प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर, और कारण जाइ रे॥टेक॥
दाँम छै पणि कांम नाहीं, ग्याँन छै पणि अंध रे॥
श्रवण छै पणि सुरत नाहीं, नैन छै पणि अंध रे॥
जाके नाभि पदक सूँ उदित ब्रह्मा, चरन गंग तरंग रे॥
कहै कबीर हरि भगति बांछू जगत गुर गोब्यंद रे॥390॥
बिष्णु ध्यांन सनान करि रे, बाहरि अंग न धोई रे।
साच बिन सीझसि नहीं, कांई ग्यांन दृष्टैं जोइ रे॥
जंबाल मांहैं जीव राखै, सुधि नहीं सरीर रे॥
अभिअंतरि भेद नहीं, कांई बाहरि न्हावै नीर रे॥
निहकर्म नदी ग्यांन जल, सुंनि मंडल मांहि रे॥
ओभूत जोगी आतमां, कांई पेड़ै संजमि न्हाहि रे॥
इला प्यंगुला सुषमनां, पछिम गंगा बालि रे॥
कहै कबीर कुसमल झड़ै, कांई मांहि लौ अंग पषालि रे॥391॥
भजि नारदादि सुकादि बंदित, चरन पंकज भांमिनी।
भजि भजिसि भूषन पिया मनोहर देव देव सिरोवनी॥टेक॥
बुधि नाभि चंदन चरिचिता, तन रिदा मंदिर भीतरा॥
राम राजसि नैन बांनी, सुजान सुंदर सुंदरा॥
बहु पाप परबत छेदनां, भौ ताप दुरिति निवारणां॥
कहै कबीर गोब्यंद भजि, परमांनंद बंदित कारणां॥392॥
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