Monday, July 18, 2022

कबीर ग्रंथावली | करणीं बिना कथणीं कौ अंग (साखी) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Karni Bina Kathni ko Ang / Sakhi | Kabirdas



 कथणीं कथी तो क्या भया, जे करणी नाँ ठहराइ।

कालबूत के कोट ज्यूँ, देषतहीं ढहि जाइ॥1॥


जैसी मुख तैं नीकसै, तैसी चालै चाल।

पारब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल॥2॥


जैसी मुष तें नीकसै, तैसी चालै नाहिं।

मानिष नहीं ते स्वान गति, बाँध्या जमपुर जाँहिं॥3॥


पद गोएँ मन हरषियाँ, सापी कह्याँ अनंद।

सों तन नाँव न जाँणियाँ, गल मैं पड़िया फंध॥4॥


करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तूंड।

जाँणै बूझे कुछ नहीं, यौं ही आँधां रूंड॥5॥373॥



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