राम नाम सुमिरन बिनै, बूड़त है अधिकाई॥टेक॥
दारा सुत गेह नेह, संपति अधिकाई॥
यामैं कछु नांहि तेरौ, काल अवधि आई॥
अजामेल गज गनिका, पतित करम कीन्हाँ॥
तेऊ उतरि पारि गये, राम नाम लीन्हाँ॥
स्वांन सूकर काग कीन्हौ, तऊ लाज न आई॥
राम नाम अंमृत छाड़ि काहे बिष खाई।
तजि भरम करम बिधि नखेद, राम नाम लेही॥
जन कबीर गुर प्रसादि, राम करि सनेही॥320॥
राम नाम हिरदै धरि, निरमौलिक हीरा।
सोभा तिहूँ लोक, तिमर जाय त्रिविध पीरा॥टेक॥
त्रिसनां नै लोभ लहरि, काम क्रोध नीरा।
मद मंछर कछ मछ हरषि सोक तीरा॥
कांमनी अरु कनक भवर, बोये बहु बीरा॥
जब कबीर नवका हरि, खेवट गुरु कीरा॥321॥
चलि मेरी सखी हो, वो लगन राम राया।
जब तक काल बिनासै काया॥टेक॥
जब लोभ मोह की दासी, तीरथ ब्रत न छूटै जंभ की पासी।
आवैंगे जम के घालैगे बांटी, यहु तन जरि बरि होइगा माटी।
कहै कबीर जे जन हरि रंगिराता, पायौ राजा राम परम पद दाता॥322॥
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