हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥1॥
बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥टेक॥
मंगलाचार माँहि मन राखौं, राम रसाँइण रमना चाषौं।
मंदिर माँहि भयो उजियारा, ले सुतो अपना पीव पियारा॥
मैं रनि राती जे निधि पाई, हमहिं कहाँ यह तुमहि बड़ाइ।
कहै कबीर मैं कछु न कीन्हा सखी सुहाग मोहि दीन्हा॥2॥
अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे, ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥टेक॥
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर करहु मति घोषैं॥3॥
मन के मोहन बिठुला, यह मन लागौ तोहि रे।
चरन कँवल मन मानियाँ, और न भावै मोहि रे॥टेक॥
षट दल कँवल निवासिया, चहु कौं फेरि मिलाइ रे।
दहुँ के बीचि समाधियाँ, तहाँ काल न पासैं आइ रे॥
अष्ट कँवल दल भीतरा, तहाँ श्रीरंग केलि कराइ रे।
सतगुर मिलै तौ पाइए, नहिं तौ जन्म अक्यारथ जाइ रे॥
कदली कुसुम दल भीतराँ, तहाँ दस आँगुल का बीच रे।
तहाँ दुवारस खोजि ले जनम होत नहीं मीच रे॥
बंक नालि के अंतरै, पछिम दिसाँ की बाट रे।
नीझर झरै रस पीजिये, तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥
त्रिवेणी मनाइ न्हवाइए सुरति मिलै जो हाथि रे।
तहाँ न फिरि मघ जोइए सनकादिक मिलिहै साथि रे॥
गगन गरिज मघ जोइये, तहाँ दीसै तार अनंत रे।
बिजुरी चमकि घन बरषिहै, तहाँ भीजत हैं सब संत रे॥
षोडस कँवल जब चेतिया, तब मिलि गये श्री बनवारि रे।
जुरामरण भ्रम भाजिया, पुनरपि जनम निवारि रे॥
गुर गमि तैं पाइए झषि सरे जिनि कोइ रे।
तहीं कबीरा रमि रह्या सहज समाधी सोइ रे॥4॥
टिप्पणी: ख-जन्म अमोलिक।
गोकल नाइक बीठुला, मेरौ मन लागै तोहि रे।
बहुतक दिन बिछुरै भये, तेरी औसेरि आवै मोहि रे॥टेक॥
करम कोटि कौ ग्रेह रच्यो रे, नेह कये की आस रे।
आपहिं आप बँधाइया, द्वै लोचन मरहिं पियास रे॥
आपा पर संमि चीन्हिये, दीसैं सरब सँमान।
इहि पद नरहरि भेटिये, तूँ छाड़ि कपट अभिमान रे॥
नाँ कलहूँ चलि जाइये नाँ सिर लीजै भार।
रसनाँ रसहिं बिचारिये, सारँग श्रीरँग धार रे॥
साधै सिधि ऐसी पाइये, किंवा होइ महोइ।
जे दिठ ग्यान न ऊपजै, तौ आहुटि रहै जिनि कोइ रे॥
एक जुगति एकै मिलैं किंबा जोग कि भोग।
इन दून्यूँ फल पाइये, राम नाँम सिधि जोग रे॥
प्रेम भगति ऐसी कीजिये, मुखि अमृत अरिषै चंद रे।
आपही आप बिचारिये, तब कंता होइ अनंद रे॥
तुम्ह जिनि जानौं गीत है, यहू निज ब्रह्म विचार।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे।
चरन कँवल चित लाइये, राम नाम गुन गाइ॥
कहै कबीर मंसा नहीं, भगति मुकति गति पाइ रे॥5॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आन कहूँ तौ राम दुहाई॥टेक॥
इहि विधि बसि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा।
और रस ह्नै कफगाता, हरिरस अधिक अधिक सुखराता॥
दूजा बणज नहीं कछु वाषर, राम नाम दोऊ तत आषर।
कहै कबीर हरिस भोगी, ताकौं मिल्या निरंजन जोगी॥6॥
अब मैं पाइबो रे पाइबो ब्रह्म गियान,
सहज समाधें सुख में रहिबो, कोटि कलप विश्राम॥टेक॥
गुर कृपाल कृपा जब कीन्हौं, हिरदै कँवल बिगासा।
भाग भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा॥
मृतक उठ्या धनक कर लीयै, काल अहेड़ी भाषा।
उदय सूर निस किया पयाँनाँ, सोवत थैं जब जागा॥
अविगत अकल अनुपम देख्या, कहताँ कह्या न जाई।
सैन करै मन हो मर रहसैं, गूँगैं जाँनि मिठाई॥
पहुप बिनाँ एक तरवर फलिया, बिन कर तूर बजाया।
नारी बिना नीर घट भरिया, सहज रूप सौ पाया॥
देखत काँच भया तन कंचन, बिना बानी मन माँनाँ।
उड़îा बिहंगम खोज न पाया, ज्यूँ जल जलहिं समाँनाँ॥
पूज्या देव बहुरि नहीं पूजौं, न्हाये उदिक न नाउँ।
आपे मैं तब आया निरष्या, अपन पै आपा सूझ्या।
आपै कहत सुनत पुनि अपनाँ, अपन पै आपा बूझ्या॥
अपनै परचै लागी तारी, अपन पै आप समाँनाँ।
कहै कबीर जे आप बिचारै, मिटि गया आवन जाँना॥6॥
नरहरि सहजै ही जिनि जाना।
गत फल फूल तत तर पलव, अंकूर बीज नसाँनाँ॥टेक॥
प्रकट प्रकास ग्यान गुरगमि थैं, ब्रह्म अगनि प्रजारी।
ससि हरि सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, मेर डंड सरपूरा।
गगन गरजि मन सुंनि समाना, बाजे अनहद तूरा॥
सुमति सरीर कबीर बिचारी, त्रिकुटी संगम स्वामी।
पद आनंद काल थैं छूटै, सुख मैं सुरति समाँनी॥7॥
मन रे मन ही उलटि समाँना।
गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना॥टेक॥
नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा, जिनि जैसा करि जाना।
औ लौ ठीका चढ्या बलीडै, जिनि पीया तिनि माना॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन सुरति लै लागि।
अमर न मरै मरै नहीं जीवै, ताहि खोजि बैरागी॥
अनभै कथा कवन सी कहिये, है कोई चतुर बिबेकी।
कहै कबीर गुर दिया पलीता, सौ झल बिरलै देखी॥8॥
इति तत राम जपहु रे प्राँनी, बुझौ अकथ कहाँणी।
हीर का भाव होइ जा ऊपरि जाग्रत रैनि बिहानी॥टेक॥
डाँइन डारै, सुनहाँ डोरै स्पंध रहै बन घेरै।
पंच कुटुंब मिलि झुझन लागे, बाजत सबद सँघेरै॥
रोहै मृग ससा बन घेरे, पारथी बाँण न मेलै।
सायर जलै सकल बन दाझँ, मंछ अहेरा खेलै॥
सोई पंडित सो तत ज्ञाता, जो इहि पदहि बिचारै।
कहै कबीर सोइ गुर मेरा, आप तीरै मोहि तारै॥9॥
अवधू ग्यान लहरि धुनि मीडि रे।
सबद अतीत अनाहद राता, इहि विधि त्रिष्णाँ षाँड़ी॥टेक॥
बन कै संसै समंद पर कीया मंछा बसै पहाड़ी।
सुई पीवै ब्राँह्मण मतवाला, फल लागा बिन बाड़ी॥
षाड बुणैं कोली मैं बैठी, मैं खूँटा मैं गाढ़ी।
ताँणे वाणे पड़ी अनँवासी, सूत कहै बुणि गाढ़॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अगम ग्यान पद माँही।
गुरु प्रसाद सुई कै नांकै, हस्ती आवै जाँही॥10॥
एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥
पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई।
जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥
बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥
तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल।
कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै॥11॥
हरि के षारे बड़े पकाये, जिनि जारे तिनि पाये।
ग्यान अचेत फिरै नर लोई, ता जनमि डहकाए॥टेक॥
धौल मँदलिया बैल रबाबी, बऊवा ताल बजावै।
पहरि चोलन आदम नाचै, भैसाँ निरति कहावै॥
स्यंध बैठा पान कतरै, घूँस गिलौरा लावै॥
उँदरी बपुरी मंगल गावै, कछु एक आनंद सुनावै॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, गडरी परबत खावा।
चकवा बैसि अँगारे निगले, समंद अकासा धावा॥12॥
चरखा जिनि जरे।
कतौंगी हजरी का सूत नणद के भइया कीसौं॥टेक॥
जलि जाई थलि ऊपजी, आई नगर मैं आप।
एक अचंभा देखिया, बिटिया जायौ बाप॥
बाबल मेरा ब्याह करि, बर उत्यम ले चाहि।
जब लग बर पावै नहीं, तब लग तूँ ही ब्याहि॥
सुबधी कै घरि लुबधी आयो, आन बहू कै भाइ।
चूल्हे अगनि बताइ करि, फल सौ दीयो ठठाइ॥
सब जगही मर जाइयौ, एक बड़इया जिनि मरै।
सब राँडनि कौ साथ चरषा को धारै॥
कहै कबीर सो पंडित ज्ञाता जो या पदही बिचारै।
पहलै परच गुर मिलै तौ पीछैं सतगुर तारे॥13॥
अब मोहि ले चलि नणद के बीर, अपने देसा।
इन पंचनि मिलि लूटी हूँ, कुसंग आहि बदेसा॥टेक॥
गंग तीर मोरी खेती बारी, जमुन तीर खरिहानाँ।
सातौं बिरही मेरे निपजैं, पंचूँ मोर किसानाँ॥
कहै कबीर यह अकथ कथा है, कहताँ कही न जाई।
सहज भाइ जिहिं ऊपजै, ते रमि रहै समाई॥14॥
अब हम सकल कुसल करि माँनाँ, स्वाँति भई तब गोब्यंद जाँनाँ॥ टेक ॥
तन मैं होती कोटि उपाधि, भई सुख सहज समाधि॥
जम थैं उलटि भये हैं राम, दुःख सुख किया विश्राँम॥
बैरी उलटि भये हैं मीता साषत उलटि सजन भये चीता॥
आपा जानि उलटि ले आप, तौ नहीं ब्यापै तीन्यूँ ताप॥
अब मन उलटि सनातन हूवा, तब हम जाँनाँ जीवन मूवा॥
कहै कबीर सुख सहज समाऊँ, आप न डरौं न और डराऊँ॥15॥
संतौं भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥टेक॥
हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥
कूड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥16॥
ब घटि प्रगट भये राम राई, साधि सरीर कनक की नाई॥टेक॥
नक कसौटी जैसे कसि लेइ सुनारा, सोधि सरीर भयो तनसारा॥
उपजत उपजत बहुत उपाई, मन थिर भयो तबै तिथि पाई॥
बाहरि षोजत जनम गँवाया, उनमनीं ध्यान घट भीतरि पाया।
बिन परचै तन काँच कबीरा, परचैं कंचन भया कबीरा॥17॥
हिंडोलनाँ तहाँ झूलैं आतम राम।
प्रेम भगति हिंडोलना, सब संतन कौ विश्राम॥टेक॥
चंद सूर दोइ खंभवा, बंक नालि की डोरि।
झूलें पंच पियारियाँ, तहाँ झूलै जीय मोर॥
द्वादस गम के अंतरा, तहाँ अमृत कौ ग्रास।
जिनि यह अमृत चाषिया, सो ठाकुर हम दास॥
सहज सुँनि कौ नेहरौ गगन मंडल सिरिमौर।
दोऊ कुल हम आगरी, जो हम झूलै हिंडोल॥
अरध उरध की गंगा जमुना, मूल कवल कौ घाट।
षट चक्र की गागरी, त्रिवेणीं संगम बाट।
नाद ब्यंद की नावरी, राम नाम कनिहार।
कहै कबीर गुण गाइ ले, गुर गँमि उतरौ पार॥18॥
कौ बीनैं प्रेम लागी री माई कौ बीन। राम रसाइण मातेरी, माई को बीनैं॥टेक॥
पाई पाई तूँ पुतिहाई, पाई की तुरियाँ बेचि खाई री, माई कौ बीनैं॥
ऐसैं पाईपर बिथुराई, त्यूँ रस आनि बनायौ री, माई कौ बीनैं।
नाचैं ताँनाँ नाँचै बाँनाँ, नाचैं कूँ पुराना री, माई को बीनैं॥19॥
मैं बुनि करि सियाँनाँ हो राम, नालि करम नहीं ऊबरे॥टेक॥
दखिन कूट जब सुनहाँ झूका, तब हम सगुन बिचारा।
लरके परके सब जागत है हम घरि चोर पसारा हो राम॥
ताँनाँ लीन्हाँ बाँनाँ लीन्हाँ, माँस चलवना डऊवा हो राम।
एक पग दोई पग त्रोपग, सँघ सधि मिलाई।
कर परपंच मोट बाँधि आये, किलिकिलि सबै मिटाई हो राम॥
ताँनाँ तनि करि बाँनाँ बुनि करि, छाक परी मोहि ध्याँन।
कहै कबीर मैं बुंनि सिराँना जानत है भगवाँनाँ हो राम॥20॥
तननाँ बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिखि लिया शरीर॥टेक॥
जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटै राम सनेह॥
ठाड़ी रोवै कबीर की माइ, ए लरिका क्यूँ जीवै खुदाइ।
कहै कबीर सुनहुँ री माई, पूरणहारा त्रिभुवन राइ॥21॥
जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ।
धर जाजरौ बलीडौ टेढ़ौ, औलोती डर राइ॥टेक॥
मगरी तजौ प्रीति पाषे सूँ डाँडी देहु लगाइ।
छींको छोड़ि उपरहि डौ बाँधा, ज्यूँ जुगि जुगि रहौ समाइ।
बैसि परहडी द्वार मुँदावौं, ख्यावों पूत घर घेरी।
जेठी धीय सासरे पठवौं, ज्यूँ बहुरि न आवै फेरी॥
लहुरी धीइ सवै कुश धोयौ, तब ढिग बैठन माई।
कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलिकिलि सबै चुकाँई॥22॥
मन रे जागत रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मूसै घर जाई॥टेक॥
षट चक की कनक कोठड़ी, बसत भाव है सोई।
ताला कूँजी कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई॥
पंच पहरवा सोइ गये हैं, बसतै जागण लोगी।
करत बिचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया॥23॥
चलन चलन सब को कहत है, नाँ जाँनौं बैकुंठ कहाँ है॥टेक॥
जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बषानै।
जब लग है बैकुंठ की आसा, तब लग नाहीं हरि चरन निवासा॥
कहें सुनें कैसें पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।
कहै कबीर बहु कहिये काहि, साध संगति बैकुंठहि आहि॥24॥
अपने विचारि असवारी कीजै, सहज के पाइड़े पाव जब दीजे॥टेक॥
दै मुहरा लगाँम पहिराँऊँ, सिकली जीन गगन दौराऊँ।
चलि बैकुंठ तोहि लै तारों, थकहि त प्रेम ताजनैं मारूँ॥
जन कबीर ऐसा असवारा, बेद कतेब दहूँ थैं न्यारा॥25॥
अपनैं मैं रँगि आपनपो जानूँ, जिहि रंगि जाँनि ताही कूँ माँनूँ॥टेक॥
अभि अंतरि मन रंग समानाँ, लोग कहैं कबीर बौरानाँ।
रंग न चीन्हैं मुरखि लोई, जिह रँगि रंग रह्या सब कोई॥
जे रंग कबहूँ न आवै न जाई, कहै कबीर तिहिं रह्या समाई॥26॥
झगरा एक नवेरो राम, जें तुम्ह अपने जन सूँ काँम॥टेक॥
ब्रह्म बड़ा कि जिनि रू उपाया, बेद बड़ा कि जहाँ थैं आया।
यह मन बड़ा कि जहाँ मन मानै, राम बड़ा कि रामहि जान।
कहै कबीर हूँ खरा उदास, तीरथ बड़े कि हरि के दास॥27॥
दास रामहिं जानि है रे, और न जानै कोइ॥टेक॥
काजल दइ सबै कोई, चषि चाहन माँहि बिनाँन।
जिनि लोइनि मन मोहिया, ते लोइन परबाँन॥
बहुत भगति भौसागरा, नाँनाँ विधि नाँनाँ भाव।
जिहि हिरदै श्रीहरि, भेटिया, सो भेद कहूँ कहूँ ठाउँ॥
तरसन सँमि का कीजिये, जौ गुनहिं होत समाँन।
सींधव नीर कबीर मिल्यौ है, फटक न मिल पखाँन॥28॥
कैसे होइगा मिलावा हरि सनाँ, रे तू विषै विकार न तजि मनाँ॥टेक॥
रे तै जोग जुगति जान्याँ नहीं, तैं गुर का सबद मान्याँ नहीं।
गंदी देही देखि न फूलिये, संसार देखि न भूलिये॥
कहै कबीर राम मम बहु गुँनी, हरि भगति बिनाँ दुख फुनफुनी॥29॥
कासूँ कहिये सुनि रामा, तेरा मरम न जानै कोई जी।
दास बबेकी सब भले, परि भेद न छानाँ होई जी॥टेक॥
ए सकल ब्रह्मंड तैं पूरिया, अरु दूजा महि थान जी।
राम रसाइन रसिक है, अद्भुत गति बिस्तार जी॥
भ्रम निसा जो गत करे, ताहि सूझै संसार जी॥
सिव सनकादिक नारदा, ब्रह्म लिया निज बास जी।
कहै कबीर पद पंक्याजा, अष नेड़ा चरण निवास जी॥30॥
मैं डोरै डारे जाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥टेक॥
सूत बहुत कुछ थोरा, ताथै, लाइ ले कंथा डोरा।
कंथा डोरा लागा, तथ जुरा मरण भौ भागा॥
जहाँ सूत कपास न पूनी, तहाँ बसै इक मूनी।
उस मूनीं सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मेरे डंड इक छाजा, तहाँ बसै इक राजा।
तिस राजा सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ बहु हीरा धन मोती, तहाँ तत लाइ लै जोती।
तिस जोतिहिं जोति मिलाँऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ ऊगै सूर न चंदा, तहाँ देख्या एक अनंदा।
उस आनँद सूँ लौ लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मूल बंध इक पावा, तहाँ सिध गणेश्वर रावाँ।
तिस मूलहिं मूल मिलाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
कबीरा तालिब तेरा, जहाँ गोपत हरी गुर मोरा।
तहाँ हेत हरि चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥31॥
संतौं धागा टूटा गगन बिनसि गया, सबद जु कहाँ समाई।
ए संसा मोहि निस दिन व्यापै, कोइ न कहैं समझाई॥टेक॥
नहीं ब्रह्मंड पुँनि नाँही, पंचतत भी नाहीं।
इला प्यंगुला सुखमन नाँही, ए गुण कहाँ समाहीं।
नहीं ग्रिह द्वारा कछू नहीं, तहियाँ रचनहार पुनि नाँहीं।
जीवनहार अतीत सदा संगि, ये गुण तहाँ समाँहीं॥
तूटै बँधै बँधै पुनि तूटै, तब तब होइ बिनासा।
तब को ठाकुर अब को सेवग, को काकै बिसवासा॥
कहै कबीर यहु गगन न बिनसै, जौ धागा उनमाँनाँ।
सीखें सुने पढ़ें का कोई, जौ नहीं पदहि समाँना॥32॥
ता मन कौं खोजहु रे भाई, तन छूटे मन कहाँ समाई॥टेक॥
सनक सनंदन जै देवनाँमी भगति करी मन उनहुँ न जानीं।
सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी, यन का गति उनहुँ नहीं जानीं॥
धू प्रहिलाद बभीषन सेषा, तन भीतर मन उनहुँ न देषा।
ता मन का कोइ जानै भेव, रंचक लीन भया सुषदेव॥
गोरष भरथरी गोपीचंदा, ता मन सौं मिलि करै अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा, ता मन सौं मिलि रहा कबीरा॥33॥
भाई रे बिरले दोसत कबीरा के, यहु तत बार बार काँसो कहिये।
भानण घड़ण सँवारण संम्रथ, ज्यूँ राषै त्यूँ रहिये॥टेक॥
आलम दुनों सबै फिरि खोजी, हरि बिन सकल अयानाँ।
छह दरसन छ्यानबै पाषंड, आकुल किनहुँ न जानाँ॥
जप तप संजम पूजा अरचा, जोतिग जब बीरानाँ।
कागद लिखि लिखि जगत भुलानाँ, मनहीं मन न समानाँ॥
कहै कबीर जोगी अरु, जंगम ए सब झूठी आसा।
गुर प्रसादि रटौ चात्रिग ज्यूँ, निहचैं भगति निवासा॥34॥
कितेक सिव संकर गये ऊठि, राम समाधि अजहूँ नहिं छूटि॥टेक॥
प्रलै काल कहुँ कितेक भाष, गये इंद्र से अगणित लाष।
ब्रह्मा खोजि परो गहि नाल, कहै कबीर वै राम निराल॥35॥
अच्यंत च्यंत ए माधौ, सो सब माँहिं समानाँ।
ताह छाड़ि जे आँन भजत हैं, ते सब भ्रंमि भुलाँनाँ॥टेक॥
ईस कहै मैं ध्यान न जानूँ, दुरलभ निज पद मोहीं।
रंचक करुणाँ कारणि केसो, नाम धरण कौं तोहीं॥
कहौ थौं सबद कहाँ थै आवै, अरु फिर कहाँ समाई।
सबद अतीत का मरम न जानै, भ्रंमि भूली दुनियाई॥
प्यंड मुकति कहाँ ले कीजै, जो पद मुकति न होई।
प्यंडै मुकति कहत हैं मुनि जन, सबद अतीत था सोई॥
प्रगट गुपत गुपत पुनि प्रगट, सो कत रहै लुकाई।
कबीर परमानंद मनाये, अथक कथ्यौ नहीं जाई॥36॥
सो कछू बिचारहु पंडित लोई, जाकै रूप न रेष बरण नहीं कोई॥टेक॥
उपजै प्यंड प्रान कहाँ थैं आवै, मूवा जीव जाइ कहाँ समावै।
इंद्री कहाँ करिहि विश्रामा, सो कत गया जो कहता रामा।
पंचतत तहाँ सबद न स्वादं, अलख निरंजन विद्या न बादं।
कहै कबीर मन मनहि समानाँ, तब आगम निगम झूठ करि जानाँ॥37॥
जौं पैं बीज रूप भगवाना, तौ पंडित का कथिसि गियाना॥टेक॥
नहीं तन नहीं मन नहीं अहंकारा, नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥
विष अमृत फल फले अनेक, बेद रु बोधक हैं तरु एक।
कहै कबीर इहै मन माना, कहिधूँ छूट कवन उरझाना॥38॥
पाँडे कौन कुमति तोहि लागी, तूँ राम न जपहि अभागी॥टेक॥
वेद पुरान पढ़त अस पाँडे खर चंदन जैसैं भारा।
राम नाम तत समझत नाँहीं, अंति पड़ै मुखि छारा॥
बेद पढ्याँ का यहु फल पाँडे, सब घटि देखैं रामा।
जन्म मरन थैं तौ तूँ छूटै, सुफल हूँहि सब काँमाँ॥
जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहाँ है भाई।
आपन तौ मुनिजन ह्नै बैठे, का सनि कहौं कसाई ॥
नारद कहै ब्यास व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।
कहै कबीर कुमति तब छूटै, जे रहौ राम ल्यौ लाई ॥39॥
पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्माँ दुनियाँ गति पावै, षाँड कह्माँ मुख मीठा ॥टेक॥
पावक कह्माँ मूष जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्माँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई ॥
नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूँ उड़ि जाइ जंगल में, बहुरि न सुरतै आनै ॥
साची प्रीति विषै माया सूँ, हरि भगतनि सूँ हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यौ जमपुरि जासी ॥40॥
जौ पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डाँड़ि किन सारै॥टेक॥
उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, जो धरी अरु लागी माया।
नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।
जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँन वाँट ह्नै काहे न आया।
जे तूँ तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई, सौ मधिम जा मुखि राम न होई ॥41॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
काहे कौ कीजै पाँडे छोति बिचारा।
छोतिहीं तै उपना सब संसारा॥टेक॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध।
तुम्ह कैसे बाँह्मण पाँडे हम कैसे सूद॥
छोति छोति करता तुम्हहीं जाए।
तौ ग्रभवास काहें कौं आए॥
जनमत छोत मरत ही छोति।
कहै कबीर हरि की बिमल जोति॥42॥
कथता बकता सुनता सोई, आप बिचारै सो ग्यानी होई ॥टेक॥
जैसे अगनि पवन का मेला, चंचल बुधि का खेला।
नव दरवाजे दसूँ दुवार,प बूझि रे ग्यानी ग्यान विचार॥
देहौ माटी बोलै पवनाँ, बूझि रे ज्ञानी मूवा स कौनाँ।
मुई सुरति बाद अहंकार, वह न मूवा जो बोलणहार॥
जिस कारनि तटि तीरथि जाँहीं, रतन पदारथ घटहीं माहीं।
पढ़ि पढ़ि पंडित बेद बषाँणै, भीतरि हूती बसत न जाँणै॥
हूँ न मूवा मेरी मुई बलाइ, सो न मुवा जौ रह्मा समाइ।
कहै कबीर गुरु ब्रह्म दिखाया, मरता जाता नजरि न आया ॥42॥
हम न मरैं मरिहैं संसारा, हँम कूँ मिल्या जियावनहारा ॥टेक॥
अब न मरौ मरनै मन माँना, ते मूए जिनि राम न जाँना।
साकत मरै संत जन जीवै, भरि भरि राम रसाइन पीवै ॥
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं, हरि न मरै हँम काहे कूँ मरिहैं।
कहै कबीर मन मनहि मिलावा, अमर भये सुख सागर पावा ॥43॥
कौन मरै कौन जनमै आई, सरग नरक कौने गति पाई ॥टेक॥
पंचतत अतिगत थैं उतपनाँ एकै किया निवासा।
बिछूरे तत फिरि सहज समाँनाँ, रेख रही नहीं आसा ॥
जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समानाँ, यह तत कथौ गियानी ॥
आदै गगनाँ अंतै गगनाँ मधे गगनाँ माई।
कहै कबीर करम किस लागै, झूठी संक उपाई ॥44॥
कौन मरै कहू पंडित जनाँ, सो समझाइ कहौ हम सनाँ ॥टेक॥
माटी माटी रही समाइ, पवनै पवन लिया सँग लाइ ॥
कहै कबीर सुंनि पंडित गुनी, रूप मूवा सब देखै दुनी ॥45॥
जे को मरै मरन है मीठा, गुरु प्रसादि जिनहीं मरि दीठा ॥टेक॥
मुवा करता मुई ज करनी, मुई नारि सुरति बहु धरनी।
मूवा आपा मूवा माँन, परपंच लेइ मूवा अभिमाँन ॥
राम रमे रमि जे जन मूवा, कहै कबीर अविनासी हुआ ॥46॥
जस तूँ तस तोहि कोइ न जान, लोग कहै सब आनहिं आँन ॥टेक॥
चारि बेद चहुँ मत का बिचार इहि भ्रँमि भूलि परो संसार।
सुरति सुमृति दोइ कौ बिसवास, बाझि परौं सब आसा पास॥
ब्रह्मादिक सनाकादिक सुर नर, मैं बपुरो धूँका मैं का कर।
जिहि तुम्ह तारौ सोई पै तिरई, कहै कबीर नाँतर बाँध्यौ मरई ॥47॥
लोका तुम्ह ज कहत हौ नंद कौ, नंदन नंद कहौ धुं काकौ रे।
धरनि अकास दोऊ नहीं होते, तब यहु नंद कहाँ थौ रे ॥टेक॥
जाँमैं मरै न सँकुटि आवै, नाँव निरंजन जाकौ रे।
अबिनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे ॥
लष चौरासी जीव जंत मैं भ्रमत नंदी थाकौ रे।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसो, भगति करै हरि ताकौ रे ॥48॥
निरगुण राँम निरगुण राँम जपहु रे भाई, अबिगति की गति लखी न जाई ॥टेक॥
चारि बेद जाको सुमृत पुराँनाँ नौ ब्याकरनाँ मरम न जाँनाँ ॥
चारि बेद जाकै गरड समाँनाँ, चरन कवल कँवला नहीं जाँनाँ ॥
कहै कबीर जाकै भेदै नाँहीं, निज जन बैठे हरि की छाहीं ॥49॥
मैं सबनि मैं औरनि मैं हूँ सब।
मेरी बिलगि बिलगि बिलगाई हो,
कोई कहो कबीर कहो राँम राई हो ॥टेक॥
नाँ हम बार बूढ़ नाही, हम ना हमरै चिलकाई हो।
पठए न जाऊँ अरवा नहीं आऊँ सहजि रहूँ हरिआई हो ॥
वोढन हमरे एक पछेवरा, लोक बोलै इकताई हो ॥
जुलहे तनि बुनि पाँनि न पावल, फार बुनि दस ठाँई हो ॥
त्रिगुँण रहित फल रमि हम राखल, तब हमारौ नाउँ राँम राई हो ॥
जग मैं देखौं जग न देखै मोहि, इहि कबीर कछु पाई हो ॥50॥
टिप्पणी: ख-ना हम बार बूढ़ पुनि नाँही।
लोका जानि न भूलौ भाई।
खालिक खलक खलक मैं खालिक, सब घट रहौ समाई ॥टेक॥
अला एकै नूर उपनाया, ताकी कैसी निंदा।
ता नूर थै सब जग कीया, कौन भला कौन मंदा ॥
ता अला की गति नहीं जाँनी गुरि गुड़ दीया मीठा ॥
कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहिब दीठा ॥51॥
राँम मोहि तारि कहाँ लै जैहो।
सो बैकुंठ कहौ धूँ कैसा, करि पसाव मोहि दैहो ॥टेक॥
जे मेरे जीव दोइ जाँनत हौ, तौ मोहि मुकति बताओ।
एकमेक रमि रह्मा सबनि मैं, तो काहे भरमावै॥
तारण तिरण जबै लग कहिये, तब लग तत न जाँनाँ।
एक राँम देख्या सबहिन मैं कहै कबीर मन माँनाँ ॥52॥
सोहं हंसा एक समान, काया के गुँण आँनही आन ॥टेक॥
माटी एक सकल संसार, बहुबिधि भाँडे घड़ै कुँभारा।
पंच बरन दस दुहिये गाइ, एक दूध देखौ पतिआइ।
कहै कबीर संसा करि दूरि त्रिभवननाथ रह्या भरपूर ॥53॥
प्यारे राँम मनहीं मनाँ।
कासूँ कहूँ कहन कौं नाहीं, दूसरा और जनाँ॥टेक॥
ज्यूँ दरपन प्रतिब्यंब देखिये आप दवासूँ सोई।
संसौ मिट्यौ एक कौ एकै, महा प्रलै जब होई॥
जौ रिझाऊँ तौ महा कठिन है, बिन रिझायैं थैं सब खोटी।
कहै कबीर तरक दोइ साधै, ताकी मति है मोटी॥54॥
हँम तौ एक एक करि जाँनाँ।
दोइ कहै तिनही कौं दोजग, जिन नाँहिन पहिचाँनाँ॥टेक॥
एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा।
एक ही खाक घड़े सब भाँडे, एक ही सिरजनहारा॥
जैसै बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई॥
सब घटि अंतरि तूँहीं व्यापक, धरै सरूपै सोई॥
माया मोहे अर्थ देखि करि, काहै कूँ गरबाँनाँ॥
निरभै भया कछू नाहिं ब्यापै, कहै कबीर दिवाँनाँ॥55॥
अरे भाई दोइ कहा सो मोहि बतायौ, बिचिही भरम का भेद लगावौ॥टेक॥
जोनि उपाइ रची द्वै धरनीं दीन एक बीच भई करनी।
राँम रहीम जपत सुधि गई, उनि माला उनि तसबी लई॥
कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिंदू॥56॥
ऐसा भेद बिगूचन भारी। बेद कतेब दीन अरु दुनियाँ, कौन पुरिषु कौननारी॥टेक॥
एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाँम एक चाँम एक गूदा।
एक जोति थैं सब उतपनाँ, कौन बाँम्हन कौन सूदा॥
माटी का प्यंड सहजि उतपनाँ, नाद रु ब्यंद समाँनाँ।
बिनसि गयाँ थै का नाँव धरिहौ, पढ़ि गुनि हरि भ्रँन जाँना॥
रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर, सत गुन हरि है सोई।
कहै कबीर एक राँम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई॥57॥
हँमारे राँम रहीम करीमा केसो, अलाह राँम सति सोई।
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई॥टेक॥
इनके काजी मूलाँ पीर पैकंबर, रोजा पछिम निवाजा।
इनकै पूरब दिसा देव दिज पूजा, ग्यारसि गंग दिवाजा॥
तुरक मसीति देहुरै हिंदू, दहूँठा राँम खुदाई।
जहाँ मसीति देहुरा नाहीं, तहाँ काकी ठकुराई॥
हिंदू तुरक दोऊ रह तूटी, फूटी अरु कनराई।
अरध उरथ दसहूँ दिस जित तित, पूरि रह्या राम राई॥
कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी रहि चलि भाई॥
हिंदू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥58॥
काजी कौन कतेब बषांनै।
पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानैं॥टेक॥
सकति से नेह पकरि करि सुंनति, बहु नबदूँ रे भाई।
जौर षुदाई तुरक मोहिं करता, तौ आपै कटि किन जाई॥
हौं तौ तुरक किया करि सुंनति, औरति सौ का कहिये।
अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिंदू रहिये॥
छाँड़ि कतेब राँम कहि काजी, खून करत हौ भारी।
पकरी टेक कबीर भगति की, काजी रहै झष मारी॥59॥
मुलाँ कहाँ पुकारै दूरि, राँम रहीम रह्या भरपूरि॥टेक॥
यहु तौ अलहु गूँगा नाँही, देखे खलक दुनी दिल माँही॥
हरि गुँन गाइ बंग मैं दीन्हाँ, काम क्रोध दोऊ बिसमल कीन्हाँ।
कहै कबीर यह मुलना झूठा, राम रहीम सबनि मैं दीठा॥60॥
पढ़ि ले काजी बंग निवाजा, एक मसीति दसौं दरवाजा॥टेक॥
मन करि मका कबिला करि देही, बोलनहार जगत गुर येही॥
उहाँ न दोजग भिस्त मुकाँमाँ, इहाँ ही राँम इहाँ रहिमाँनाँ॥
बिसमल ताँमस भरम कै दूरी, पंचूँ भयि ज्यूँ होइ सबूरी॥
कहै कबीर मैं भया दीवाँनाँ, मनवाँ मुसि मुसि सहजि समानाँ॥61॥
टिप्पणी: ख-मन करि मका कबिला कर देही।
राजी समझि राह गति येही॥
मुलाँ कर ल्यौ न्याव खुदाई, इहि बिधि जीव का भरम न जाई॥टेक॥
सरजी आँनैं देह बिनासै, माटी बिसमल कींता।
जोति सरूपी हाथि न आया, कहौ हलाल क्या कीता॥
बेद कतेब कहौ क्यूँ झूठा, झूठा जोनि बिचारै।
सब घटि एक एक करि जाँनैं, भौं दूजा करि मारै॥
कुकड़ी मारै बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।
सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै॥
दिल नहीं पाक पाक नहीं चीन्हाँ, उसदा षोजन जाँनाँ।
कहै कबीर भिसति छिटकाई, दोजग ही मन माँनाँ॥62॥
टिप्पणी: ख-उसका खोज न जाँनाँ।
या करीम बलि हिकमति तेरी। खाक एक सूरति बहु तेरी॥टेक॥
अर्थ गगन में नीर जमाया, बहुत भाँति करि नूरनि पाया॥
अवलि आदम पीर मुलाँनाँ, तेरी सिफति करि भये दिवाँनाँ॥
कहै कबीर यहु हत बिचारा, या रब या रब यार हमाराँ॥63॥
काहे री नलनी तूँ कुम्हिलाँनीं, तेरे ही नालि सरोवर पाँनी॥टेक॥
जल मैं उतपति जल में बास, जल में नलनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहैं कबीर से उदिक समान, ते नहीं मूए हँमरे जाँन॥64॥
इब तूँ हास प्रभु में कुछ नाँहीं, पंडित पढ़ि अभिमाँन नसाँहीं॥टेक॥
मैं मैं मैं जब लग मैं कीन्हा, तब लग मैं करता नहीं चीन्हाँ।
कहै कबीर सुनहु नरनाहा, नाँ हम जीवत न मूँवाले माहाँ॥65॥
अब का डरौं डर डरहि समाँनाँ, जब थैं मोर तोर पहिचाँनाँ॥टेक॥
जब लग मोर तोर करि लीन्हां, भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हा॥
अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवाँ मन माँहि समाना॥
जब लग ऊँच नीच कर जाँनाँ, ते पसुवा भूले भ्रँम नाँनाँ।
कहि कबीर मैं मेरी खोई, बहि राँम अवर नहीं कोई॥66॥
बोलनाँ का कहिये रे माई बोलत बोलत तत नसाई॥टेक॥
बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिन बोल्याँ क्यूँ होइ बिचारा॥
संत मिलै कछु कहिये कहिये, मिलै असंत पुष्टि करि रहिये॥
ग्याँनी सूँ बोल्या हितकारी, मूरिख सूँ बोल्याँ झष मारी॥
कहै कबीर आधा घट डोलै, भर्या होइ तौ मुषाँ न बोलै॥67॥
बागड़ देस लूचन का घर है, तहाँ जिनि जाइ दाझन का डर है॥टेक॥
सब जग देखौं कोई न धीरा, परत धूरि सिरि कहत अबीरा॥
न तहाँ तरवर न तहाँ पाँणी, न तहाँ सतगुर साधू बाँणी॥
न तहाँ कोकिला न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि चढ़ि हंसा मूवा॥
देश मालवा गहर गंभीर डग डग रोटी पग पग नीर॥
कहैं कबीर घरहीं मन मानाँ, गूँगै का गुड़ गूँगै जानाँ॥68॥
अवधू जोगी जग थैं न्यारा; मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा॥टेक॥
बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥
परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।
सहँस इकीस छ सै धागा, निहचल नाकै पीवै॥
ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥69॥
अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै॥टेक॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥70
कोई पीवै रे रस राम नाम का, जो पीवै सो जोगी रे।
संतौ सेवा करौ राम की, और न दूजा भोगी रे॥टेक॥
यहु रस तौ सब फीका भया, ब्रह्म अगनि परजारी रे।
ईश्वर गौरी पीवन लागे, राँम तनीं मतिवारी रे॥
चंद सूर दोइ भाठी कीन्ही सुषमनि चिगवा लागी रे।
अंमृत कूँ पी साँचा पुरया, मेरी त्रिष्णाँ भागी रे॥
यहु रस पीवै गूँगा गहिला, ताकी कोई न बूझै सार रे।
कहै कबीर महा रस महँगा, कोई पीवेगा पीवणहार रे॥71॥
टिप्पणी: ख-चंद सूर दोइ किया पयाना।
उनमनि चढ्या महारस पीवै।
अवधू मेरा मन मतिवारा, उन्मनि चढ़ा मगन रस पीवै त्रिभवन भया उजियारा॥टेक॥
गुड़ करि ग्यान ध्याँन कर महुवा भव भाठी करि भारा॥
सुषमन नारी सहजि समानी, पीयै पीवनहारा॥
दोइ पुड़ जोड़ि चिगाई भाठी, चुया महा रस भारी॥
काम क्रोध दोइ किया पलीता, छुटि गई संसारी॥
सुंनि मंडल मैं मँदला बाजै, तहाँ मेरा मन नाचै।
गुर प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनाँ काछै॥
पूरा मिल्या तबैं सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी॥72॥
टिप्पणी: ख-पूरा मिल्या तबै सुष उपनाँ॥
छाकि परो आतम मतिवारा, पीवत राँम रस करत बिचारा॥टेक॥
बहुत मोलि महँगे गुड़ पावा, लै कसाब रस राँम चुवावा॥
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा, माँगि माँगि रस पीवै बिचारा॥
कहै कबीर फाबी मतिवारी, पीवत राम रस लगी खुमारी॥73॥
बोलौ भाई राम की दुहाई,
इहि रसि सिव सनकादिक माते, पीवत अजहूँ न अघाई॥टेक॥
इला प्यंगुला भाठी कीन्हीं, ब्रह्म अगनि परजारी।
ससि हरसूर द्वार दस मूँदें, लागी जोग जुग तारी॥
मन मतिवाला पीवै राँम रस, दूजा कछू न सुहाई।
उलटी गंग नीर बहि आया, अमृत धार चुवाई॥
पंच जने सो सँग करि लीन्हें, चलत खुमारी लागी।
प्रेम पियालै पीवन लागे, सोवत नागिनी जागी॥
सहज सुंनि मैं जिनि रस चाष्या सतगुर थैं सुधि पाई॥
दास कबीर इही रसि माता, कबहुँ उछकि न जाई॥74॥
राम रस पाईया रे, ताथैं बिसरि गये रस और॥टेक॥
रे मन तेरा को नहीं खैंचि लेइ जिनि भार।
विरषि बसेरा पंषि का, ऐसा माया जाल॥
और मरत को रोइए, जो आपा थिर न रहाइ।
जो उपज्या सो बिन सिहै ताथैं दुख करि मरै बलाइ।
जहाँ उपज्या तहाँ फिरि रच्या रे, पीवत मरदन लाग॥
कहै कबीर चित चेतिया, ताथैं राम सुमरि बैराग॥75॥
राम चरन मनि भाये रे।
अस ढरि जाहु राम के करहा, प्रेम प्रीतिल्यौ लाये रे॥टेक॥
आँब चढ़ी अँबली रे अँबली बबूर चढ़ी नगबेली रे।
द्वै रथ चढ़ि गयौ राँड कौ करहा, मन पाटी की सैली रे॥
कंकर कूई पतालि पनियाँ, सूनै बूँद बिकाई रे।
बजर परौ इति मथुरा नगरी, काँन्ह पियासा जाई रे॥
एक दहिड़िया दही जमायौ, दूसरी परि गई साई रे॥
न्यूँति जिमाऊ अपनौ करहा छार मुनिस कौ डारी रे।
इहि बँनि बाजै मदन भेरि रे, उहि बँनि बाजे तूरा रे।
इहि बँनि खेले राही रुकमनि, उहिं बनि कान्हा अहीरा रे।
आसि पासि तुरसी कौ बिरवा, माँहि द्वारिका गाँऊ रे।
तहाँ मेरो ठाकुर राम राइ है, भगत कबीरा नाऊँ रे॥76॥
थिर न रहै चित थिर न रहै, च्यंतामणि तुम्ह कारणि हौ।
मन मैले मैं फिर फिर आहौं, तुम सुनहु न दुख बिसरावन हो॥टेक॥
प्रेम खटोलवा कसि कसि बाँध्यो, बिरह बान तिहि लागू हो।
तिहि चढ़ि इँदऊ करत गवँसिया, अंतर जमवा जागू हो॥
महरु मछा मारि न जाँनै, गहरै पैठा धाई हो।
दिन इक मगरमछ लै खैहै, तब को रखिहै बंधन भाई हो॥
महरू नाम हरइये जाँनै, सबब न बूझै बौरा हो।
चारै लाइ सकल जग खायो, तऊ न भेट निसहरा हो॥
जो महराज चाहौ महरईये, तो नाथौ ए मन बौरा हो।
तारी लाइकैं सिष्टि बिचारौ, तब गाहि भेटि निसहुरा हो॥
टिकुटि भइ काँन्ह के कारणि, भ्रमि भ्रमि तीरथ कीन्हाँ हो।
सो पद देहु मोरि मदन मनोहर, जिहि पदि हरि मैं चीन्हाँ हो॥
दास कबीर कीन्ह अस गहरा, बूझै कोई महरा हो।
यह संसार जात मैं देखौं, ठाढ़ौ रहौ कि निहुरा हो॥77॥
बीनती एक राम सुनि थोरी, अब न बचाइ राखि पति मोरी॥टेक॥
जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥
जे मसि लागी सबै छुड़ावौ, अब मोहिं जनि बहु रूप कछावौ॥
कहैं कबीर मेरी नाच उठावौ, तुम्हारे चरन कँवल दिखलावो॥78॥
मन थिर रहै न घर है मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा॥टेक॥
घर तजि बन बाहरि कियौ बास, घर बने देखौं दोऊ निरास॥
जहाँ जाँऊँ तहाँ सोग संताप, जुरा मरण कौ अधिक बियाप॥
कहै कबीर चरन तोहि बंदा, घर मैं घर दे परमानंदा॥79॥
कैसे नगरि करौं कुटवारी, चंचल पुरिष बिचषन नारी॥टेक॥
बैल बियाइ गाइ भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यूँ साँझ॥
मकड़ी धरि माषी छछि हारी, मास पसारि चीन्ह रखवारी॥
मूसा खेटव नाव बिलइया, मीडक सोवै साप पहरइया॥
निति उठि स्याल स्यंघ सूँ झूझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै॥80॥
माई रे चूँन बिलूँटा खाई, वाघनि संगि भई सबहिन कै, खसम न भेद लहाई॥टेक॥
सब घर फोरि बिलूँटा खायौ, कोई न जानैं भेव।
खसम निपूतौ आँगणि सूतौ, राँड न देई लेव॥
पाडोसनि पनि भई बिराँनी, माँहि हुई घर घालै।
पंच सखी मिलि मंगल गाँवैं, यह दुख याकौं सालै॥
द्वै द्वै दीपक धरि धरि जोया, मंदिर सादा अँधारा।
घर घेहर सब आप सवारथ, न हरि किया पसारा॥
होत उजाड़ सबै कोई जानै, सब काहू मनि भावै।
कहै कबीर मिलै जौ सतगुर, तौ यहु चून छुड़ावै॥81॥
टिप्पणी: ख-खसम न भेद लषाई।
विषिया अजहू सख आसा, हूँण न देइ हरि के चरन निवासा॥टेक॥
सुख माँगे दुख पहली आवै, तातै सुख माँग्याँ नहीं भावै॥
जा सुख थें सिव बिरंचि डराँनाँ, सो मुख हमहु साच करि जाना।
सुखि छ्या ड्या तब सब दुख भागा, गुर के सबद मेरा मन लागा॥
निस बासुरि विषैतनाँ उपगार, विषई नरकि न जाताँ बार।
कहैं कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल राम नाम त्यौं लागी॥82॥
टिप्पणी: ख-हौन देई न हरि के चरन निवास॥
तुम्ह गारडू मैं विष का माता, कहै न जिवावौ मेरे अमृतदाता॥टेक॥
संसार भवंगम डसिले काया, अरु दुखदारन व्यापै तेरी माया॥
सापनि क पिटारै जागे, अह निसी रोवै ताकूँ फिरि फिरि लागैं।
कहै कबीर को को नहीं राखे, राम रसाँइन जिनि जिनि चाखे॥83॥
माया तजूँ तजी नहीं जाइ, फिर फिर माया मोहे लपटाइ॥टेक॥
माया आदर माया मान, माया नहीं तहाँ ब्रह्म गियाँन॥
माया रस माया कर जाँन, माया करनि ततै परान॥
माया जप तप माया जोग, माया बाँधे सबही लोग॥
माया जल थलि माया आकासि, माया व्यापि रही चहुँ पासि॥
माया माता माया पिता, असि माया अस्तरी सुता॥
माया मारि करै व्यौहार, कहैं कबीर मेरे राम अधार॥84॥
ग्रिह जिनि जाँनी रूड़ौ रे।
कंचन कलस उठाइ लै मंदिर, राम कहै बिन धूरौ रे॥टेक॥
इन ग्रिह मन डहके सबहिन के, काहू कौ पर्यो न पूरौ रे॥
राजा राणाँ राव छत्रापति, जरि भये भसम कौं कूरौ रे॥
सबथैं नीकौ संत मँडलिया, हरि भगतनि कौं भेरौ रे॥
गोविंद के गुन बैठे गैहैं, खैहैं, टूकौ टेरौ रे॥
ऐसौं जानि जाँपौं जगजीवन, जग सूँ तिनका तोरौं रे॥
कहै कबीर राम भजबे कौं, एक आध कोई सूरौ रे॥85॥
रजसि मीन देखी बहु पानी, काल जाल की खबरि न जानी॥टेक॥
गारै गरबनौ औघट घाट, सो जल छाड़ि बिकानौं हाट॥
बँध्यो न जानैं जल उदमादि, कहै कबीर सब मोहे स्वादि॥86॥
काहै रे मन दह दिस धावै, विषिया संगि संतोष न पावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ कलपैं तहाँ बंधना, तरन कौ थाल कियौं तैं रथनाँ॥
जौ पै सुख पइयत इन माँही, तौ राज छाड़ि कत बन कौं जाँहीं॥
आनँद सहत तजौ विष नारी, अब क्या झीषै पतित भिषारी॥
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि, तजि विषिया भजि चरन मुरारि॥87॥
जियरा जाहि गौ मैं जाँनाँ, जो देखा सो बहुरि न पेष्या माटी सूँ लपटाँनाँ॥टेक॥
बाक्ल बसतर किया पहरिबा, का तप बनखंडि बास॥
कहा मूगध रे पाँहन पूजै, काजल डारै गाता॥
कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई॥
सुनौ संतौ सुमिरौ भगत जन, हरि बिन जनम गवाई॥88॥
हरि ठग जग कौ ठगौरी लाई, हरि कै वियोग कैसे जीऊँ मेरी माई॥टेक॥
कौन पूरिष कौ काकी नारी, अभिअंतरि तुम्ह लेहु बिचारी॥
कौन पूत को काको बाप, कौन मरैं कौन करै संताप॥
कहै कबीर ठग सौं मन माना, गई ठगौरी ठग पहिचाना॥89॥
साईं मेरे साजि दई एक डोली, हस्त लोक अरु मैं तैं बोली॥टेक॥
हक झंझर सम सूत खटोला, त्रिस्ना बाद चहुँ दिसि डोला॥
पाँच कहार का भरम न जाना, एकै कह्या एक नहीं माना॥
भूमर थाम उहार न छावा, नैहर जात बहुत दुख पावा॥
कहै कबीर बन बहुत दुख सहिये, राम प्रीति करि संगही रहिये॥90॥
टिप्पणी: कहै कबीर बहुत दुख सहिये॥
बिनसि जाइ कागद की गुड़िया, जब लग पवन तबै उग उड़िया॥टेक॥
गुड़िया कौ सबद अनाहद बोलै, खसम लियै कर डोरी डोलै॥
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी, सीस धनै धुनि रोवै प्राँनी।
कहै कबीर भजि सारँगपानी, नाहीं तर ह्नैहै खैंचा तानी॥91॥
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना॥टेक॥
माटी खोदहिं भीत उसारैं, अंध कहै घर मेरा॥
आवै तलब बाँधि लै चालैं, बहुरि न करिहै फेरा॥
खोट कपट करि यहु धन जोर्या, लै धरती मैं गाड्यौ॥
रोक्यो घटि साँस नहीं निकसै, ठौर ठौर सब छाड्यौ॥
कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै॥
गये पषनियाँ उझरी बाजी, को काहू कै आवै॥92॥
झूठे तन कौ कहा रखइये, मरिये तौ पल भरि रहण न पइये॥टेक॥
षीर षाँढ़ घृत प्यंउ सँवारा, प्राँन गये ले बाहरि जारा॥
चोवा चंदन चरनत अंगा, सो तन जरै काठ के संगा॥
दास कबीर यहु कीन्ह बिचारा, इक दिन ह्नैहै हाल हमारा॥93॥
देखहुक यह तन जरता है, घड़ी पहर बिलँबौ रे भाई जरता है॥टेक॥
काहै कौ एता किया पसारा, यह तन जरि करि ह्नैहै छारा॥
नव तन द्वादस लागा आगि, मुगध न चेतै नख सिख जागी॥
काम क्रोध घट भरे बिकारा, आपहिं आप जरै संसारा॥
कहै कबीर हम मृतक समाँनाँ, राम नाम छूटै अभिमाना॥94॥
तन राखनहारा को नाहीं, तुम्ह सोच विचारि देखौ मन माँही॥टेक॥
जोर कुटुंब आपनौ करि पारौं, मुंड ठोकि ले बाहरि जारौं॥
दगाबाज लूटैं अरु रोवै, जारि गाडि षुर षोजहिं षोवै॥
कहत कबीर सुनहुँ रे लोई, हरि बिन राखनहार न कोई॥95॥
अब क्या सोचै आइ बनी, सिर पर साहिब राम धनी॥टेक॥
दिन दिन पाप बहुत मैं कीन्हा, नहीं गोब्यंद की संक मनीं॥
लेट्यो भोमि बहुत पछितानी, लालचि लागौ करत धनीं॥
छूटी फौज आँनि गढ़ घेरौं, उड़ि गयौ गूडर छाड़ि तनीं॥
पकरौं हंस जम ले चाल्यौ मंदिर रोवै नारि धनीं॥
कहै कबीर राम कित सुमिरत, चीन्हत नाहिन एक चिनी॥
जब जाइ आइ पड़ोसी घेरौं, छाँड़ि चल्यौ तजि पुरिष पनीं॥96॥
सुबटा डरपत रहु मेरे भाई, तोहि डर ई देत बिलाई॥
तीनि बार रूँधै इक दिन मैं, कबहुँ कै खता खवाई॥टेक॥
या मंजारी मुगध न माँनै, सब दुनियाँ डहकाई॥
राणाँ राव रंक कौ व्यापै, करि करि प्रीति सवाई॥
कहत कबीर सुनहुँ रे सुबटा, उबरै हरि सरनाई॥
लाषौ माँहि तै लेत अचानक, काह न देत दिखाई॥97॥
का माँगूँ कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग जाई॥ टेक॥
इक लष पूत सवा लष नाती, ता रावन घरि दिया न बाती॥
लंका सी कोट समंद सी खाई, ता रावन का खबरि न पाई॥
आवत संग जात सँगाती, कहा भयौ दरि बाँधे हाथी॥
कहै कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी॥98॥
राम थोरे दिन को का धन करना, धंधा बहुत निहाइति मरना॥टेक॥
कोटि धज साह हस्ती बँधी राजा, क्रिपन को धन कौनें काजा॥
धन कै गरबि राम नहीं जाना, नागा ह्नै जंम पै गुदराँनाँ॥
कहै कबीर चेतहु रे भाई, हंस गया कछु संगि न जाई॥99॥
काह कूँ माया दुख करि जोरी, हाथि चूँन गज पाँच पछेवरी॥टेक॥
नाँ को बँध न भाई साँथी, बाँधे रहे तुरंगम हाथी॥
मैड़ो महल बावड़ी छाजा, छाड़ि गये सब भूपति राजा॥
कहै कबीर राम ल्यौ लाई, धरी रही माया काहू खाई॥100॥
टिप्पणी: ख-मैडा पहल अरु सोभित छाजा।
माया का रस षाण न पावा, तह लग जम बिलवा ह्नै धावा॥टेक॥
अनेक जतन करि गाड़ि दुराई, काहू साँची काहू खाई॥
तिल तिल करि यहु माया जोरी, चलति बेर तिणाँ ज्यूँ तासी॥
कहै कबीर हूँ ताँका दास, माया माँहैं रहैं उदास॥101॥
मेरी मेरी दुनिया करते, मोह मछर तन धरते,
आगै पीर मुकदम होते, वै भी गये यौं करते॥टेक॥
जिसकी ममा चचा पुनि किसका, किसका पंगड़ा जोई॥
यहु संसार बजार मंड्या है, जानैगा जग कोई॥
मैं परदेसी काहि पुकारौं, इहाँ नहीं को मेरा॥
यहु संसार ढूँढ़ि सब देख्या, एक भरोसा तेरा॥
खाँह हलाल हराँम निवारै, भिस्त भिस्त तिनहू कौं होई॥
पंच तत का भरम न जानै दो जगि पड़िहै सोई॥
कुटुंब कारणि पाप कमावै, तू जाँणै घर मेरा॥
ए सब मिले आप सवारथ, इहाँ नहीं को तेरा॥
सायर उतरौ पंथ सँवारौ, बुरा न किसी का करणाँ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, ज्वाब खसम कूँ भरणा॥102॥
टिप्पणी: ख-मेरी मेरी सब जग करता।
रे यामै क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहि कहत घर मेरा॥टेक॥
चारि पहर निस भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा॥
जैसैं बनियें हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥
ये ले जारे वै ले गाड़े, इनि दुखिइनि दोऊ घर छाड़े॥
कहउ कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह बिनसि रहैगा सोई॥103॥
नर जाँणै अमर मेरो काया, घर घर बात दुपहरी छाया॥टेक॥
मारग छाड़ि कुमारग जीवै, आपण मरैं और कूँ रोवै॥
कछू एक किया एक करणा, मुगध न चेतै निहचै मरणाँ॥
ज्यूँ जल बूँद तैसा संसारा उपजत, बिनसत लागै न बारा॥
पंच पँषुरिया एक सरीरा, कृष्ण केवल दल भवर कबीरा॥104॥
टिप्पणी: ख-मुगध न देखे॥
मन रे अहरषि बाद न कीजै, अपनाँ सुकृत भरि भरि लीजै॥टेक॥
कुँभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगाति बणाई॥
एकनि मैं मुक्ताहल मोती, एकनि ब्याधि लगाई॥
एकनि दीना पाट पटंबर एकनि सेज निवारा॥
एकनि दोनों गरै कुदरी, एकनि सेज पयारा॥
साची रही सूँम की संपति, मुगध कहै यहु मेरी॥
अंत काल जब आइ पहुंचा, छिन में कीन्ह न बेरी॥
कहत कबीर सुनौ रे संतो, मेरी मेरी सब झूठी॥
चड़ा चौथा चूहड़ा ले गया तणी तणगती टूटी॥105॥
हड़ हड़ हड़ हड़ हसती है, दीवाँनपनाँ क्या करती है।
आड़ी तिरछी फिरती है, क्या च्यौं च्यौं म्यौं म्यौं करती है॥
क्या तूँ रंगी क्या तूँ चंगी, क्या सुख लौड़ै कीन्हाँ॥
मीर मुकदम सेर दिवाँनी, जंगल केर षजीना।
भूले भरमि कहा तुम्ह राते, क्या मदुमाते माया॥
राम रंगि सदा मतिवाले, काया होइ निकाया॥
कहत कबीर सुहाग सुंदरी, हरि भजि ह्नै निस्तारा॥
सारा षलक खराब किया है, माँनस कहा बिचारा॥106॥
हरि के नाँइ गहर जिनि करऊँ, राम नाम चित मूखा न धरऊँ॥टेक॥
जैसे सती तजै संसारा, ऐसै जियरा करम निवारा॥
राग दोष दहूँ मैं एक न भाषि, कदाचि ऊपजै चिता न राषि॥
भूले विसरय गहर जौ होई, कहै कबीर क्या करिहौ मोहि॥107॥
मन रे कागज कोर पराया, कहा भयौ ब्यौपार तुम्हारै, कल तर बढ़े सवाया॥टेक॥
बड़े बौहरे साँठी दीन्हौ कलतर काढ़ो खोटै॥
चार लाख अरु असी ठीक दे जनम लिष्यो सब चोटै॥
अबकी बेर न कागद कीरौं, तौ धर्म राई सूँ तूटै॥
पूँजी बितड़ि बांदे ले दैहै, तब कहै कौन के छूटै॥
गुरुदेव ग्याँनी भयौ लगनियाँ, सुमिरन दीन्हौ हीरा॥
बड़ी निसरना नाव राम कौ, चढ़ि गयौ कीर कबीरा॥108॥
धागा ज्यूँ टूटै त्यूँ जोरि, तूटै तूटनि होयगी, नाँ ऊँ मिलै बहोरि॥टेक॥
उरझा सूत पाँन नहीं लागै, कूच फिरे सब लाई।
छिटकै पवन तार जब छूटै, तब मेरौ कहा बसाई॥
सुरझ्यौ सूत गुढ़ी सब भागी, पवन राखि मन धीरा॥
पचूँ भईया भये सनमुखा, तब यहु पान करीला॥
नाँन्हीं मैदा पीसि लई है, छाँणि लई द्वै बारा॥
कहै कबीर तेल जब मेल्या, बुतत न लागी बारा॥109॥
ऐसा औसरि बहुरि न आवै, राम मिलै पूरा जन पावै॥टेक॥
जनम अनेक गया अरु आया, की बेगरि न भाड़ा पाया॥
भेष अनेक एकधूँ कैसा, नाँनाँ रूप धरै नट जैसा॥
दाँन एक माँगों कवलाकंत, कबीर के दुख हरन अनंत॥110॥
हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा॥टेक॥
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै न तेते॥
कर गहि केस करे जौ घाता, तऊ न हेत उतारै माता॥
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी॥111॥
गोब्यदें तुम्ह थैं डरपौं भारी, सरणाई आयौ क्यूँ गहिये, यहु कौन बात तुम्हारी॥टेक॥
धूप दाझतैं छाँह तकाई, मति तरवर सचपाऊँ॥
तरवर माँहै ज्वाला निकसै, तौ क्या लेई बुझाऊँ॥
जे बन जलैं त जल कुँ धावै, मति जल सीतल होई॥
जलही माँहि अगनि जे निकसै, और न दूजा कोई॥
तारण तिरण तूँ तारण, और न दूजा जानौं॥
कहै कबीर सरनाँई आयौ, अपनाँ देव नहीं मानौं॥112॥
मैं गुलाँम मोहि बेच गुसाँई, तन मन धन मेरा रामजी के ताँई॥टेक॥
आँनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक बेचनहारा॥
बेचै राम तो राखै कौन राखै राम तो बेचै कौन॥
कहै कबीर मैं तन मन जाना, साहब अपनाँ छिन न बिसार्या॥113॥
अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥
जियरा मेरा फिरै रे उदास, राम बिन निकसि न जाई साँस, अजहूँ कौन आस॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाँऊँ राम मिलावै न कोई, कहौ संतौ कैसे जीवन होई॥
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै, अनल दहै निस नींद न आवै॥
चंदन घसि घसि अंग लगाऊँ, राम बिना दारुन दुख पाऊँ।
सतसंगति मति मनकरि धीरा, सहज जाँनि रामहि भजै कबीरा॥115॥
राम कहौ न अजहूँ केते दिना, जब ह्नै है प्राँन तुम्ह लीनाँ॥टेक॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया, तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया॥
भ्रम्य भूलि परो भव सागर, कछु न बसाइ बसोधरा॥
कहै कबीर दुखभंजना, करौ दया दुरत निकंदना॥116॥
हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव, हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया।
किया स्यंगार मिलन कै ताँई, काहे न मिलौ राजा राम गुसाँई॥
अब की बेर मिलन जो पाँऊँ, कहै कबीर भौ जलि नहीं आँऊँ॥117॥
राम बान अन्ययाले तीर, जाहि लागे लागे सो जाँने पीर॥टेक॥
तन मन खोजौं चोट न पाँऊँ, ओषद मूली कहाँ घसि लाँऊँ॥
एकही रूप दीसै सब नारी, नाँ जानौं को पियहि पियारी॥
कहै कबीर जा मस्तिक भाग, नाँ जानूँ काहु देइ सुहाग॥118॥
आस नहिं पूरिया रे, राम बिन को कर्म काटणहार॥टेक॥
जद सर जल परिपूरता, पात्रिग चितह उदास।
मेरी विषम कर्म गति ह्नै परा, ताथैं पियास पियास॥
सिध मिलै सुधि नाँ मिलै, मिलै मिलावै सोइ॥
सूर सिध जब भेटिये, तब दुख न ब्यापै कोइ॥
बौछैं जलि जैसें मछिका, उदर न भरई नीर॥
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवा, जन ताला बेली कबीर॥119॥
राम बिन तन की ताप न जाई, जल मैं अगनि उठी अधिकाई॥टेक॥
तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनाँ, जल मैं रहौं जलहि बिन षीनाँ।
तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनाँ तोरा, दरसन देहु भाग बड़ा मोरा॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला॥120॥
गोब्यंदा गुँण गाईये रे, ताथैं भाई पाईये परम निधान॥टेक॥
ऊंकारे जग ऊपजै, बिकारे जग जाइ।
अनहद बेन बजाइ करि रह्यों गगन मठ छाइ॥
झूठै जग डहकाइया रे क्या जीवण की आस।
राम रसाँइण जिनि पीया, तिनकैं बहुरि न लागी रे पियास॥
अरघ षिन जीवन भला, भगवत भगति सहेत।
कोटि कलप जीवन ब्रिथा, नाँहिन हरि सूँ हेत॥
संपति देखि न हरषिये, बिपति देखि न रोइ।
ज्यूँ संपति त्यूँ बिपति है करता करै सु होइ॥
सरग लोक न बाँछिये, डरिये न नरक निवास।
हूँणा थाँ सो ह्नै रह्या, मनहु न कीजै झूठी आस॥
क्या जप क्या तप संजमाँ, क्या तीरथ ब्रत स्नान।
जो पै जुगति जाँनियै, भाव भगति भगवान॥
सँनि मंडल मैं सोचि लै, परम जोति परकास॥
तहूँवा रूप न रेष है, बिन फूलनि फूल्यौ रे आकास॥
कहै कबीर हरि गुण गाइ लै, सत संगति रिदा मँझारि।
जो सेवग सेवा करै, तो सँगि रमैं रे मुरारि॥121॥
टिप्पणी: ख-भगवंत भजन सहेत॥
मन रे हरि भजि हरि भजि हरि भज भाई।
जा दिन तेरो कोई नाँही, ता दिन राम सहाई॥टेक॥
तंत न जानूँ मंत न जानूँ, जानूँ सुंदर काया।
मीर मलिक छत्रापति राजा, ते भी खाये माया॥
बेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामाँ॥
पंडित दिसि पछिवारा कीन्हाँ, मुख कीन्हौं जित नामा।
राज अंबरीक के कारणि, चक्र सुदरसन जारै।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसौ, भगत की सरन उबारै॥122॥
राम भणि राम भणि राम चिंतामणि, भाग बड़े पायौ छाड़ै जिनि॥टेक॥
असंत संगति जिनि जाइ रे भूलाइ, साथ संगति मिलिं हरि गुँण गाइ।
रिदा कवल में राखि लुकाइ, प्रेम गाँठि दे ज्यूँ छूटि न जाइ।
अठ सिधि नव निथि नाँव मँझारि, कहै कबीर भजि चरन मुरारि॥123॥
निरमल निरमल राम गुण गावै, सौ भगता मेरे मनि भावै॥टेक॥
जे जन लेहिं राम नाँउँ, ताकी मैं बलिहारी जाँउँ॥
जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की धूरि॥
जाति जुलाहा मति कौ धीर, हरषि हरषि गुँण रमैं कबीर॥124॥
जा नरि राम भगति नहीं साथी, सो जनमत काहे न मूवौ अपराथी॥टेक॥
गरभ मूचे मुचि भई किन बाँझ, सकर रूप फिरै कलि माँझ।
जिहि कुलि पुत्र न ग्याँन बिचारी, बाकी विधवा काहे न भई महतारी।
कहै कबीर नर सुंदर सरूप, राम भगत बिन कुचल करूप॥125॥
राम बिनाँ धिग्र धिग्र नर नारी, कहा तैं आइ कियौ संसारी॥टेक॥
रज बिना कैसो रजपूत, ग्यान बिना फोकट अवधूत॥
गनिका कौ पूत कासौ कहैं, गुर बिन चेला ग्यान न लहै॥
कबीर कन्याँ करै स्यंगार, सोभ न पावै बिन भरतार॥
कहै कबीर हूँ कहता डरूँ, सुषदेव कहै तो मैं क्या करौं॥126॥
जरि जाव ऐसा जीवनाँ, राजा राम सूँ प्रीति न होई।
जन्म अमोलिक जात है, चेति न देखै कोई॥टेक॥
मधुमाषी धन संग्रहै, यधुवा मधु ले जाई रे।
गयौ गयौ धन मूँढ़ जनाँ, फिरि पीछैं पछिताई रे॥
विषिया सुख कै कारनै, जाइ गानिका सूँ प्रीति लगाई रे।
अंधै आगि न सूझई, पढ़ि पढ़ि लोग बुझाई रे॥
एक जनम कै कारणैं, कत पूजौ देव सहँसौ रे।
काहे न पूजौ राम जी, जाकौ भगत महेसौ रे॥
कहै कबीर चित चंचला, सुनहू मूढ़ मति मोरी।
विषिय फिर फिर आवई, राजा राम न मिले बहोरी॥127॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
राम न जपहु कवन भ्रम लाँगे।
मरि जाहहुगे कहा कहा करहु अभागे॥टेक॥
राम राम जपहु कहा करौ वैसे, भेड कसाई कै घरि जैसे।
राम न जपहु कहा गरबना, जम के घर आगै है जाना॥
राम न जपहु कहा मुसकौ रे, जम के मुदगरि गणि गणि खहुरे।
कहै कबीर चतुर के राइ, चतुर बिना को नरकहि जाइ॥130॥
राम न जपहु कहा भयौ अंधा राम बिना जँम मैले फंधा॥टेक॥
सुत दारा का किया पसारा, अंत की बेर भये बटपारा॥
माया ऊपरि माया माड़ी, साथ न चले षोषरी हाँड़ा॥
जपौ राम ज्यूँ अंति उबारै, ठाढ़ी बाँह कबीर पुकारै॥128॥
डगमग छाड़ि दै मन बौरा।
अब तौ जरें बरें बनि आवै, लीन्हों हाथ सिंधौरा॥टेक॥
होइ निसंक मगन ह्नै नाचौ, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ॥
सूरौ कहा मरन थैं डरपैं, संतों न संचैं भाड़ौ॥
लोक वेद कुल की मरजादा, इहै कलै मैं पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्नै है जग मैं हाँसी॥
यह संसार सकल है मैला, राम कहै ते सूवा।
कहै कबीर नाव नहीं छाँड़ौं, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥129॥
का सिधि साधि करौं कुछ नाहीं, राम रसाँइन मेरी रसनाँ माँहीं॥टेक॥
नहीं कुछ ग्याँन ध्याँन सिधि जोग, ताथैं उपजै नाना रोग।
का बन मैं बसि भये उदास, जे मन नहीं छाड़ै आसा पास॥
सब कृत काच हित सार, कहै कबीर तजि जग ब्यौहार॥130॥
जीवत कछु न कीया प्रवानाँ, मूवा मरम को काँकर जाना॥
जौं तैं रसना राम न कहियो, तौ उपजत बिनसत भरमत रहियौ॥टेक॥
जैसी देखि तरवर की छाया, प्राँन गये कहु काकी माया॥
संधि काल सुख कोई न सोवै, राजा रंक दोऊ मिलि रोवै॥
हंस सरोवर कँवल सरीरा, राम रसाइन पीवै कबीरा॥131॥
का नाँगे का बाँधे चाम, जौ नहीं चीन्हसि आतम राम॥टेक॥
नागे फिरें जोग जे होई, बन का मृग मुकुति गया कोई॥
मूँड़ मूड़ायै जौ सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई॥
ब्यंद राखि जे खेलै है भाई, तौ षुसरै कौंण परँम गति पाई॥
पढ़ें गुनें उपजै अहंकारा, अधधर डूबे वार न पारा॥
कहै कबीर सुनहु रे भाई, राम नाम किन सिधि पाई॥132॥
हरि बिन भरमि बिगूते गदा।
जापै जाऊँ आपनपौं छुड़ावण, ते बीधे बहु फंधा॥टेक॥
जोगी कहै जोग सिधि नीकी, और दूजी भाई॥
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, ऐ जु कहै सिधि पाई॥
जहाँ का उपज्या तहाँ बिलाना, हरि पद बिसर्या जबहिं॥
पंडित गुँनी सूर कवि दाता, ऐ जु कहैं बड़ हँमहीं॥
वार पार की खबरि न जाँनी, फिरौं सकल बन ऐसैं॥
यहु मन बोहि थके कउवा ज्यूँ, रह्यौ ठग्यौ सो वैसैं॥
तजि बावैं दाँहिणै बिकार, हरि पद दिढ़ करि गहिये॥
कहै कबीर गूँगे गुड़ खाया, बूझै तो का कहिये॥133॥
चलौ बिचारी रहौ सँभारी, कहता हूँ ज पुकारी।
राम नाम अंतर गति नाहीं, तौ जनम जुवा ज्यूँ हारी॥टेक॥
मूँड़ मुड़ाइ फूलि का बैठे, काँननि पहरि मजूसा।
बाहरि देह षेह लपटानीं, भीतरि तौ घर मूसा॥
गालिब नगरी गाँव बसाया, हाँम काँम हंकारी।
घालि रसरिया जब जँम खैंचे, तब का पति रहै तुम्हारी॥
छाँड़ि कपूर गाँठि विष बाँध्यौ, मूल हुवा ना लाहा।
मेरे राम की अभौ पद नगरी, कहै कबीर जुलाहा॥134॥
कौन बिचारि करत हौ पूजा, आतम राम अवर नहीं दूजा॥टेक॥
बिन प्रतीतैं पाती तोड़, ग्याँन बिनाँ देवलि सिर फोड़ै॥
लुचरी लपसी आप संधारै, द्वारै ठाढ़ा राम पुकारै॥
पर आत्म जौ तत बिचारै, कहि कबीर ताकै बलिहारै॥135॥
कहा भयौ तिलक गरै जपमाला, मरम न जानैं मिलन गोपाला॥टेक॥
दिन प्रति पसू करै हरिहाई, गरैं काठ बाकी बाँनि न जाई।
स्वाँग सेत करणी मनि काली, कहा भयौ गलि माला घाली॥
बिन ही प्रेम कहा भयौ रोये, भीतरि मैल बाहरि का धोये॥
गल गल स्वाद भगति नहीं धीर, चीकन चंदवा कहै कबीर॥136॥
ते हरि आवेहि काँमाँ, जे नहीं आतम रामाँ॥टेक॥
थोरी भगति बहुत अलंकारा, ऐसे भगता मिलैं अपारा॥
भाव न चीन्हैं हरि गोपाला, जानि क अरहट कै गलि माला॥
कहै कबीर जिनि गया अभिमाना, सो भगता भगवंत समानाँ॥137॥
कहा भयौ रवि स्वाँग बनायौ, अंतरजामी निकट न आयौ॥टेक॥
विषई विषे ढिढावै, गावै, राम नाम मनि कबहूँ न भावै॥
पापी परलै जाहि अभागै, अमृत छाड़ि विषै रसि लागे॥
कहै कबीर हरि भगति न साधी, भग मुषि लागि मूये अपराधी॥138॥
जौ पैं पिय के मनि नाहीं भाये, तौ का परोसनि कै हुलसाये॥टेक॥
का चूरा पाइल झमकायें, कहा भयौ बिछुवा ठमकायें॥
का काजल स्यंदूर कै दीयैं, सोलह स्यंगार कहा भयौ कीयै॥
अंजन मंजन करै ठगौरी, का पचि मरै निगौडी बौरी॥
जौ पै पतिब्रता ह्नै नारी, कैसे ही रही सो पियहिं पियारी॥
तन मन जीवन सौपि सरीरा, ताहि सुहागिन कहै कबीरा॥139॥
दूभर पनियाँ भर्या न जाई, अधिक त्रिषा हरि बिन न बुझाई॥टेक॥
उपरि नीर ले ज तलि हारी, कैसे नीर भरे पनिहारी॥
उधर्यौ कूप घाट भयौ भरी, चली निरास पंच पनिहारी॥
गुर उपदेश भरी ले नीरा, हरषि हरषि जल पीवै कबीरा॥140॥
टिप्पणी: ख-जल बिनु न बुझाई।
कहौ भइया अंबर काँसूँ लागा, कोई जाँणँगा जाँननहारा॥टेक॥
अंबरि दीसे केता तारा कौन चतुर ऐसा चितवनहारा॥
जे तुम्ह देखौ सो यहु नाँही, यहु पद अगम अगोचर माँही॥
तीनि हाथ एक अरधाई, ऐसा अंबर चीन्हौ रे भाई॥
कहै कबीर जे अंबर जाने, ताही सूँ मेरा मन माँनै॥141॥
तन खोजौ नर करौ बड़ाई, जुगति बिना भगति किनि पाई॥टैक॥
एक कहावत मुलाँ काजी, राम बिना सब फोकटबाजी॥
नव ग्रिह बाँभण भणता रासी, तिनहुँ न काटी कौ पासी॥
कहै कबीर यहु तन काचा, सबद निरंजन राम नाम साचा॥142॥
जाइ परो हमरो का करिहै, आप करै आप दुख भरिहै॥टेक॥
ऊभड़ जाताँ बाट बतावै, जौ न चलै तौ बहुत दुख पावै॥
अंधे कूप क दिया बताई, तरकि पड़े पुनि हरि न पत्याई॥
इंद्री स्वादि विषै रसि बहिहै, नरकि पड़े पुनि राम न कहिहै॥
पंच सखी मिलि मतौ उपायौ, जंम की पासी हंस बँधायौ॥
कहै कबीर प्रतीति न आवै, पाषंड कपट इहै जिय भावै॥143॥
ऐसे लोगनि सूँ का कहिये।
जे नर भये भगति थैं न्यारे, तिनथैं सदा डराते रहिये॥टेक॥
आपण देही चरवाँ पाँनी ताहि निंदै जिनि गंगा आनी॥
आपण बूड़ैं और कौ बोड़ै, अगनि लगाइ मंदिर मैं सोवै॥
आपण अंध और कूँ काँनाँ, तिनकौ देखि कबीर डराँनाँ।144॥
है हरि जन सूँ जगत लरत है, फुँनिगा कैसे गरड़ भषत है॥टेक॥
अचिरज एक देखह संसारा, सुनहाँ खेदै कुंजर असवारा॥
ऐसा एक अचंभा देखा जंबक करै केहरि सूँ लेखा॥
कहै कबीर राम भजि भाई, दास अधम गति कबहुँ न जाई॥145॥
हैं हरिजन थैं चूक परी, जे कछु आहि तुम्हारी हरी॥टेक॥
मोर तोर जब लग मैं कीन्हाँ, तब लग त्रास बहुत दुख दीन्हाँ॥
सिध साधिक कहैं हम सिधि पाई, राम नाम बिन सबै गँवाई॥
जे बैरागी आस पियासी, तिनकी माया कदे न नासी॥
कहै कबीर मैं दास तुम्हारा, माय खंडन करहु हमारा॥146॥
सब दुनी सयाँनी मैं बौरा, हँम बिगरे बिगरौ जिनि औरा॥टेक॥
मैं नहीं बौरा राम कियो बौरा, सतगुर जारि गयौ भ्रम मोरा॥
विद्या न पढूँ बाद नहीं जानूँ, हरि गुँन कथत सुनत बौराँनूँ॥
काँम क्रोध दोऊ भये विकारा, आपहि आप जरे संसारा॥
मीठो ककहा जाहि जो भावै, दास कबीर राम गुँन गावै॥147॥
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आँन कहूँ तो राम दुहाई॥टेक॥
इहि चिति चाषि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा॥
औरे रसि ह्नैहै कफ गाता, हरि रस अधिक अधिक सुखदाता॥
दूजा बणिज नहीं कछु बाषर, राम नाम दोऊ तत आषर॥
कहै कबीर जे हरि रस भोगी, ताकूँ मिल्या निरंजन जोगी॥148॥
रे मन जाहिं जहाँ तोहि भावै, अब न कोई तेरे अंकुस लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाई तहाँ तहाँ रामा, हरि पद चीन्हि कियौ विश्रामा।
तन रंजित तब देखियत दोई, प्रगट्यौ ग्याँन जहाँ तहाँ सोई॥
लीन निरंतर बपु बिसराया, कहै कबीर सुख सागर पाया॥149॥
बहुरि हम काहैं कूँ आवहिंगे।
बिछुरे पंचतत्त की रचना, तब हम रामहि पावहिंगे॥टेक॥
पृथी का गुण पाँणी सोष्या, पाँनी तेज मिलावहिंगे॥
तेज पवन मिलि सबद मिलि, सहज समाधि लगावहिंगे॥
जैसे बहु कंचन के भूषन, ये कहि गालि तवावहिंगे॥
ऐसै हम लोक वेद के बिछुरें, सुनिहि माँहि समावहिंगे॥
जैसे जलहि तरंग तरंगनी, ऐसैं हम दिखलावहिंगे॥
कहै कबीर स्वामी सुख सागर, हंसहि हंस मिलावहिंगे॥150॥
कबीरा संत नदी गया बहि रे,
ठाढ़ी माइ कराड़े टेरै, है कोई ल्यावैगहि रे॥टेक॥
बादल बाँनी राम घन उनयाँ, बरिषै अमृत धारा॥
सखी नीर गंग भरि आई, पीवै प्राँन हमारा॥
जहाँ बहि लागे सनक सनंदन, रुद्र ध्याँन धरि बैठे॥
सूर्य प्रकास आनंद बमेक मैं घर कबीर ह्नै पैठे॥151॥
अवधू कामधेन गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करे सबहिन का, कछू न सूझे आँधी रे॥टेक॥
जौ ब्यावै तौ दूध न देई, ग्यामण अंमृत सरवै॥
कौली धाल्याँ बडहि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै॥
तिहि धेन थैं इंछ्या पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँहै आनँद उपनो, खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साई माइ सास पनि साई, साई बाकी नारी।
कहै कबीर परम पद पाया, संतौ लेहु बिचारी॥152॥
टिप्पणी: ख-साई घर की नारी।
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