।

साईं मुझस्यो लर पर्‌या तुझै किन फुरमाई गाइ॥167॥


हरदी पीर तनु हरे चून चिन्ह न रहाइ।

बलिहारी इहि प्रीति कौ जिह जाति बरन कुल जाइ॥168॥


हरि को सिमरन छाड़िकै पाल्यो बहुत कुंटुब।

धंधा करता रहि गया भाई रहा न बंधु॥169॥


हरि का सिमरन छाड़िकै राति जगावन जाइ।

सर्पनि होइकै औतरे जाये अपने खाइ॥170॥


हरि का सिमरन छाड़िकै अहोई राखे नारि।

गदही होइ कै औतरै भारु सहै मन चारि॥171॥


हरि का सिमरन जो करै सो सुखिया संसारी।

इत उत कतहु न डोलई जस राखै सिरजनहारि॥172॥


हाड़ जरे ज्यों लाकरी केस जरे ज्यों घासु।

सब जग जरता देखिकै भयो कबीर उदासु॥173॥


है गै बाहन सघन घन छत्रापती की नारि।

तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनहारि॥174॥


है गै बाहन सघन घन लाख धजा फहराइ।

या सुख तै भिक्खा भली जौ हरि सिमरन दिन जाइ॥175॥


जहाँ ज्ञान तहँ धर्म है जहाँ झूठ तहद्द पाप।

जहाँ लाभ तहद्द काल है जहाँ खिमा तहँ आप॥176॥


कबीरा तुही कबीरू तू तेरो नाउ कबीर।

रात रतन तब पाइयै जो पहिले तजहिं सरीर॥177॥


कबीरा धूर सकेल कै पुरिया बाँधी देह।

दिवस चारि को पेखना अंत खेह की खेह॥178॥


कबीरा हमरा कोइ नहीं हम किसहू के नाहि।

जिन यहु रचन रचाइया तितहीं माहिं समाहिं॥179॥


कोई लरका बेचई लरकी बेचै कोइ।

साँझा करे कबीर स्यों हरि संग बनज करेइ॥180॥


जहँ अनभै तहँ भौ नहीं जहँ भै तहं हरि नाहिं।

कह्यौ कबीर बिचारिकै संत सुनहु मन माँहि॥181॥


जोरी किये जुलुम है कहता नाउ हलाल।

दफतर लेखा माडिये तब होइगौ कौन हवाल॥182॥


ढूँढत डोले अंध गति अरु चीनत नाहीं अंत।

कहि नामा क्यों पाइयै बिन भगतई भगवंत॥183॥


नीचे लोइन कर रहौ जे साजन घट माँहि।

सब रस खेलो पीव सौ कियो लखावौ नाहिं॥184॥


बूड़ा बंस कबीर का उपज्यो पूत कमाल।

हरि का सिमरन छाड़िकै घर ले आया माल॥185॥


मारग मोती बीथरे अंधा निकस्यो आइ।

जोति बिना जगदीस की जगत उलंघे जाइ॥186॥


राम पदारथ पाइ कै कबिरा गाँठि न खोल।

नहीं पहन नहीं पारखू नहीं गाहक नहीं मोल॥187॥


सेख सबूरी बाहरा क्या हज काबै जाइ।

जाका दिल साबत नहीं ताको कहाँ खुदाइ॥188॥


सुनु सखी पिउ महि जिउ बसै जिउ महिबसै कि पीउ।

जीव पीउ बूझौ नहीं घट महि जीउ की पीउ॥189॥


हरि है खांडू रे तुमहि बिखरी हाथों चूनी न जाइ।

कहि कबीर गुरु भली बुझाई चीटीं होइ के खाइ॥190॥


गगन दमामा बाजिया परो निसानै घाउ।

खेत जु मारो सूरमा जब जूझन को दाउ॥191॥


सूरा सो पहिचानिये जु लरै दीन के हेत।

पुरजा पुरजा कटि मरै कबहुँ न छाड़ै खेत॥192॥


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