जतन बिन मृगनि खेत उजारे,
टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे॥टेक॥
अपने अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे।
अति अभिमान बदत नहीं काहू, बहुत लोग पचि हारे॥
बुधि मेरी फिरषी गुर मेरौ बिझुका, आखिर दोइ रखवारे॥
कहै कबीर अब खान न दैहूँ, बरियां भली सँभारे॥396॥
हरि गुन सुमरि रे नर प्राणी।
जतन करत पतन ह्नै जैहै, भावै जाँणम जाँणी॥टेक॥
छीलर नीर रहै धूँ कैसे, को सुपिनै सच पावै।
सूकित पांन परत तरवर थैं, उलटि न तरवरि आवै॥
जल थल जीव डहके इन माया, कोई जन उबर न पावै॥
राम अधार कहत हैं जुगि जुगि, दास कबीरा गावै॥397॥
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