Tuesday, July 19, 2022

कबीर ग्रंथावली | पद (राग बिलावल) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Pad / Rag Bilawal | Kabirdas



 बार बार हरि का गुण गावै, गुर गमि भेद सहर का पावै॥टेक॥

आदित करै भगति आरंभ, काया मंदिर मनसा थंभ।

अखंड अहनिसि सुरष्या जाइ, अनहद बेन सहज मैं पाइ॥

सोमवार ससि अमृत झरे, चाखत बेगि तपै निसतरै॥

बाँधी रोक्याँ रहै दुवार, मन मतिवाला पीवनहार॥

मंगलवार ल्यौ मांहीत, पंच लोक की छाड़ौ रीत॥

घर छाँड़ै जिनि बाहरि जाइ, नहीं तर खरौ रिसावै राइ।

बुधवार करै बुधि प्रकास, हिरदा कवल मैं हरि का बास॥

गुर गमि दोउ एक समि करै, उरध पंकज थैं सूधा धरै॥

ब्रिसपति बिषिया देइ बहाइ, तीनि देव एकै संगि लाइ।

तोनि नदी तहाँ त्रिकुटी मांहि, कुसमल धोवै अहनिसि न्हांहि॥

सुक्र सुधा ले इहि ब्रत चढ़ै, अह निस आप आपसूँ लड़ै॥

सुरषी पंच राखिये सबै, तो दूजी द्रिष्टि न पैसे कबै।

थावर थिर करि घट मैं सोइ, जोति दीवटी मेल्है जोइ।

बाहरि भीतरि भया प्रकास, तहाँ भया सकल करम का नास॥

जब लग घट मैं दूजो आँण, तब लग महलि न पावै जाँण॥

रमिता राम सूँ लागै रंग, कहै कबीर ते निर्मल अंग॥362॥


राम भेज सो जांनिये, जाके आतुर नांहीं।

सत संत संतोष लीयै रहै, धीरज मन मांहिं॥टेक॥

जन कौ काम क्रोध ब्यापै नहीं, त्रिष्णां न जरावै।

प्रफुलित आनंद मैं, गोब्यंद गुंण गावै॥

जन कौ पर निंदा भावै नहीं, अरु असति न भाषै।

काल कलपनां मेटि करि, चरनूं चित राखे।

जन सम द्रिष्टि सीतल सदा, दुबिधा नहीं आनै।

कहै कबीर ता दास तूँ मेरा मन मांनै॥363॥


माधौ सो मिलै जासौं मिलि रहिये, ता कारनि बक बहु दुख सहिये॥टेक॥

छत्राधार देखत ढहि जाइ, अधिक गरब थें खाक मिलाइ।

अगम अगोचर लखीं न जाइ, जहाँ का सहज फिरि तहाँ समाइ॥

कहै कबीर झूठे अभिमान, से हम सो तुम्ह एक समान॥364॥


अहो मेरे गोब्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा हस्ती तोर॥टेक॥

बाँधि भुजा भलै करि डारौं, हस्ती कोपि मूंड में मारो।

भाग्यौ हस्ती चीसां मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी॥

महावत तोकूँ मारौ साटी, इसहि मरांऊँ घालौं काटी॥

हस्ती न तोरै धरै धियांन, वाकै हिरदैं बसै भगवान॥

कहा अपराध संत हौं कीन्हां, बाँधि पोट कुंजर कूँ दीन्हां॥

कुंजर पोट बहु बंदन करै, अजहूँ न सूझैं काजी अंधरै॥

तीनि बेर पतियारा लीन्हां, मन कठोर अजहूँ न पतीनां॥

कहै कबीर हमारे गोब्यंद, चौथे पद ले जन का ज्यंद॥365॥


कुसल खेम अरु सही सलांमति, ए दोइ काकौं दीन्हां रे।

आवत जात दुहूँधा लूटै, सर्व तत हरि लीन्हां रे॥टेक॥

माया मोह मद मैं पीया, मुगध कहै यहु मेरी रे।

दिवस चारि भलै मन रंजै, यहु नाहीं किस केरी रे।

सुर नर मुनि जन पीर अवलिया, मीरां पैदा कीन्हां रे।

कोटिक भये कहाँ लूँ बरनूं, सबनि पयांनां दीन्हां रे॥

धरती पवन अकास जाइगा, चंद जाइगा सूरा रे।

हम नांही तुम्ह नांही रे भाई, रहे राम भरपूरा रे॥

कुसलहि कुसल करत जग खीना, पड़े काल भी पासी रे।

कहै कबीर सबै जग बिनस्या, रहे राम अबिनासी॥366॥



मन बनजारा जागि न सोई लाहे कारनि मूल न खोई॥टेक॥

लाहा देखि कहा गरबांना, गरब न कीजै मूरखि अयांनां।

जिन धन संच्या सो पछितांनां, साथी चलि गये हम भी जाँनाँ॥

निसि अँधियारी जागहु बंदे, छिटकन लागे सबही संधे।

किसका बँधू किसकी जोई, चल्या अकेला संगि न कोई।

एरि गए मंदिर टूटे बंसा, सूके सरवर उड़ि गये हंसा।

पंच पदारथ भरिहै खेहा, जरि बरि जायगी कंचन देहा॥

कहत कबीर सुनहु रे लोई, राम नाम बिन और न कोई॥367॥


मन पतंग चेते नहीं अंजुरी समांन।

बिषिया लागि बिगूचिये दाझिये निदांन॥टेक॥

काहे नैन अनिदियै सूझत, नहीं आगि।

जनम अमोलिक खोइयै, सांपनि संगि लागि।

कहै कबीर चित चंचला, गुर ग्यांन कह्यौ समझाइ॥

भगति हीन न जरई जरै, भावै तहाँ जाइ॥368॥


स्वादि पतंग जर जरी जाइ, अनहद सो मेरौ चित न रहाइ॥टेक॥

माया कै मदि चेति न देख्या, दुबिध्या मांहि एक नहीं पेख्या।

भेष अनेक किया बहु कीन्हां, अकल पुरिष एक नहीं चीन्हो॥

केते एक मूये मरेहिगे केते, केतेक मुगध अजहूँ नहीं चेते।

तंत मंत सब ओषद माया, केवल राम कबीर दिढाया॥369॥



एक सुहागनि जगत पियारी, सकल जीव जंत की नारी॥टेक॥

खसम करै वा नारि न रोवै, उस रखवाला औरे होवै।

रखवाले का होइ बिनास, उतहि नरक इत भोग बिलास॥

सुहागनि गलि सोहे हार, संतनि बिख बिलसै संसार।

पीछे लागी फिरै पचि हारी, संत की ठठकी फिरै बिचारी॥

संत भजै बा पाछी पडै, गुर के सबदूं मारौं डरै।

साषत कै यहु प्यंड पराइनि, हमारी द्रिष्टि परै जैसे डाँइनि॥

अब हम इसका पाया भेद, होइ कृपाल मिले गुरदेव॥

कहै कबीर इब बाहरि परी, संसारी कै अचलि टिरी॥370॥


परोसनि माँगै संत हमारा,

पीव क्यूँ बौरी मिलहि उधारा॥टेक॥

मासा माँगै रती न देऊँ, घटे मेरा प्रेम तो कासनि लेऊँ।

राखि परोसनि लरिका मोरा, जे कछु पाउं सू आधा तोरा।

बन बन ढूँढ़ौ नैन भरि जोऊँ, पीव न मिलै तौ बिलखि करि रोऊँ।

कहै कबीर यहु सहज हमारा, बिरली सुहागनि कंत पियारा॥371॥


राम चरन जाकै हिरदै बसत है, ता जन कौ मन क्यूँ डोलै।

मानौ आठ सिध्य नव निधि ताकै हरषि हरषि जस बोलै॥टेक॥

जहाँ जहाँ जाई तहाँ सच पावै, माया ताहि न झोलै।

बार बार बरजि बिषिया तै, लै नर जौ मन तोलै॥

ऐसी जे उपजै या जीय कै, कुटिल गाँठि सब खोलै॥

कहै कबीर जब मनपरचौ भयौ, रहे राम के बोलै॥372॥


जंगल मैं का सोवनां, औघट है घाटा,

स्यंध बाघ गज प्रजलै, अरु लंबी बाटा॥टेक॥

निस बासुरी पेड़ा पड़ै, जमदानी लूटै।

सूर धीर साचै मते, सोई जन छूटै॥

चालि चालि मन माहरा, पुर परण गहिये।

मिलिये त्रिभुवन नाथ सूँ, निरभै होइ रहिये॥

अमर नहीं संसार मैं, बिनसै नरदेही।

कहै कबीर बेसास सूँ, भजि राम सनेही॥373॥


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