Monday, July 18, 2022

बिहारी सतसई (तीसरा शतक) | बिहारी | Bihari Satsai / Teesra Shatak | Bihari



 चकी जकी-सी ह्वै रही बूझैं बोलति नीठि।

कहूँ डीठि लागी लगी कै काहू की डीठि॥201॥


चकी = चकित, आश्चर्यित। जकी = स्तंभित, किंकर्त्तव्यविमूढ। नीठि = कठिनता से, मुश्किल से। कहूँ = कहीं, किसी जगह। कै = या। काहू = किसी की।


आश्चर्यित और स्तंभित-सी हो रही है। पूछने पर भी मुश्किल से बोलती है। (मालूम होता है) इसकी नजर कहीं जा लगी है या किसी और ही की नजर इसे लग गई है-या तो यह स्वयं किसी के प्रेम के फंदे में फँसी है, या किसीने इसे फँसा लिया है।


पिय कैं ध्यान गही गही रही वही ह्वै नारि।

आपु आपुही आरसी लखि रीझति रिझवारि॥202॥


गही-गही = पकड़े। आरसी = आईना। आपु आपु ही = अपने-आप। रिझवारि = मुग्धकारिणी।


प्रीतम के ध्यान में तत्कालीन रहते-रहते नायिका वही हो रही-उसे स्वयं प्रीतम होने का भान हो गया। (अतएव) वह रिझानेवाली आप ही आरसी देखती और अपने-आपपर ही रीझती है-अपने-आपको प्रीतम और अपने प्रतिबिम्ब को अपनी मूर्त्ति समझकर देखती और मुग्ध होती है।


ह्याँ ते ह्वाँ ह्वाँ ते इहाँ नेकौ धरति न धीर।

निसि-दिन डाढ़ी-सी फिरति बाढ़ी-गाढ़ी पीर॥203॥


ह्याँ = यहाँ। ते = से । ह्वाँ = वहाँ । नेकौ = जरा भी। डाढ़ी = एक गानेवाली जाति, जो सदा गाँवों में नाच-नाचकर बधाई गाया करती है; पँवरिया। डाढ़ी = दग्ध, जला हुआ। कहीं ढाढ़ी भी पाठ है।


यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ (आती-जाती रहती है) जरा भी धैर्य नहीं धरती। कठिन पीड़ा बढ़ गई है (जिस कारण) रात-दिन पँवरियों के समान (या जली हुई-सी इतस्ततः) घूमती रहती है।


समरस समर सकोच बस बिबस न ठिकु ठहराइ।

फिरि फिरि उझकति फिरि दुरति दुरि दुरि उझकति जाइ॥204॥


समरस = समान रस, समान भाव। समर = स्मर = कामदेव। ठिकु ठहराइ = ठीक ठहरना, स्थिर रहना। उझकति = उचक-उचककर देखती है। दुरति = छिपती है।


समान भाव से कामदेव और लज्जा के वश में (पड़ी है) विवश होकर कहीं भी स्थिर नहीं रह सकती। बार-बार उझक-उझककर देखती है, फिर छिप जाती है और छिप-छिपकर उझकती जाती है-अपने आभूषणों को बजाती जाती है।


उरु उरझयौ चित-चोर सौं गुरु गुरुजन की लाज।

चढ़ैं हिंडोरै सैं हियैं कियैं बनै गृहकाज॥205॥


उर = हृदय। गुरु = भारी। गुरुजन = बड़े-बूढ़े।


हृदय (तो) चितचोर से उलझा हुआ है और गुरुजनों की लज्जा भी भारी है; (अतएव) हिंडोले पर चढ़े हृदय से-दुतरफा खिंचे हुए मन से-घर का काम करते ही बनता है।


सखी सिखावति मान-बिधि सैननि बरजति बाल।

हरुए कहि मो हीय मैं सदा बिहारीलाल॥206॥


मान-बिधि = मान करने की रीति। हरुए = धीरे-धीरे।


सखी मान करने की रीति सिखलाती है, (तो) बाला (नायिका) इशारे से उसे मना करती है कि (ये मान की बातें) धीरे-धीरे कह; (क्योंकि) मेरे मन में सदा बिहारीलाल वास करते हैं, (ऐसा न हो कि वे कहीं सुन लें और रूठ जायँ!)



उर लीनै अति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाइ।

हौं हुलसी निकसी सु तौ गयौ हूल-सी लाइ॥207॥


चटपटी = व्याकुता। धाइ = दौड़कर। हौं = मैं। हुलसी = उल्लास से भरकर। सु तौ = सो तो, वह तो। गयौ = गया। हूल-सी लाइ = बरछी-सी चुभोकर।


हृदय में अत्यंत व्याकुलता फैल गई। मुरली की ध्वनि सुनते ही दौड़कर (ज्यों ही) मैं उमंग से भरी बाहर निकली कि वह (मेरे हृदय में) बरछी चुभोकर चल दिया।


जौ तब होत दिखादिखी भई अभी इक आँकु।

लगै तिरीछी डीठि अब ह्वै बीछी कौ डाँकु॥208॥


तब = उस समय। अमी = अमृत। इक आँकु = निश्चय। डीठि = नजर। ह्वै = होकर। डाँकु = डंक।


उसस समय देखा देखी होने पर जो निश्चय अमृत मालूम हुई थी (वही तुम्हाारी) तिरछी नजर अब बिच्छू का डंक होकर लगती है- बिच्छू के डंक के समान व्याकुल करती है।


लाल तुम्हारे रूप की कहौ रीति यह कौन।

जासों लागैं पलकु दृग लागत पलक पलौ न॥209॥


लाल = प्यारे, नायक, नन्दलाल श्रीकृष्ण। जासौं = जिससे। पलकु = पल+एकु = एक पल। पलौ = पल भर के लिए भी।


हे लाल! तुम्हारे रूप की, बताओ, यह कौन-सी रीति है कि जिससे एक पल के लिए भी आँखें लग जाने पर-एक क्षण के लिए भी जिसे देख लेने पर-फिर पल-भर के लिए भी पलक नहीं लगती-नींद नहीं पड़ती।


अपनी गरजनु बोलियतु कहा निहोरो तोहिं।

तूँ प्यारो मो जीय कौं मो ज्यौ प्यारो मोहिं॥210॥


गरजनु = गरज से। निहोरो = उपकार, एहसान। मो = मेरे। जीय = प्राण। ज्यौं = जीव, प्राण। मोहिं = मुझे।


(मैं तुमसे) अपनी गरज से ही बोलती हूँ, इसमें तुम्हारे ऊपर मेरा कोई उपकार नहीं है, (क्योंकि) तुम मेरे प्राणों के प्यारे हो, और मेरे प्राण मुझे प्यारे हैं। (अतएव, अपने प्राणों की रक्षा के लिए ही मुझे बोलना पड़ता है।)


सुख सौं बीती सब निसा मनु सोये मिलि साथ।

मूका मेलि गहे सु छिनु हाथ न छोड़ै हाथ॥211॥


सों = से। मनु = मानो। मिलि साथ = गाढ़ालिंगन में बद्ध। मूका मेलि = मुट्ठी बाँधकर। गहे = पकड़े।


सारी रात (स्वप्न में) सुख से बीती। मानो (नायक) साथ ही मिलकर सोया हो। (स्वप्न में ही) मुट्ठी बाँधकर जो एक क्षण के लिए पकड़ा, सो (अब नींद टूटने पर भी) हाथ को हाथ नहीं छोड़ता- (नायिका) अपने ही हाथ को प्रीतम का हाथ समझकर नहीं छोड़ती।


नोट - स्वप्न में नायिका अपने ही हाथों को पकड़े हुए प्रियतम के आलिंगन का मजा लूट रही थी। इतने में उसकी नींद टूट गई। अब जागने पर मुट्ठी नहीं खुलती। दोनों हाथ परस्पर जकड़े हुए हैं। जाग्रत अवस्था में भी स्वप्न का भान हो रहा है।


देखौं जागत वैसियै साँकर लगी कपाट।

कित ह्वै आवतु जातु भजि को जानै किहिं बाट॥212॥


जागत = जगकर। साँकर = जंजीर। कपाट = किवाड़। कित ह्वै = किस ओर होकर, किधर से। भजि = भागना। बाट रास्ता।


जगकर देखती हूँ तो किवाड़ में पहले की तरह ही जंजीर लगी रहती है (जैसे रात को बंद करके सोई थी), किधर से आते हैं (और) किस रास्ते भाग जाते हैं, (यह) कौन जाने?


नोट - यह स्वप्न दशा का वर्णन है। उस्ताद जौक ने लिखा है-


खुलता नहीं दिल बन्द ही रहता है हमेशा।

क्या जाने कि आ जाता है तू इसमें किधर से॥


गुड़ी उड़ी लखि लाल की अँगना अँगना माँह।

बौरी लौं दौरी फिरति छुअति छबीली छाँह॥213॥


गुड़ी = गुड्डी, पतंग। अँगना = स्त्री। अँगना = आँगन। माँह = में। बौरी = पगली। लौं = समान। छबीली = सुन्दरी।


प्रीतम की गुड्डी उड़ती हुई देखकर (वह) सुन्दरी स्त्री अपने आँगन में पगली-सी दौड़ती फिरती है और (आँगन में पड़नेवाली उस गुड्डी की) छाया को छूती फिरती है।


नोट - गुड्डी की छाया के स्पर्श में ही प्रीतम के अंगस्पर्श का आनन्दानुभव करती है; क्योंकि गुड्डी का सम्बन्ध प्रीतम के कर-कमलों से है। इस दोहे पर कृष्ण कवि ने यों टीका जड़ी है-


नन्दलला नवनागरि पै निज रूप दिखाइ ठगोरी की नाई।

बाहर जात बनै गृह ते न बिलोकिबे को अति ही अकुलाई॥

प्यारे के चंग इते में उड़ी लखि मोद भरी निज आँगन आई।

होत गुड़ी की जितै जित छाँह तितै तित छूवै को डोलति धाई॥


उनकौ हितु उनहीं बनै कोऊ करौ अनेकु।

फिरत काक-गोलकु भयौ दुहूँ देह ज्यौ एकु॥214॥


हित = प्रीति। काक-गोलकु = कौए के नेत्रों के गढ़े। ज्यौ = जीव, प्राण। दुहूँ = दोनों।


उनकी प्रीति उन्हीं से सधती है - (इसलिए दोनों अभिन्न रहेंगे ही)- कोई हजार (निंदा) क्यों न करे। दोनों की देह में एक ही प्राण कौए के (दोनों) गोलक (के एक ही नेत्र) की तरह संचरण करता है।


नोट- किंवदन्ती है कि कौए के दोनों गोलकों में एक ही नेत्र होता है, जो दोनों ओर आता-जाता रहता है। इसीलिए देखने के समय कौआ सिर को इधर-उधर घुमाता है।


करत जातु जेती कटनि बढ़ि रस-सरिता-सोतु।

अलबाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ होतु॥215॥


जेती = जितनी। कटनि = कटाव। सरिता = नदी। स्रोत = धारा। आलबाल = थाला, वृक्ष की जड़ के पास चारों ओर से बनी हुई मेंड़। उर = हृदय। तरु = वृक्ष। तितौ तितौ = उतना ही, अधिकाधिक।


रस-रूपी नदी का स्रोत बढ़कर जितना ही कटाव करता जाता है, हृदय-रूपी थाने का प्रेम-रूपी वृक्ष (कटाव के कारण गिरने के बदले) उतना ही मजबूत होता जाता है।


खल-बढ़ई बल करि थके कटै न कुबत-कुठार।

आलबाल उर झालरी खरी प्रेम-तरु-डार॥216॥


खल = दुष्ट, निन्दक। कुबत = निंदा। कुठार = कुल्हाड़ी। झालरी = हरी-भरी, सुपल्लवित। खरी = विशेष।


दुष्ट-रूपी बढ़ई जोर लगाकर थक गये, (किन्तु) निन्दा-रूपी कुठार से न काट सके। (वह) प्रेम-रूपी वृक्ष की डाल हृदय-रूपी थाने में और भी हरी-भरी (हो रही) है।


छुटत न पैयतु छिनकु बसि प्रेम-नगर यह चाल।

मारथौ फिरि फिरि मारियै खूनी फिरै खुस्याल॥217॥


छुटन न पैयतु = छुटकारा नहीं पा सकते। छिनकु = क्षण + एकु = एक क्षण। खुस्याल = खुशहाल, आनन्दयुक्त। खूनी = हत्यारा।


एक क्षण के लिए भी बसकर फिर छुटकारा नहीं पा सकते। प्रेम नगर की यही चाल है। (यहाँ) मरे हुए को बार-बार मारा जाता है और हत्या करने वाला स्वच्छन्द घूमता है।


निरदय नेहु नयौ निरखि भयौ जगतु भयभीतु।

यह न कहूँ अब लौं सुनी मरि मारियै जु मीतु॥218॥


निरदय = निर्दय, दयाहीन, निष्ठुर। निरखि = देखकर। लौं = तक। जु = जो। मीत = प्रेमी।


(तुम्हारे इस) नये प्रकार के निष्ठुर प्रेम को देखकर संसार भयभीत हो गया है। यह बात तो अब तक कहीं न सुनी थी कि जो प्रेमी हो वह (स्वयं भी) मरे (और अपनी प्रेमिका को भी) मारे-आप भी विरह की आग में जले और अपनी प्रेमिका को भी जलावे।


क्यौं बसियै क्यौं निबहियै नीति नेह-पुर नाँहि।

लगा-लगी लोइन करैं नाहक मन बँधि जाँहि॥219॥


नीति = न्याय। नेह-पुर = प्रेम-नगर। लगालगी = लाग-डाँट, मुठभेड़। लोइन = आँखें। नाहक = बेकसूर, निरपराध।


कैसे बसा जाय और (बसने पर) कैसे निर्वाह हो! (इस) प्रेम-नगर में न्याय तो है ही नहीं। (देखो) परस्पर लड़ती-झगड़ती तो हैं आँखें, और बेकसूर मन कैद किया जाता है!


देह लग्यौ ढिग गेहपति तऊ नेहु निरबाहि।

नीची अँखियनु हीं इतै गई कनखियनु चाहि॥220॥


देह लग्यौ = देह से सटा हुआ। ढिग = निकट। गेहपति = गृहपति = स्वामी। तऊ = तो भी। नेहु = प्रेम। नीची अँखियन = नीची आँखों से = नीची निगाह से। चाहि = देखना।


देह से सटा हुआ निकट ही उसका पति था, तो भी (वह) प्रेम निबाहकर नीची निगाह से ही इधर कनखियों से देख गई।


हौं हिय रहित हई छई नई जुगुति जग जोइ।

आँखिन आँखि लगै खरी देह दूबरी होइ॥221॥


हौं = मैं। हई = आश्चर्य। छई = छाई हुई। जुगुति = युक्ति। जोइ = देखकर। आँखिन = आँखों से। खरी = अत्यन्त।


संसार में यह नई युक्ति देखकर मैं तो हृदय में आश्चर्य से छाई रहती हूँ- मेरा हृदय आश्चर्य में डूबा रहता है। आँखों से लगती हैं आँखें और अत्यन्त दुबली होती है देह।


प्रेमु अडोलु डुलै नहीं मुँह बोलैं अनखाइ।

चित उनकी मूरति बसी चितवनि माँहिं लखाइ॥222॥


अडोलु = दृढ़, अटल। अनखाई = अनखाकर, झुँझलाकर। चितवनि = आँख, नजर। लखाइ = देख पड़ती है।


प्रेम स्थिर है, वह हिलने-डुलने का नहीं-समझाने-बुझाने से छूटने का नहीं। (प्रेम छोड़ती नहीं, उलटे) मुँह से अनखाकर बोलती है। (उसके) चित्त में उनकी-नायक की-मूर्त्ति बसी है (जो) उसकी आँखों में (स्पष्ट) दीख पड़ती है - उसकी प्रेमरंजित आँखों के देखते ही प्रकट हो जाता है कि वह किसी के प्रेम में फँसी है।


चितु तरसतु न मिलतु बनत बसि परोस कैं बास।

छाती फाटी जाति सुनि टाटी ओट उसास॥223॥


उसास = उच्छ्वास, जोर-जोर से साँस लेना।


(मिलने के लिए) चित्त तरसता है, (किन्तु) पड़ोस के घर में रहकर-अत्यन्त निकट रहकर-भी मिलते नहीं बनता। टाटी की ओट से ही उसका (विरहजनित) उच्छ्वास सुनकर छाती फटी जाती है।


जाल-रंघ्र-मग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ।

पीठि दिऐ जग त्यौं रह्यौ डीठि झरोखे लाइ॥224॥


जाल-रंध्र = जाली के छेद। मग = राह। उजास = उजाला। पाइ = पाकर। जग त्यों = संसार की ओर। पीठि दिये रहै = (संसार से) विमुख या उदासीन रहता है।


(झरोखे से लगी) जाली के छेदों के रास्ते से आग का कुछ उजाला-सा पाकर-जाली के छेदों से बाहर फूट निकलनेवाली तुम्हारी देह द्युति को देखकर-(उस नायक ने) संसार की ओर पीठ दे दी है-संसार को भुला दिया है (और) सदा अपनी नजर (तुम्हारे) झरोखे से लगाये रहता है।


जद्यपि सुन्दर सुघर पुनि सगुनौ दीपक-देह।

तऊ प्रकास करै तितै भरियै जितैं सनेह॥225॥


सुघर = सुघड़ = अच्छी गढ़न का। सगुनौ = गुणयुक्त और (गुण = डोरा) बत्ती सहित। तऊ = तो भी। तितैं = उतना। जितैं = जितना। सनेह = प्रेम, तेल।


यद्यपि दीपक-रूपी शरीर सुन्दर है, सुघड़ है, और फिर गुणयुक्त है (दीपक-अर्थ में-बत्ती सहित है), तो भी वह उतना ही प्रकाश करेगा, जितना उसमें प्रेम भरोगे (दीपक-अर्थ में-तेल भरोगे।)


दुचितैं चित न हलति चलति हँसति न झुकति बिचारि।

लिखत चित्र पिउ लखि चितै रही चित्र-लौं नारि॥226॥


दुचितैं चित = दुविधा में पड़ा चित्त। हलति = हिलना-डोलना। बिचारि = विचार कर। चितै = देख रही है।


प्रीतम को किसी स्त्री का चित्र बनाते हुए देखकर वह स्त्री तसवीर-सी (अचल-अटल) होकर (प्रीतम के पीछे चुपचाप खड़ी) देख रही है। सोचती है, यह मेरा चित्र बन रहा है, या किसी अन्य स्त्री का। इस दुविधा में पढ़ने से वह न आगे बढ़ती है, न हिलती-डोलती है, न हँसती है और न झुकती ही है।


नैन लगे तिहं लगनि जनि छुटैं छुटै हूँ प्रान।

काम न आवत एक हूँ तेरे सौक सयान॥227॥


सौक = सौ+एक = अनेक। सयान = चतुराई।


आँखें ऐसे (बुरे) लग्न में उनसे लगी हैं कि प्राण छूटने पर भी नहीं छूट सकतीं- (हे सखि!) तुम्हारी सैकड़ों चतुराई में एक भी काम नहीं आती- एक भी सफल नहीं होती।


साजे मोहन-मोह कौं मोहीं करत कुचैन।

कहा करौं उलटे परे टोने लोने नैन॥228॥


मोहन = श्रीकृष्ण। मोहीं मुझे ही। कुचैन = व्याकुल। टोने = जादू। लोने = लावण्यमय, सुन्दर।


(मैंने इन्हें काजल आदि से) सजाया तो मोहन को मोहने के लिए, और मुझे ही व्याकुल बनाती हैं। क्या करूँ, इन लावण्यमयी आँखों के टोने उलटे पड़ गये।


नोट - कहा जाता है कि जादू उलट जाने पर जादू चलानेवाले पर ही विपत्ति आती है। इस दोहे में यही बात खूबी से कही गई है। इस दोहे से बिहारी की तंत्रशास्त्र की जानकारी प्रकट होती है।


अलि इन लोइन-सरनि कौ खरौ बिषम संचारु।

लगै लगाऐं एक-से दुहुअनि करत सुमार॥229॥


अलि = सखी। लोइन = आँख। सरनि = वाणों। खरो = अत्यन्त। बिषम = अद्भुत। संचार = गति। अनी = बाण की नोंक। सुमार = अच्छी मार, गहरी चोट।


सखी! इन नेत्र-रूपी बाणों की गति अत्यन्त अद्भुत है। (इनकी) दोनों ओर की नोकें चोट करती हैं-(आगे की निशान मारनेवाली नोक और धनुष की डोरी से सटाकर चलानेवाली पीछे की नोक-दोनों शिकार करती हैं।) (अतएव) इनका लगना और लगाना-नेत्र-रूपी बाण चलाकर किसीको घायल करना और किसीके नेत्र-रूपी बाण से घायल होना-(दोनों) एक से (दुःखदायी ) हैं।


चख-रुचि चूरन डारि कै डग लगाइ निज साथु।

रह्यौं राखि हठि लै गयौ हथाहथी मन हाथु॥230॥


चख-रुचि = आँखों की सुन्दरता। चूरन = बुकनी, भभूत। हथाहथी = हाथों-हाथ, अति शीघ्र।


आँखों की सुन्दरता-रूपी भभूत डालकर उस ठग (नायक) ने उसे अपने साथ लगा लिया, यद्यपि (मैं) हठ करती ही रह गई- रोकती ही रह गई-(किन्तु) वह हाथों-हाथ मेरे मन को हाथ (वश) में करके चलता बना।


नोट - ठग लोग मन्त्र-पढ़ी भभूत रखते हैं, जिसपर वह भभूत डालते हैं, वह उनके पीछे लग जाता है। इस दोहे में इसीका रूपक बाँधा गया है।


जौ लौं लखौं न कुल-कथा तौ लौं ठिक ठहराइ।

देखैं आवत देखिही क्यौं हूँ रह्यौ न जाइ॥231॥


लौं = तक। लखौं = देखूँ। कुल-कथा = कुल की कथा, सतीत्व आदि की बातें। देखिही = देखने से ही। क्यौं हूँ = किसी प्रकार।


जब तक (उन्हें) नहीं देखती हूँ, तभी तक कुल की कथा ठीक ठहरती है-अच्छी जँचती है, (किन्तु जब) वे देखने में आते हैं- वे दिखलाई पड़ते हैं (तब) देखे बिना किसी प्रकार नहीं रहा जाता-बरबस उन्हें देखना ही पड़ता है।


बन-तन कौं निकसत लसत हँसत हँसत इत आइ।

दृग-खंजन गहि लै चल्यौ चितवनि-चैंपु लगाइ॥232॥


बन-तन = बन की ओर। इत = इधर। दृग = आँख। चितवनि = नजर, दृष्टि। चैंपु = लासा, गोंद।


वन की ओर निकलते समय सुशोभित हो (बन-ठन) कर हँसते हँसते इधर आये और दृष्टि-रूपी लासा लगा (मेरी) आँख-रूपी खंजन को पकड़कर लीे चले!


चितु-बितु बचतु न हरत हठि लालन-दृग बरजोर।

सावधान के बटपरा ए जागत के चोर॥233॥


चितु = मन। बितु = धन। लालन = कृष्ण। दृग = आँखें। बरजोर = जबरदस्त। बटपरा = बटमार, राहजन, ठग।


मन-रूपी धन नहीं बचता। हठ करके (वे) छीन लते हैं। कृष्ण के नेत्र बड़े जबरदस्त हैं। ये चौकन्ने आदमी के लिए तो (भूल-भुलैया में डालकर लूटनेवाले) ठग हैं, और लगे हुए के लिए (लुक-छिपकर चुरानेवाले) चोर हैं।


नोट- जो चौकन्ने हैं वे नहीं ठगे ज सकते, और जो जगे हैं उनके घर में चोरी नहीं हो सकती। किन्तु नेत्र ऐसे जबरदस्त हैं कि चौकन्ने को ठगते और जगे हुए (के माल) को चुराते हैं। कितनी अच्छी कल्पना है!


सुरति न ताल रु तान की उठ्यौ न सुरु ठहराइ।

एरी रागु बिगारि गौ बैरी बोलु सुनाइ॥234॥


सुरति = सुधि। बिगारि गौ = बिगाड़ गया।


ताल और तान की सुधि नहीं रही। उठाया हुआ सुर भी नहीं ठहरता। अरी (सखी)! वह बैरी (नायक) बोली सुनाकर (सारा) राग बिगाड़ गया।


नोट - नायिका गा रही थी। उसी समय उस ओर से नायक गुजरा और कुछ बोलकर चला गया। उसी पर नायिका का यह कथन है।


ये काँटे मो पाँइ गड़ि लीन्ही मरत जिवाइ।

प्रीति जतावतु भीत सौं मीतु जु काढ्यो आइ॥235॥


मो = मेरे । जतावतु = प्रकट करते हुए।


अरे काँटे! (तूने) मेरे पैर में गड़कर (मुझे) मरने से जिला लिया, (क्योंकि) प्रीति प्रकट करते हुए डरते-डरते प्रीतम ने उसे (तुझे) आकर निकाला।



जात सयान अयान ह्वै वे ठग काहि ठगैं न।

को ललचाइ न लाल के लखि ललचौहैं नैन॥236॥


ह्वै जात = हो जाता है, बन जाता है। सयान = चतुर। अयान = अजान, अज्ञान, मूर्ख। काहि = किसे। ललचौंहैं = ललचानेवाले।


चतुर भी मूर्ख बन जाते हैं। वे ठग किसे नहीं ठगते। श्रीकृष्ण के (उन) लुभावने नेत्रों को देखकर कौन नहीं ललचता?


जसु अपजसु देखत नहीं देखत साँवल गात।

कहा करौं लालच-भरे चपल नैन चलि जात॥237॥


साँवल = श्यामल। कहा = क्या। चपल = चंचल।


यश-अपयश (कुछ) नहीं देखते-किस काम के करने से यश होगा और किस काम के करने से अपयश, यह नहीं बिचारते; देखते हैं (केवल श्रीकृष्ण का) साँवला शरीर। क्या करूँ, लालच से भरे (मेरे) चंचल नयन (बरबस उनके पास) चले जाते हैं।


नख-सिख-रूप भरे खरे तौ माँगत मुसकानि।

तजत न लोचन लालची ए ललचौंहीं बानि॥238॥


नख-सिख = नख से शिखा तक, ऐड़ी से चोटी तक, समूचा शरीर। खरे = अत्यन्त, पूर्ण रूप से। ललचौंहीं बानि = ललचाने की आदत।


(श्रीकृष्ण के) नख-शिख सौंदर्य से मेरे नेत्र पूर्ण रूप से भरे हैं, तो भी मुसकुराहट माँगते हैं-श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण शरीर की अपार शोभा देखकर भी तृप्त नहीं होते, उनकी मुसकुराहट देखना चाहते हैं। (मेरे) लालची नेत्र (अपनी) यह ललचाने की आदत छोड़ते ही नहीं।


छ्वै छिगुनी पहुँचो गिलत, अति दीनता दिखाइ।

बलि बावन की ब्यौंतु सुनि को बलि तुम्हैं पत्याइ॥239॥


छ्वै = छूकर। छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली। गिलत = पकड़ लेना। बलि = पाताल के दैत्यराज। ब्यौंतु = छलमय ढंग। बलि = बलैया। पत्याइ = प्रतीति करे, विश्वास करे।


अत्यन्त दीनता दिखाकर छिगुनी छूते ही पहुँचा पकड़ लेते हो। किन्तु बलि और बावन की कहानी सुनकर, बलैया, तुम्हें कौन पतिआय-तुम्हारा विश्वास कौन करे?


नोट - राधिका से कृष्ण कोई मामूली चीज माँग रहे हैं। राधिका झिड़कती है-नहीं, ऐसा होने का नहीं, यह देते ही तुम दूसरी चीज माँगने लगोगे; यो होते-होते मेरे सारे शरीर पर ही कब्जा कर लोगे; बलि से भी तुमने महज तीन डेग जमीन माँगी थी, और उसका सर्वस्व ही हर लिया; अँगुली पकड़कर पहुँचा पकड़ना तो तुम्हारी आदत ही है; अतएव, हटो, दूर हो।


लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मुकुट की छाँह।

चटक भर्यौ नटु मिलि गयौ अटक-भटक बट माँह॥241॥


लटकि लटकि लटकतु चलतु = झूमते हुए (इठलाता) चलता है। डटतु = देखता है। चटक भर्यौ = चटकीला, रँगीला। बट = बाट, रास्ता। माँह = में।


झूमते-झामते हुए चलता है, चलते हुए अपने मुकुट की परिछाहीं देखता है। वह चटकीला नट (श्रीकृष्ण), अटकते-मटकते हुए, रास्ते में (मुझसे अकस्मात) मिल गया।


फिरि फिरि बूझति कहि कहा कह्यौ साँवरे-गात।

कहा करत देखे कहाँ अली चली क्यौं बात॥242॥


कहि = कहो। कहा = क्या। अली = सखी। साँवरे-गात = श्याम, श्रीकृष्ण।


बार-बार पूछती है कि कहो, उस साँवले शरीर वाले ने (तुमसे) क्या कहा? क्या करते हुए कहाँ (तुमने उन्हें) देखा? और सखी! (मेरी) बात कैसे-कैसे चली-किस प्रकार मेरी चर्चा छिड़ी?


तो ही निरमोही लग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।

अनआऐं आवै नहीं आऐं आवतु आउ॥243॥


ही = हृदय, मन। अनआऐं = बिना आये।


तुम्हारा मन निठुर है (उसकी संगति से) मेरे मन का भी यही स्वभाव हो गया है-वह भी निठुर हो गया है। (इसलिए) बिना (तुम्हारे) आये (मेरा मन मेरे पास) आता ही नहीं, (तुम्हारे) आने से आता है (अतएव, तुम) आओ।


नोट - प्रीतमत को बुलाने के लिए कैसा तर्क है! वाह!!


दुखहाइनु चरचा नहीं आनन आनन आन।

लगी फिर ढूका दिये कानन कानन कान॥244॥


दुखहाइन = दुःख देनेवाली। आनन = मुख। आनन = अन्य लोगों की। आन = शपथ। ढूका लगी = ढूका लगाकर, छिपकर। कानन = वन।


(इन) दुःख देनेवालियों के मुख में दूसरों की चर्चा नहीं रहती-(मैं यह बात) शपथ (खाकर कह सकती हूँ)। वन-वन में कान दिये थे ढूका लगी फिरती हैं- विहार-स्थलों के निकट छिपकर हम दोनों की गुप्त बातें सुनने के लिए कान लगाये रहती हैं।


बहके सब जिय की कहत ठौरु-कुठौरु लखैं न।

छिन औरें छिन और से ए छबि-छाके नैन॥245॥


छबि = छाके = शोभा-रूपी नशा पिये।


बहककर जी की सारी (बातें) कह देते हैं। ठौर-कुठौर-मौका-बेमौका-कुछ नहीं देखते। सौंदर्य के नशे में मस्त ये नेत्र क्षण में कुछ और हैं, और (दूसरे) क्षण में कुछ और ही से हैं-प्रति क्षण बदलते रहते हैं।


नोट - नशे में आदमी को बोलने-बतराने का शऊर नहीं रहता। प्रत्येक क्षण उसकी बुद्धि बदलती रहती है। ‘मतवाले की बहक’ प्रसिद्ध है।


कहत सबै कबि कमल-से मो मति नैन पखानु।

नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु बिरह-कृसानु॥246॥


मो = मेरे। पखानु = पत्थर। नतरुक = नहीं तो। बिय = दो। कृसानु = आग।


सभी कवि (नेत्रों को) कमल के समान कहते हैं, (किन्तु) मेरे मत से ये (नेत्र) पत्थर ( के समान) हैं। नहीं तो इनके-दो के -लगने से (एक दूसरे की आँखों के परस्पर टकराने से) विरहरूपी आग कैसे पैदा होती?


नोट - पत्थर के परस्पर टकराने से आग पैदा होती है।


लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं।

ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूँ चलि जाहिं॥247॥


मो =मेरे। मुँहजोर = शोख, निरंकुश, लगाम की धाक न माननेवाला। तुरंग = घोड़ा। ज्यौं = समान। ऐंचत हूँ = खींचते रहने पर भी।


लाज-रूपी लगाम को नहीं मानते। नेत्र मेरे वश के नहीं हैं। ये मुँहजोर घोड़े की तरह (लगाम) खींचते रहने पर भी (बढ़ते ही) चले जाते हैं।


इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं।

देखैं बनैं न देखतै अनदेखैं अकुलाहिं॥248॥


सिरज्योई नाहिं = सृष्टि ही नहीं हुई, बनाया ही न गया। देखते = देखते हुए, देखने के समय।


इन दुखिया आँखों के लिए सुख की सृष्टि ही नहीं हुई। (अपने प्रीतम को) देखते समय (तो इनसे) देखा नहीं जाता-प्रेमानन्द से इनमें आँसू डबडबा आते हैं, फलतः देख नहीं पातीं- (और उन्हें) बिना देखे व्याकुल-सी रहती हैं।



लरिका लैबै कैं मिसनु लंगर मो ढिग आइ।

गयौ अचानक आँगुरी छाती छैलु छुवाइ॥249॥


मिसनु = बहाने से। लंगर = ढीठ। ढिग = निकट। अचानक = अकस्मात्। छाती = स्तन। छैलु = रँगरसिया नायक।


(मेरी गोद के) बच्चे को लेने के बहाने वह ढीठ मेरे निकट आया (और बच्चे को लेते समय) वह छबीला मेरी छाती में अकस्मात् अँगुली छुला गया।


नोट - इस दोहे में बिहारी ने प्रेमी और प्रेमिका के हार्दिक भावों की तस्वीर-सी खींच दी है। विदग्ध रसिक ही इस दोहे के मर्म को समझ सकते हैं।


डगकु डगति-सी चलि ठठुकि चितई सँभारि।

लिये जाति चितु चोरटी वहै गोरटी नारि॥250॥


उगकु = डग एकु = एक डेग। डगति-सी = डगती हुई-सी, डगमगाती हुई-सी। चितई = देखकर। चोरटी = चोट्टी, चुराने वाली। गोरटी = गोरी।


एक डेग डगमगाती हुई-सी चलकर ठिठक गई-ठिठककर खड़ी हो गई। (फिर मुझे) देख अपने को सँभालकर चलती बनी। वही चोट्टी गोरी-स्त्री (अपने इन प्रेमपूर्ण भावों को दिखाकर) चित्त (चुराये) लिये जाती है।


चिलक चिकनई चटक सौं लफति सटक लौं आइ।

नारि सलोनी साँवरी नागिन लौं डँसि जाइ॥251॥


चिलक = चमक। चिकनई = चिकनाहट। चटक = चटकीलापन। सौ = सहित। सटक = बेंत वा बाँस की मुलायम छड़ी। सलोनी = लावण्ययुक्त। लौं = समान।


चमचमाहट, चिकनाहट और चटकीलेपन सहित बेंत की छड़ी-सी लचकती हुई (मेरे पास) आकर वह साँवले शरीर वाली लावण्यवती नायिका (मुझे) नागिन के समान डँस जाती है।


रह्यौ मोहु मिलनौ रह्यौ यौं कहि गहैं मरोर।

उत दै सखिहिं उराहनौ इत चितई मो ओर॥252॥


गहैं मरोर = मुड़ गई। उत = उधर। चितई = देखा।


”प्रेम भी गया और मिलना भी गया“ -ऐसा कहकर वह मुड़-सी गई- अपना मुँह फेर-सा लिया। और (इस प्रकार) उधर सखी से उलहना देकर (पुनः) इधर मेरी ओर (कटाक्ष करते हुए) देखा।


नहिं नचाइ चितवति दृगनु नहिं बोलति मुसुकाइ।

ज्यौं-ज्यौं रूखी रुख करति त्यौं-त्यौं चितु चिकनाइ॥253॥


दृगनु = आँखें। रूखी = उदासीन, शुष्क। रुख = चेहरा, भाव।


आँखों को नचाकर नहीं देखती-आँखों से भावमंगी नहीं करती, और मुस्कुराकर बोलती भी नहीं। किन्तु इस प्रकार ज्यों-ज्यों वह अपना रुख रूखा करती है- ज्येां-ज्यों वह रुखाई प्रकट करती है-त्यों-त्यों (मेरा) चित्त चिकनाता ही है-प्रेम से स्निग्ध ही होता है।


नोट - प्रेमिका के क्रोध से प्रेमी असन्तुष्ट नहीं। रुखाई से चित्त के रुखड़े होने की जगह चिकना होना कवि की वर्णन-चातुरी प्रकट करता है।


सहित सनेह सकोच सुख स्वेद कंप मुसकानि।

प्रान पानि करि आपनैं पान धरे मो पानि॥254॥


स्वेद = पसीना। कंप = काँपना। पानि करि = हाथ में करके। पान = बीड़ा। मो = मेरे। पानि = हाथ।


प्रेम, संकोच, सुख, पसीना, कंपन और मुस्कुराहट सहित-(प्रेम में पगी, लाज में गड़ी, सुख में सनी, पसीने से भिगी, काँपती और मुस्कुराती हुई) मेरे प्राण को अपने हाथ (वश) में करके (उस नायिका ने) मेरे हाथ में पान (का बीड़ा) रक्खा।


चितवनि भोरे भाइ की गोरैं मुँह मुसुकानि।

लागति लटकि अली गरैं चित खटकति नित आनि॥255॥


चितवनि = देखना। भाइ = भाव। नित = नित्य। आनि = आकर।


भोलेभाले भाव से देखना, गोरे-गोरे मुख से मुस्कुराना और लचक-लचककर सखी के गले लग जाना- (उस नवयुवती की ये सारी चेष्टाएँ) मेरे चित्त में नित्य आकर खटकती हैं।


छिनु-छिनु मैं खटकति सु हिय खरी भीर मैं जात।

कहि जु चली अनहीं चितै ओठन ही बिच बात॥256॥


खरी = अत्यन्त। अनहीं चितै = बिना देखे ही।


भारी भीड़ में जाते हुए उसका मेरी ओर बिना देखे ही (और) ओठों के बीच में ही बात कहकर चला जाना (मेरे) हृदय में प्रत्येक क्षण खटकता है (कि न जाने उसने यों धीरे-धीरे कौन-सी गोपनीय बात कही?)


चुनरी स्याम सतार नभ मुँह ससि की उनहारि।

नेहु दबावतु नींद लौं निरखि निसा-सी नारि॥257॥


सतार = + तार = तारा सहित। नभ = आकाश। ससि = चन्द्रमा। उनहारि = समान। नेह = प्रेम। लौं = समान। निसाा = रात्रि।


काली चुनरी ही तारों से भरा आकाश है और मुखड़ा चन्द्रमा के समान है। (इस चन्द्र और तारे-भरे आकाश से युक्त) रात्रि के समान स्त्री को देखकर नींद के समान प्रेम आ दबोचता है-बरबस प्रेम हो ही जाता है, जैसे रात में नींद आ ही जाती है।


मैं लै दयौ सु कर छुवत छिनकि गौर नीरु।

लाल तिहारौ अरगजा उर ह्वै लग्यौ अबीरु॥258॥


लै = लेकर। सु = वह। छिनिक गौ = छन-से सूख गया। सुगन्धित और शीतल पदार्थों से तैयार किया हुआ एक प्रकार का लेप।


मैंने लेकर (उसे) दिया। (यों) हे लाल, तुम्हारा (मेरे द्वारा भेजा हुआ लाल रंग का) अंगराग उस (विरहिणी) के हृदय में अबीर होकर लगा- (बिरह-ज्वाला के कारण पानी सूख जाने से वह लाल अरगजा का गीला लेप सूखा अबीर बन गया।)


तौपर वारौं उरबसी सुन राधिके सुजान।

तू मोहन कैं उर बसी ह्वै उरबसी समान॥259॥


बारौं = निछावर करूँ। उरबसी = उर्वशी नामक अप्सरा। सुजान = चतुर। उर बसी = हृदय में बसी। ह्वै = होकर। उरबसी = गले में पहनने का एक आभूषण, हैकल, माला या हार।


हे सुचतुरे राधिके! सुन, (मैं) तुझपर उर्वशी (अप्सरा) को निछावर करती हूँ- तुम्हारे सामने उर्वशी की कीमत कुछ नहीं, (क्योंकि) तू हार के समान श्रीकृष्ण के हृदय में बसी है।


हँसि उतारि हिय तैं दई तुम जु तिहिं दिना लाल।

राखति प्रान कपूर ज्यौं वहै चुहटिनी माल॥260॥


हिय = हृदय। तिहिं = उस। चुहटिनी = गुंजा, करजनी।


हे लाल! तुमने जो उस दिन हँसकर अपने हृदय से (माला) उतारकर दी सो उसी गुंजों की माला ने उसके कपूर के समान प्राण को (विलीन होने से) बचा रक्खा है।


नोट - गुंजा के साथ कपूर खाने से नहीं उड़ता।


रही लटू ह्वै लाल हौं लखि वह बाल अनूप।

कितौ मिठास दयौ दई इतै सलोनैं रूप॥261॥


लटू = लट्टू। हौं = हम। बल = नवयुवती, नायिका। सलोनैं = लावण्यमय, नमकीन। मिठास = मीठापन, माधुरी।


हे लाल! मैं उस अनुपम बाला को देखकर लट्टू हो रही हूँ-मुग्ध हो रही हूँ। ईश्वर ने इतने नमकीन रूप में-इत छोटे-से लावण्यमय शरीर में, कितनी मिठास दे दी है-कितनी माधुरी भर दी है।


सोहति धोती सेत मैं कनक-बर-न-तन बाल।

सारद-बारद-बीजुरी-भी रद कीजति लाल॥262॥


सेत = उजला। कनक = बरन = सोने का रंग। सारद = शरत् ऋतु का। बारद = बारिद = बादल। बीजुरी = बिजली। भा = आभा।


सोने कके रंग-जैसे शरीरवाली (वह) बाला उजली साड़ी में शोभ रही है। हे लाल! (उसकी यह शोभा देखकर) शरत् ऋतु के (उजले) बादल में (चमकनेवाली) बिजली की आभा को भी रद करना चाहिए-तुच्छ समझना चाहिए।


वारौं बलि तो दृगनु पर अलि खंजन मृग मीन।

आधी डीठि चितौनि जिहिं किए लाल आधीन॥263॥


बारौं = निछावर करूँ। बलि = बलैया लेना। दृगनु = आँखें। अलि = भौंरा। मीन = मछली। डीठि = नजर। चितौनि = चितवन। लाल = प्रीतम।


(मैं) बलैया (लूँ), तेरी आँखों पर भौंरा-खंनरीट, हिरन और मछली-सब को-निछावर करूँ। जिन (आँखों) ने आधी नजर की चितवन से ही प्रीतम को वश में कर लिया।


नोट - भौंरे की रसिकता और कालिमा, मृग की दीर्घनेत्रता, तथा खंजन और मीन की चंचलता से स्त्री की आँखों की उपमा दी जाती है। नवयुवती सुन्दरी नायिका की आँखें रसलुब्ध, कजरारी, बड़ी-बड़ी और चंचल होती भी हैं।


देखत उरै कपूर ज्यौं उपै जाइ जिन लाल।

छिन-छिन जाति परी खरी छीन छबीली बाल॥264॥


उरै = ओराना, चुक जाना। उपै जाइ = उड़ जाय, काफूर या गायब हो जाय। खरी = अत्यन्त। छीन = दुबली। लबीली बाल = सुन्दरी नवयुवती।


हे लाल! (मुझे भय है कि कहीं वह नायिका) कपूर के समान चुकते-चुकते उड़ न जाय। (क्योंकि तुम्हारे विरह में वह) सुन्दरी युवती क्षण-क्षण में अत्यन्त दुबली पड़ती जाती है-दुबली होती जाती है।


छिनकु छबीले लाल वह नहिं जौ लगि बतराति।

ऊख महूप पियूप की तौ लगि प्यास न जाति॥265॥


छिनुक = एक क्षण। जौ लगि = जब तक। बतराति = बातचीत करती। महूप = मधु, शहद। पियूष = अमृत।


हे छबीले लाल! एक क्षण के लिए भी वह (नायिका) जब तक बातचीत नहीं करती तब तक ऊख, मधु और अमृत की प्यास भी नहीं जाती- (ये सब पदार्थ स्वभावतः मीठे होने पर भी उसकी बोली की मिठास के इच्छुक बने रहते हैं, उसी के मधुमय वचनों से माधुर्य प्राप्त करते हैं।)


नोट - ऊख, महूप, और पीयूष (की उपमा) से नायिका के वचनों में क्रमशः मधुरता, शीतलता और प्राण-संचारिणी शक्ति का भाव व्यक्त होता है।


नागरि बिबिध बिलास तजि बसी गँवेलिनु माहिं।

मूढ़नि मैं गनिबी कि तूँ हठ्यौ दै इठलाहिं॥266॥


विलास = आमोद-प्रमोद। गँवेलिनु = गाँव की गँवार स्त्रियाँ। गनिबी = गिनी जायगी। हूठ्यौ दै = गँवारपन दिखलाकर। इठलाहि = मस्त बनी रह।


ऐ नगर में बसने वाली सुचतुरा स्त्री! नाना प्रकार के (नगर-सुलभ) आमोद-प्रमोद को छोड़कर तू इन गाँव की गँवार स्त्रियों में आ बसी है। (इसलिए अब) तू भी (उन्हीं के समान) गँवारपन दिखलाकर इठला-आनन्द प्रकट कर; नहीं तो (इन गँवारिनों द्वारा) मूर्खाओं में गिनी जाओगी-गँवारिन समझी जाओगी।


पिय मन रुचि हैबौ कठिन तन-रुचि होहु सिंगार।

लाखु करौ आँखि न बढ़ैं बढ़ैं बढ़ाऐं बार॥267॥


तन-रुचि = शरीर की शोभा। बार = बाल, केश।


प्रीतम के मन रुचि (पैदा) होना कठिन है- प्रीतम को अपनी ओर आकृष्ट कर लेना कठिन है। सिंगार से (तो केवल) शरीर की शोभा बढ़े। लाख भी (प्रयत्न) करो, किन्तु आँखें नहीं बढ़तीं। (हाँ,) बढ़ाने से बाल (अवश्य) बढ़ जाते हैं।


नोट - सिंगार से शरीर की शोभा भले ही हो, प्रीतम का मन आकृष्ट होना कठिन है, क्योंकि वह तो प्रेम से ही वशीभूत होता है।


नहिं परागु नहिं मधुर मधु नहिं बिकास इहिं काल।

अली कली ही सौं बँध्यो आगैं कौन हवाल॥268॥


परागु = फूल की सुगंधित धूलि, पुष्परज। मधु = मकरंद, पुष्परस। बिकास = खिलना। अली = भौंरा। बँध्यौ = उलझ गया है, घायल या लुब्ध हुआ है। हवाल = दशा।


न (सुगंधित) पराग है, न मीठा मकरंद, इस समय तक विकास भी नहीं हुआ-वह खिली भी नहीं। अरे भौंरा! कली से ही तो तू इस प्रकार उलझ गया, फिर आगे तेरी क्या दशा होगी-(अधखिली कली पर यह हाल है तो जब यह कली खिलेगी, सुगंधित पराग और मधुर मकरंद से भर जायगी, तब क्या दशा होगी।)


नोट - यही दोहा सुनकर मिर्जा राजा जयसिंह अपनी किशोरी रानी के प्रेम को कम कर पुनः राजकाज देखने लगे थे। इसी पर उन्होंने बिहारी को एक सौ अशर्फियाँ दी थीं, और इसी ढंग के दोहे रचने के लिए प्रत्येक दोहे पर सौ अशर्फियाँ पुरस्कार देने का उत्साह देकर यह सतसई तैयार कराई थी। इसलिए यही दोहा सतसई की रचना का मूल कारण माना जाता है।


टुनहाई सब टोल में रही जु सौति कहाइ।

सु तैं ऐंचि प्यौ आपु त्यौं करी अदोखिल आइ॥269॥


टुनहाई = जादूगरनी। टोल = टोले-महल्ले में। जु = जो। सु = वह, उसे। तैं = तुमने। ऐंचि = खींचकर, आकृष्ट कर। त्यौं = निकट, ओर। अदोखिल = दोषरहित, कलंक रहित।


समूचे टोले में (तुम्हारी) जो सौतिन (पति को अत्यन्त आकृष्ट करने के कारण) जादूगरनी कही जाती थी (कि इसने जादू करके नायक को वश में कर लिया है) उसे तुमने आकर, पति को अपनी ओर आकृष्ट कर, कलंकरहित कर दिया, (तुम्हारी सौतिन पर से जादूगरनी होने का कलंक हट गया)।


नोट - अब लोग समझ गये कि सौतिन ने अपने रूप के जादू से ही नायक को वश में किया था। तुम अधिक रूपवती हो, सो तुम्हारे आने से नायक तुम्हारे रूप पर आकृष्ट हो गया है, और उसपर से दृष्टि फेर ली है।


देखत कछु कौतिगु इतै देखौ नैकु निहाररि।

कब की इकटक डटि रही टटिया अँगुरिनु फारि॥270॥


कौतिगु = कौतुक = तमाशा। नैकु = जरा। निहारी = गौर करके। डटि रही = देख रही है। टटिया = टट्टर।


(क्या) इस ओर कुछ तमाशा देख रहे हो? (अगर नहीं देखते तो) जरा गौर से देखो- आँखें फाड़-फाड़कर देखो। (वह न जाने) कब से टट्टर को अँगुली से फाड़कर (तुम्हारी ओर) एकटक से देख रही है।


लखि लोइन लोइननु कौं को इन होइ न आज।

कौन गरीब निवाजिबौ कित तूठ्यौ रतिराज॥271॥


लोइन = लावण्य, शोभा। लोइननु = आँखों। को = कौन। निवाजिबौ = कृपा होगी। कित = कहाँ। तूठ्यौ = संतुष्ट हुआ है। रतिराज = कामदेव।


इन आँखों का लावण्य देखकर आज कौन इनका नहीं हो रहेगा? कौन इन आँखों के वश में नहीं हो जायगा? (कहो, आज) किस गरीब पर कृपा होगी, कहाँ कामदेव प्रसन्न हुआ है? (कि तुम यों बनी-ठनी चली जा रही हो?)


मन न धरति मेरौ कह्यौ तूँ आपनैं सयान।

अहे परनि पर प्रेम की परहथ पारि न प्रान॥272॥


सयान = चतुराई। अहे = है। परनि = पड़ना। परहथ = दूसरे के हाथ में। पारि = डालना, देना।


तू अपनी चतुराई में (मस्त बनी) मेरा कहना मन में नहीं धरती-मेरी बात नहीं मानती। (किन्तु यह याद रख कि) दूसरे के प्रेम में पड़ना-दूसरे के प्रेम में फँसना-(अपने) प्राणों को दूसरे के हाथ में देना है, अतः (प्राण) दूसरे के हाथ में मत दे।


बहकि न इहिं बहिनापुली जब-तब बीर बिनासु।

बचै न बड़ी सबीलहूँ चील-घोंसुआ मांसु॥273॥


बहकि = बहककर, फेर में पड़कर। बहिनापुली = स्त्रियों की आपस की मैत्री। बीर = सखी। सबइील = यत्न। घोंसुआ = घोंसला, खोंता।


इस बहिनापे में मत बहको-इस कुलटा की मित्रता के धोखें में न आओ। हे सखि! जब-तब इसमें सर्वनाश (ही हुआ) है। (देखो!) बहुत यत्न करने पर भी चील के घोंसले में मांस नहीं बचता।


नोट - कोई दुष्टा स्त्री किसी भोलीभाली नवयुवती सुन्दरी से बहिनापा जोड़कर उसे बिगाड़ना चाहती है। इस पर नवयुवती सुन्दरी की प्यारी सखी उसे समझा रही है।


मैं तोसौं कैबा कह्यौ तू जिनि इन्हैं पत्याइ।

लगालगी करि लोइननु उर में लाई लाइ॥274॥


तो सौं = तुमसे। कैबा = कितनी बार। जिनि = मत। पत्याइ = प्रतीति कर। लगालगी = लग-लगाकर, एक-दूसरे से उलझकर। लोइननु = आँखें। लाई = लगा दी। लाइ = आग, लाग, सेंध।


मैंने तुमसे कई बार कहा (कि) तुम इन्हें मत पतिआओ-इनका विश्वास न करो। (किन्तु तुमने न माना, अब देखो, इन) आँखों ने लगालगी करके-मिल-मिला करके-(तुम्हारे) हृदय में आग लगा दी-तुम्हारे हृदय में चोर पहुँचने के लिए सेंध लगा दी।


सनु सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि।

हरी-हरी अरहरि अजौं धर धरहरि जिय नारि॥275॥


सूक्यौ = सूख गया। बनौ = (बिनौला) कपास। अरहरि = अरहर; रहरी। अजौं = अब तक। धरहरि = धैर्य।


सन सूख गया, कपास भी बीत चुकी, ऊख भी उखाड़ ली गई। (यों तुम्हारे गुप्त-मिलन के सभी स्थान नष्ट हो गये, किन्तु) अब तक अरहर हरी-हरा है। (इसलिए) हे बाला! हृदय में धैर्य धारण करो (क्योंकि कम-से-कम एक गुप्त स्थान तो अभी तक कायम है।)


नोट - सन, कपास, ऊख और अरहर की खड़ी फसल वाला खेत खूब घना और गुप्त एकान्त स्थान के समान होता है। यह देहाती नायिका मालूम होती है; क्योंकि ऐसे स्थान में देहाती नायिकाएँ ही अपना मिलन-मंदिर बनाती हैं।


जौ वाके तन को दसा देख्यौ चाहत आपु।

तौ बलि नैंकु बिलोकियै चलि अचकाँ चुपचापु॥276॥


बाके = उसके। बलि = बलैया लेती है। नैंकु = जरा। बिलोकियै = देखिए। अचकाँ = अचानक। चुपचापु = चोरी-चुपके से।


यदि उसके (विरह में व्याकुल नायिका के) शरीर की (यथार्थ) दशा आप देखना चाहते हैं तो, मैं बलैया लेती हूँ, जरा चुपचाप अचानक चलकर उसे देखिए (नहीं तो आपके आगमन की बात सुनते ही वह आनन्दित हो उठेगी और आप उसकी यथार्थ अवस्था नहीं देख सकेंगे।)



कहा कहौं बाकी दसा हरि प्राननु के ईस।

बिरह-ज्वाल जरिबो लखैं मरिबौ भयौ असीस॥277॥


कहा = क्या। वाकी = उसकी। जरिबो = जरना। हरि = श्रीकृष्ण। लखे = देखकर। मरिबौ = मरना। भयौ = हुए।


हे प्राणों के ईश्वर श्रीकृष्ण! उसकी दशा मैं क्या कहूँ। (उसका) विरह-ज्वाला में जलना देखकर-तुम्हारे विरह में अपार कष्ट सहना देखकर-मरना ही आशीर्वाद हो गया (मृत्यु ही आशीर्वाद-सी सुखदायिनी मालूम पड़ती है)



नैंकु न जानी परती यौ पर्‌यौं बिरह तनु छामु।

उठति दियैं लौं नाँदि हरि लियैं तिहारो नामु॥278॥


नैंकु = जरा। छामु = क्षाम, क्षीण, दुबला। दियैं = दीपक। लौं = समान। नाँदि उठति = प्रकाशित हो उठती है। तिहारो = तुम्हारा।


जरा भी नहीं जान पड़ती- नहीं दीख पड़ती, विरह से (उसका) शरीर यों दुबला हो गया है। हे हरि! तुम्हारा नाम लेते ही वह दीपक के समान प्रकाशित हो उठती है। (इसीसे मालूम पड़ता है कि वह वर्त्तमान है, बिलीन नहीं हुई है।)


दियौ सु सोस चढ़ाइ लै आछी भाँति अएरि।

जापैं सुखु चाहतु लियौ ताके दुखहिं न फेरि॥279॥


आछी भाँति = अच्छी तरह। अएरि = अंगीकार करके। जापैं = जिसपर, जिसके द्वारा। चाहतु = मन-चाह। ताके = उसके।


अच्छी तरह अंगीकार करके (जो कुछ उसने) दिया है, सो शीश पर चढ़ा ले-दुःख ही दिया तो क्या हुआ, उसे भी अंगीकार कर ले। जिससे मनचाहा सुख लिया, उसके (दिये हुए) दुःख को भी मत फेर-वापस न कर।


कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल।

कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल॥280॥


कहा = कैसा। लड़ैते = लड़ाकू। लाल = नन्दलाल, श्रीकृष्ण। बेहाल = व्याकुल। कहुँ = कहीं। पीतपटु = पीताम्बर।


(तुमने अपने) नेत्रों को कैसा लड़ाकू बना लिया है? वे कैसे ऊधमी हो गये हैं? (देखो! उसकी मार से) श्रीकृष्ण व्याकुल होकर (घायल-से) पड़े हैं। कहीं मुरली (पड़ी) है, कहीं पीताम्बर (पड़ा) है, कहीं मुकुट (लुढ़क रहा) है, और कहीं बनमाला (लोट रही) है- (उन्हें किसी की सुधि नहीं।)


तूँ मोहन मन गड़ि रही गाढ़ी गड़नि गुवालि।

उठै सदा नटसाल ज्यौं सौतिनु के उर सालि॥281॥


गाढ़ि गड़नि = अच्छी तरह से, मजबूती के साथ। गुवालि = ग्वालिन। नटसाल = तीर की चोखी नोक जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह जाती है और पीड़ा देती है। ज्यौं = समान, जैसे। सालि = कसक।


अरी ग्वालिन! तू मोहन के मन में भली भाँति गढ़ रही है-श्रीकृष्ण के हृदय में तूने अच्छी तरह घर कर लिया है। (यह देखकर) सौतिनों के हृदय में तीर की टूटी हुई नोक की पीड़ा के समान सदा कसक उठती रहती है।


बड़े कहावत आप सौं गरुवे गोपीनाथ।

तौ बदिहौं जौ राखिहौ हाथनु लखि मनु हाथ॥282॥


आपसौं = अपने को। गरुवै = भारी, प्रतिष्ठित। तौ = तब। बदिहौं = यथार्थ में समझूँगी। हाथनु = हाथों को।


प्रतिष्ठित गोपीनाथ जी! (आप) अपने को बड़े तो कहलवाते हो। किन्तु मैं बदूँगी तब-मैं यथार्थ में प्रतिष्ठित और बड़ा समझूँगी तब-जब (इस नायिका के) हाथों को देखकर (अपना) मन वश में रख लोगे-अपने को काबू में रख सकोगे।


रही दहेंड़ी ढिग धरी भरी मथनियाँ बारि।

फेरति करि उलटी रई नई विलोवनिहारि॥283॥


दहेंड़ी = दही रखने का बर्तन, कहतरी, मटकी। ढिग = निकट। मथनिया = जिसमें दही रखकर मथा जाता है, माठ, कूँड़ा। रई = जिससे दही मथा जाता है, रही, मथनी। नई बिलोवनिहारि = दही मथनेवाली नवयुवती, नई-नवेली ग्वालिन।


(दही से भरी हुई) मटकी निकट ही रक्खी रह गई और (दही मथने वाले) भाँड़ में केवल पानी भर दिया। (फिर) मथनी उलटकर (प्रीतम-श्रीकृष्ण- के ध्यान में पगली बनी हुई वह) नई दही मथनेवाली फेर (मथ) रही है-उलटी मथनी से ही भाँड़े के पानी को मथ रही है। (श्रीकृष्ण के प्रेम में बेसुध है)


कोरि जतन कीजै तऊ नागरि नेहु दुरै न।

कहैं देत चितु चीकनौ नई रुखाई नैन॥284॥


कोरि = करोड़। तऊ = तो भी। नागरि = चतुरा। दुरै न = नहीं दुरता, नहीं छिपता। चीकनौ = प्रेम। रुखाई = क्रोध।


करोड़ों यत्न करो तो भी हे सुचतुर! प्रेम नहीं छिपता। आँखों की नई रुखाई ही-कृत्रिम रुक्षता (क्रोध) ही-हृदय की चिकनाहट-(स्नेहशीलता)-कहे देती है।



पूछैं क्यौं रूखी परति सगिबगि गई सनेह।

मनमोहन छवि पर कटी कहै कँट्यानी देह॥285॥


रूखी परति = अनखाती, कुपित होती। सगबगि गई = शराबोर हो गई, तल्लीन या मस्त हो रही। मनमोहन = श्रीकृष्ण। छबि पर कटी = रूप पर मुग्ध। कँट्यानी = कंटकित, रोमांचित।


पूछने से क्रोधित क्यों होती हो? स्नेह से तो शराबोर हो रही हो। श्रीकृष्ण के रूप पर लट्टू हुई हो, (यह बात तुम्हारी) रोमांचित देह ही कह रही है।


तूँ मति मानैं मुकुतई कियैं कपट चित कोटि।

जो गुनही तौ राखिये आँखिन माँहि अँगोटि॥286॥


मुकुतई = मुक्ति, छुटकारा। चित = मन। कोटि = करोड़ों। गुनही = गुनहगार, दोषी, अपराधी। अँगोटि = बन्द कर, कैद कर।


करोड़ों कपट मन में रखने से तू अपना छुटकारा न समझ-झूठमूठ मुझे दोषी बतलाने से मैं तेरा पिंड छोड़ दूँगा, ऐसा मत समझ। (हाँ,) यदि (सचमुच मुझे) गुनहगार समझती है, तो अपनी आँखों में मुझे कैद कर रख।


नोट- नायिका को किसी तरह नायक छोड़ना नहीं चाहता। अपने ऊपर किये गये आक्षेप या आरोप को वह पहले तो झूठ बतला रहा है, और सत्य होने पर भी सजा चाहता है-नायिका की आँखों में कैद होना! कविवर रहीम ने भी भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि मैं नट के समान चौरासी लाख रूप बनाकर तुम्हारे निकट आया, अगर मेरे इन रूपों पर तुम प्रसन्न हो तो मुझे मनचाही (मुक्ति) दो, नहीं, कहो तो मैं इन रूपों को ही न बनाऊँ, और यों चौरासी के फेर से बचूँ। कैसी विलक्षण उक्ति है-आनीता नटवन्मया तब पुनः श्रीकृष्ण या भूमिका, व्योमाकाश खखांबराब्धि वसुवत् त्वत्प्रीतपेद्या-वधि; प्रीतस्त्वं यदि चेन्निरीक्ष्य भगवान् स्वप्रार्थितं देहि मे, नोचेदब्रूहि कदापि मानय पुनस्वेतादृशी भूमिका”-रहीम काव्य।


बाल-बेलि सूखी सुखद इहिं रूखी-रुख-घाम।

फेरि डहडही कीजियै सुरस सींचि घनस्याम॥287॥


बेलि = लता। रूखी-रुख = क्रोधभाव। घाम = रौद, धूप। डहडही = हरी-भरी। सुरस = (1) सुन्दर प्रेम (2) सुन्दर जल। घनस्याम = (1) श्रीकृष्ण (2) श्यामल मेघ।


इस क्रोध-भाव-रूपी घाम से (वह) सुख देनेवाली बाला-रूपी लता सूख गई है। (अतएव) हे घनश्याम! सुन्दर (प्रेम-रूपी) जल से सींचकर इसे पुनः हरी-भरी कर दीजिए।


हरि हरि बरि बरि उठति है करि करि थकी उपाइ।

वाकौ जुरु बलि बैदजू तो रस जाइ तु जाइ॥288॥


बरि-बरि = जल-जलकर। वाको = उसको। जुरु = ज्वर, बुखार। बलि = बलैया लेना। रस = (1) मकरध्वज आदि रासायनिक औषधि (2) प्रेम, मिलन-जनित आनन्द।


हे हरि! (विरह-ज्वाला में) जल-जल (वह) उठती है। (मैं) उपाय कर-करके थक गई। हे बैद्य महाराज, मैं बलैया लेती हूँ, उसका (विरह-रूपी) ज्वर आपके ‘रस’ (औषध) से जाय तो जाय (नहीं तो कोई दूसरा उपाय नहीं।)


तूँ रहि हौं ही सखि लखौं चढ़ि न अटा वलि बाल।

सबही विनु ससि ही उदै दीजतु अरघु अकाल॥289॥


हौं = मैं। अटा = अटारी, कोठा। बलि = बलैया लेना। बाल = बाला, नायिका। अरघु = अर्घ्य। अकाल = असमय, बेवक्त।


सखि! तू रह, मैं ही देखती हूँ। बाले! मैं बलैया लेती हूँ, तू कोठ पर न चढ़। (नहीं तो कोठे पर तुम्हारा मुख देख उसे चन्द्रमा समझ) सभी बिना चन्द्रमा के उदय हुए ही, असमय में ही, अर्घ्य देने लगेंगे।


नोट - इसी भाव का एक श्लोक महाकवि कालिदास के शृंगारतिलक में है, जिसमें चंद्रानना नायिका को ग्रहण-काल में झटपट घर में घुसने को कहा गया है। कारण, कहीं उसे पूर्णचन्द्र समझकर राहु ग्रस न ले-झटिति प्रविश गेहे मा बहिस्तिष्ठ कान्ते, ग्रहणसमय बेला वर्त्तते शीतरश्मेः; तब मुखमकलंकं वीक्ष्य नूनं स राहुः; ग्रसति तव मुखेन्दुं पूर्णचन्द्रं विहाय।


दियौ अरघु नीचौं चलौ संकटु भानैं जाइ।

सुचिती ह्वै औरौ सबै ससिहिं बिलोकैं आइ॥290॥


संकटु = संकट-चतुर्थी का व्रत। भानैं = तोड़ें। सुचिती ह्वै = सुचित (स्थिरचित्त) होकर, द्विघा को छोड़कर। ससिहिं = चन्द्रमा को। बिलोकैं = देखें।


अर्घ्य दे चुकी, (अब) नीचे चलो। चलकर संकट चौथ का व्रत तोड़ें- संकट-चतुर्थी के व्रत का पारण करें। (ताकि) अन्य सब (स्त्रियाँ) भी सुचित होकर-दुबिधा छोड़कर-चन्द्रमा को आकर देखें!

(क्योंकि कोटे पर) रहने से तुम्हारे मुखचन्द्र को देखकर सब भ्रम में पड़ जाती हैं कि इस चौथ को यह पूर्णचन्द्र कहाँ से आया!)


वे ठाढ़े उमदाहु उत जल न बुझै बड़वागि।

जाही सौं लाग्यौ हियौ ताही कैं हिय लागि॥291॥


दमदाहु = मदमाती-सी चेष्टा करो, अँठिलाओ। उत = उधर। बड़वागि = समुद्र की बड़वा नामक अग्नि। जाही सौं = जिससे। ताही कैं = उसी के। लागि लगो।


(देख) वे खड़े हैं, उधर ही उन्मत्त-सी चेष्टा करो-उन्हीं से लपटो-झपटो। जल से बड़वाग्नि नहीं बुझती-मुझसे तुम्हारी ज्वाला शान्त न होगी। जिससे हृदय लगा है, उसी के हृदय से जा लगो। (निकट खड़े ही हैं, फिर देरी क्यों?)


अहे कहै न कहा कह्यो तो सौं नन्दकिसोर।

बड़बोली बलि होति कत बड़े दृगनु कैं जोर॥292॥


अहे = अरी। कहा = क्या। नन्दकिसोर = नन्दनन्दन श्रीकृष्ण। बड़बोली = बढ़-बढ़कर बातें करने वाली। बलि = बलैया लेना।


अरी! कह न, तुझसे श्रीकृष्ण ने क्या कहा है? बड़ी-बड़ी आँखों के बल पर, बलैया जाऊँ, तू क्यों बढ़-बढ़कर बातें करती है?


मैं यह तोही मैं लखी भगति अपूरब बाल।

लहि प्रसाद-माला जु भौ तनु कदम्ब की माल॥293॥


बाल = बाला, नवयुवती। लहि = पाकर। भो = हुई। तनु कदम्ब की माल = जैसे कदम्ब के सुन्दर फूल में पीले-पीले सुकोमल अँकुरे निकले रहते हैं,


वैसे ही गोरी गोपी के गात में रोमांच उठ आये। (कोमलांगी के रोमांच की उपमा कदम्ब कुमुम से देते हैं, जैसे वीरों के रण-रोमांच की पनस-फल से)


हे बाले! मैंने तुम्हीं में ऐसी अपूर्व भक्ति देखी है। (क्योंकि ठाकुरजी की) प्रसाद की माला पाकर तुम्हारी देह की कदम्ब की माला (रोमांचित) हो गई!


नोट - नायक ने चुपके-से अपनी माला भेजी, जिसे नायिका ने सखियों के सामने ठाकुरजी की प्रसाद की माला कहकर पहन लिया। माला पहनते ही शरीर पुलकित हो उठा। इसपर चतुर सखी चुटकी लेती है कि ऐसी अपूर्व ईश्वर-भक्ति किसी और नवयुवती में नहीं देखी गई; क्योंकि नवयुवती में तो पतिप्रेम ही होता है, ईश्वर-प्रेम तो वृद्धा में देखा जाता है।


ढोरी लाई सुनन की कहि गोरी मुसकात।

थोरी-थेरी सकुच सौं भोरी-भोरी बात॥294॥


ढोरी लाई = आदत लगा ली। सकुच = लाज। सौं = से!


थोड़ी-थोड़ी, लज्जा से, भोली-भोली बातें कहकर वह गोरी मुसकाता है- लज्जा के कारण अधिक कह नहीं सकती, अतएव भोली-भोली बातें थोड़ी-थोड़ी कहकर ही मुस्कुरा पड़ती है। (इस चेष्टा से कही गई उसकी बातें) सुनने की मैंने आदत-सी लगा ली है-बिना सुने चैन ही नहीं पड़ता।


चितु दै चितै चकोर त्यौं तीजैं भजै न भूख।

चिनगी चुगै अंगार को चुगै कि चन्द-मयूख॥295॥


चितै = देखो। तीजैं = तीसरे को। भजै न भूख = भूख लगने पर भी (किसी और को) ध्यान में नहीं लाता। मयूख = किरण।


चकोर (मुखचन्द्र-प्रेमी नायक) की ओर चित्त देकर देखो-उसकी दशा पर अच्छी तरह विचार करो। वह भूख लगने (तीव्र मिलनोत्कंठा होने) पर भी तीसरे को नहीं भजता। या तो आग (विरहाग्नि) की चिनगारी चुगकर खाता है-या चन्द्रमा की किरण (मुखचन्द्र-छबि) को चुगता है- (किसी तीसरे के पास नहीं जाता।)


कब की ध्यान लगी लखौं यह घरु लगिहै काहि।

डरियतु भृंगी-कीट लौं मति बहई ह्वै जाहि॥296॥


यह घरु काहि लगिहै = यह घर कौन सुधार सकेगी। भृंगी-कीट = भृंगी नामक एक छोटा-सा कीड़, जो दूसरे छोटे-छोटे कीड़ों को अपने घर में ले जाकर उनके निकट इतना भनभनाता है कि वे भी उसी के संगीत में लीन होकर भृंगी ही बन जाते हैं। लौं = समान। मति = बुद्धि। वहई = वही।


देखो, कब से ध्यान लगाये हुई है। भला, यह घर कौन सुधार सकेगा-इसे कौन समझा-बुझा सकेगा। मैं तो डरती हूँ कि भृंगी-कीट-न्याय से कहीं उस (नायिका) की बुद्धि भी वही न हो जाय।

की बुद्धि भी वही न हो जाय।


नोट - नायिका भी कहीं नायक के ध्यान में निमग्न होकर नायक ही-बन गई, तो भय है कि घर-गिरस्ती कौन सँभालेगा।


रही अचल-सी ह्वै मनौ लिखी चित्र की आहि।

तजैं लाज डरु लोक कौ कहौ बिलोकति काहि॥297॥


अचल = स्थिर। आहि = है। बिलोकति = देखती हो। काहि = किसे।


निश्चल-सी हो रही हो-जरा भी हिलती-डुलती नहीं-मानो चित्र की-सी लिखी (तस्वीर) हो। इस प्रकार संसार की लाज और डर छोड़कर, कहो, तुम किसे देख रही हो?


ठाढ़ी मंदिर पै लखै मोहन-दुति सुकुमारि।

तन थाकै हू ना थकै चख चित चतुर निहारि॥298॥


मंदिर = अटारी। दुति = छबि। चख = आँख। निहारि = देख।


कोठे पर खड़ी हो वह सुकुमारी (नायिका) श्रीकृष्ण की शोभा देख रही है (अत्यन्त सुकुमार होने के कारण) शरीर थक जाने पर भी (उसके प्रेमप्लुत) नेत्र और मन नहीं थकते। अरी चतुर सखी! तमाशा तो देख।


पल न चलैं जकि-सी रही थकि-सी रही उसास।

अबहीं तनु रितयौ कहौ मनु पठयौ किहिं पास॥299॥


जकि-सी = स्तम्भित-सी, जड़-तुल्य, हक्का-बक्का, किंकर्त्तव्यविमूढ़। उसास = उच्छ्वास = साँस। रितयौ = खाली करके।


पलकें नहीं चलतीं-एक-टक देख रही हो। हक्का-बक्का हो गई हो (पत्थर की मूरत बन गई हो)। साँस भी थक-सी गई है-साँस भी नहीं चलती-रुक-सी गई है। अभी से- इस किशोर अवस्था में ही-शरीर को इस प्रकार खाली कर लिया, कहो, मन किसके पास भेज दिया?


नाक चढ़ै सीबी करै जितै छबीली छैल।

फिर-फिरि भूलि वहै गहै प्यौ कँकरीली गैल॥300॥


नाक चढ़ै = नाक चढ़ाकर। सीबी = सीत्कार, सी-सी करना। छैल = नायिका। गहै = पकड़ता है। प्यौ = पिय, नायक। गैल = राह।


वह सुन्दरी नायिका जहाँ पर (अपने कोमल चरणों में कठोर कंकड़ियों के गढ़ने से) नाक चढ़ाकर सी-सी करती है। (उस समय की उसकी अलौकिक भाव-भंगी पर मुग्ध होकर) प्रीतम पुनः पुनः भूलकर उसकी कँकरीली राह को पकड़ता है-बार-बार उसे उसी राह पर ले जाता है (कि वह पुनः नाक सिकोड़कर ‘सी-सी’ करे!)



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