Monday, July 18, 2022

बिहारी सतसई (सातवां शतक) | बिहारी | Bihari Satsai / Satwa Shatak | Bihari



 मुँह पखारि मुँड़हरु भिजै सीस सजल कर छाइ।

मौरि उचै घूँटैनु तैं नारि सरोवर न्हाइ॥601॥


मुँड़हरु = सिर का अगला भग, ललाट। सजल = जलयुक्त, जलपूर्ण। मौरि = मौलि = मस्तक। उचै = ऊँचा उठाकर। घूँटैनु तैं = घुटनों से। न्हाइ = स्नान करती है।


मुख धोकर, ललाट भिगोकर, और सिर से जलयुक्त हाथों को छुलाकर (बालों पर जल ढालकर), सिर ऊँचा किये और घुटनों के बल से, वह स्त्री पोखरे में स्नान कर रही है।


बिहँसति सकुचति-सी दिऐं कुच आँचर बिच बाँह।

भीजैं पट तट कौं चली न्हाइ सरोवर माँह॥602॥


कुच = स्तन। बाँह = बाँह, हाथ। पट = कपड़ा। तट = किनारा। न्हाइ = स्नान कर। सरोवर = पोखरा।


सरोवर में स्नान कर मुस्कुराती और सकुचाती हुई-सी अपने हाथों को कुचों और अंचल के बीच में दिये हुए गीले कपड़े पहने ही तट की ओर चली।


नोट - ”कुच आँचर बिच बाँह“ में स्वाभाविकता और रस-मर्मज्ञता खूब है। सहृदयता से पूछिए कि कहीं किसी घाट पर परखा है।


मुँह धोवति एँड़ी घसति हँसती अनगवति तीर।

धसति न इन्दीबर-नयनि कालिंदी कै नीर॥603॥


अनगबति = जान बूझकर देकर करती है। इन्दीबर = नील कमल। इन्दीबर-नयनि = कमलनयनी। कालिन्दी = यमुना।


(वह कामिनी) घाट ही पर (श्रीकृष्ण को देखकर) मुँह धोती, एँड़ी घिसती, हँसती और जान-बूझकर (नहाने में) विलंब करती है; (किन्तु) वह कमल-लोचना, यमुना के पानी में नहीं पैठती।


न्हाइ पहिरि पटु डटि कियौ बेंदी मिसि परनामु।

दृग चलाइ घर कौं चली बिदा किए घनस्यामु॥604॥


पट = वस्त्र। मिसि = बहाना। दृग चलाइ = आँखों के इशारे कर।


स्नान कर, कपड़ा पहन, सज्जित हो, बेंदी लगाने के बहाने प्रणाम किया-बेंदी लगाते समय मस्तक से हाथ छुलाकर इशारे से प्रणाम किया। फिर, आँखों से इशारे से श्रीकृष्ण को बिदा कर स्वयं भी घर को चली।


चितवत जितवत हित हियैं कियैं तिरीछे नैन।

भीजैं तन दोऊ कँपैं क्यौंहूँ जप निबरैं न॥605॥


चितबत = देखते हैं। जितबत = जिताते हैं। निबरैं न = नहीं (निवृत) समाप्त होता या निबटता।


आँखें तिरछी किये (एक दूसरे को) देखते हैं, और (अपने-अपने) हृदय के प्रेम को जितातेहैं-अपने-अपने प्रेम को उत्कृष्ट (विजेता) प्रमाणित करते हैं। (यों) भींगे हुए शरीर से दोनों काँप रहे हैं, (किन्तु उन दोनों का) जप किसी प्रकार समाप्त नहीं होता।


नोट - नायक और नायिका (दोनों) स्नान के बाद जप करते हुए ही एक दूसरे को देख रहे हैं। दोनों ही जान-बूझकर जप करने में देर कर रहे हैं। दर्शन-लालसा के आगे सर्दी की कँपकँपी क्या चीज है!


दृग थिरकौंहैं अधखुले देह थकौंहैं ढार।

सुरति-सुखित-सी देखियतु दुखित गरभ कैं भार॥606॥


दृग = आँखें। थिरकौहैं = थिरकते हुए-से, बहुत धीरे-धीरे नाचते हुए-से। थकौंहैं ढार = थके हुए के ढंग के, थके हुए-से। सुरति-सुखित-सी = तुरत समागम करके प्रसन्न हुई-सी। गरभ = गर्भ।


अधखुले नेत्र थिरकते-से हैं-मन्द-मन्द गति से इधर-उधर होते हैं-और शरीर थका हुआ-सा है। गर्भ के बोझ से दुःखित (वह नायिका) समागम करके प्रसन्न हुई-सी दीख पड़ती है। (लक्षणों से भ्रम होता है कि वह गर्भ के भार से दुःखित नहीं है, क्योंकि समागम-जनित चिह्न प्रत्यक्ष हैं)।


नोट - गर्भवती नायिका का वर्णन-आँखों की मन्द (आलस-भरी) गति, उनका आधा खुला रहना (झपकी-सी लेना) और देह थकी-सी मालूम पड़ना। ये लक्षण वास्तव में गर्भ और समागम (दोनों) के सूचक हैं।


ज्यौं कर त्याैं चुहुँटी चले ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि।

छबि सौं गति-सी लै चलै चातुर कातनिहारि॥607॥


कर = हाथ। चुहुँटी = चुटकी। नारि = गर्दन। गति-सी लै चलै = गति-सी लेकर चलती है, नृत्य-सी कर रही है।


जिस प्रकार हाथ चलता है, उसी प्रकार चुटकी भी चलती है और, जिस प्रकार चुटकी चलती है, उसी प्रकार गर्दन भी चलती है- इधर-उधर हिलती है। यह चतुर चरखा कातने वाली अपनी इस शोभा से (मानो नृत्य की) गति-सी ले रही है।


अहे दहेंड़ी जिन धरै जिनि तूँ लेहि उतारि।

नीकै हैं छीके छवै ऐसी ही रहि नारि॥608॥


अहे = अरी। दहेंड़ी = दही की मटकी। छीके = सींका, मटकी रखने के लिए बना हुआ सिकहर, जिसे छत या छप्पर में लटकाते हैं।


अरी! तू न तो मटकी को (सींके पर) रख, न उसे नीचे उतार। हे सुन्दरी! (तेरी यह अदा) बड़ी अच्छी लगती है-तू इसी प्रकार सींके को छूती हुई खड़ी रह।


नोट - सुन्दरी युवती खड़ी होकर और ऊपर बाँहें उठाकर ऊँचे सींके पर दहेड़ी रख रही है। खड़ी होने से उसका अंचल कुछ खिसक पड़ा और बाँहें ऊपर उठाने से कुच की कोर निकल पड़ी। रसिक नायक उसकी इस अदा पर मुग्ध होकर कह रहा है कि इसी सूरत से खड़ी रह-इत्यादि। इस सरस भाव के समझदार की मौत है! चतुर्थ शतक का 362 वाँ दोहा देखिए।


देवर फूल हने जु सु-सु उठे हरषि अँग फूलि।

हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि॥609॥


हने = मारना। देह-ददोरनु = देह में पड़े हुए चोट के चकत्ते।


देवर ने जिन-जिन अंगों में फूल से मारा, सो (उस फूल के लगते ही भौजाई के) वह-वह अंग आनन्द से फूल उठे, (क्योंकि देवर से उसका गुप्त ‘प्रेम’ था) किन्तु सखियाँ भूल से (उस सूजन अथवा पुलक को) देह के दोदरे समझकर दवा करने लगीं। (यह देख भावज) हँस पड़ी (कि सखियाँ भी कैसी मूर्ख हैं जो मेरे प्रेम से फूले हुए अंग को फूल की चोट के दोदरे समझ रही हैं!)


चलत जु तिय हिय दई नख-रेखानु खरौंट।

सूकन देत न सरसई खोंटि-खोंटि खत खौंट॥610॥


नख-रेखानु = नहँ की छिछोर से बनी रेखाएँ! खरौंट = खरोंच, छिछोर, चमड़ा छिल जाने से बना हुआ घाव। सरसई = ताजगी, गीलापन। खत = घाव। खौंट = खोंटी, घाव के ऊपर का सूखा हुआ भाग।


चलते समय में जो प्रिया की छाती में प्रीतम ने नखक्षत की रेखा दे दी-चलते समय प्रीतम द्वारा मर्दित किये जाने पर प्रिया के कुचों में जो नहँ की छिछोर लग गई-सो उस घाव की खोंटी को (वह नायिका) खोंट-खोंटकर उसकी सरसता सूखने नहीं देती-घाव को सदा ताजा (हरा) बनाये रखती है (ताकि इससे भी प्रीतम सदा याद रहें।)


पार्‌यौ सोरु सुहाग कौ इनु बिनु हीं पिय-नेह।

उनदौंहीं अँखियाँ ककै कै अलसौंहीं देह॥611॥


सौरु पार्‌यौ = शोर या शुहरत मचा दी है, ख्याति फैला दी है। सुहाग = सौभाग्य। बिनु हीं पिय-नेह = पति प्रेम के बिना ही। उनदौंहीं = उनींदी, ऊँघती हुई। ककै = करके। कै = या। अलसौंहीं = अलसाई हुई।


ऊँघी हुई आँखें या अलसाई हुई देह बना-बनाकर इस स्त्री नेबिना प्रियतम के ही अपने सुहाग की ख्याति फैला दी है।


नोट - सखी नायिका से कह रही है कि यद्यपि तुम्हारा प्रीतम तुम्हारी सौत पर अनुरक्त नहीं, तो भी वह उनींदी आँखें, अलसाई देह आदि चेष्टाएँ दिखाकर जनाती है कि सदा नायक के साथ रति-क्रीड़ा में जगी रहती है।


बहु धन लै अहसानु कै पारो देत सराहि।

बैद-बधू हँसि भेद सौं रही नाह-मुँह चाहि॥612॥


अहसानु कै = अपनी मिहरबानी या उपकार जताकर। पारो = पारे की भस्म, कामोद्दीपक रसायन। भेद सौं = मर्म के साथ, रहस्यपूर्ण। नाह = पति। चाहि = देखना।


बहुत धन लेकर, बड़े अहसान के साथ, खूब सराहकर पारा देता है (कि इसके खाते ही तुम्हरा नपुंसकत्व दूर हो जायगा।) यह देख वैद्यजी की स्त्री रहस्यभरी हँसी हँसकर अपने (नपुंसक) पति (वैद्यजी) का मुख देखने लगी (कि आप तो स्वयं नपुंसक हैं, फिर यही दवा खाकर आप क्यों नहीं पुंसत्व प्राप्त करते? लोगों को व्यर्थ क्यों ठग रहे हैं!)


ऊँचे चितै सराहियतु गिरह कबूतरु लेतु।

झलकित दृग मुलकित बदनु तनु पुलकित किहिं हेतु॥613॥


ऊँचे = ऊपर की ओर। चितै = देखकर। मुलकित = हँसती है। पुलकित = रोमांचित होती है।


ऊपर की ओर देखकर गिरह मारते हुए कबूतर को सराह रही हो। किन्तु किसलिए तुम्हारी आँखें चमक रही हैं, मुख हँस रहा है और शरीर रोमांचित हो रहा है। (निस्संदेह तुम उस कबूतर के मालिक छैल-छबीले विलासी पर आसक्त हो, तभी तो उसके गिरहबाज कबूतर को देखते ही उसकी याद में तुम ऐसी चेष्टाएँ दिखा रही हो!)


कारे बरन डरावने कत आवत इहिं गेह।

कै वा लखी सखी लखैं लगै थरहरी देह॥614॥


बरन = रंग। कत = क्यों। गेह = घर। कै = कई बार। लखी = देखा। थरहरी लगै = थरथरी या कँपकँपी होती है।


(यह) काले रंग का डरावना मनुष्य (श्रीकृष्ण) इस घर में क्यों आता है? मैं इसे कई बार देख चुकी हूँ, और हे सखी! इसे देखते ही मेरी देह में थरथरी लग जाती है-मैं डर से थरथर काँपने लगती हूँ।


और सबै हरषी हँसती गावति भरी उछाह।

तुहीं बहू बिलखो फिरै क्यौं देवर कैं ब्याह॥615॥


उछाह = उत्साह। बिलखी = व्याकुल।


और सब स्त्रियाँ तो प्रसन्न हुई हँसती हैं और उत्साह में भरी गीत गा रही हैं। किन्तु देवर के ब्याह में, हे बहू! तू ही क्यों व्याकुल हुई फिरती हो?


नोट - देवर पर भौजाई अनुरक्त हैं। अब यह सोचकर, कि देवरानी के आते ही मुझ पर देवर का ध्यान न रहेगा, यह व्याकुल है।


रबि बंदौ कर जोरि ए सुनत स्याम के बैन।

भए हँसौहैं सबनु के अति अनखौंहैं नैन॥616॥


बंदौं = प्रणाम करो। हँसौंहैं = हास्यपूर्ण। अनखौंहैं = क्रुद्ध।


हाथ जोड़कर सूर्य को प्रणाम करो-यह श्रीकृष्ण का वचन सुनकर (चीर-हरण होने के कारण नग्न बनी हुई) सभी गोपियों की अत्यन्त क्रोधित आँखें भी हँसीली बन गईं (कि इनकी चतुराई तो देखो, इन हाथों से ढकी हुई रही-सही लज्जा भी ये लूटना चाहते हैं!)


तंत्री-नाद कबित्त-रस सरस राग रति-रंग।

अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग॥617॥


तंत्री-नाद = वीणा की झंकार। रति-रंग = प्रेम का रंग। अनबूड़े = जो नहीं डूबे। तरे = तर गये, पार हो गये।


वीणा की झंकार, कविता का रस, सरस गाना और प्रेम (अथवा रति-क्रीड़ा) के रंग में जो नहीं डूबा-तल्लीन नहीं हुआ (समझो कि) वही डूब गया-अपना जीवन नष्ट किया; और जो उसमें सर्वांग डूब गया-एकदम गर्क हो गया, (समझो कि) वही तर गया-पार हो गया-इस जीवन का यथार्थ फल पा गया।


गिरि तैं ऊँचे रसिक-मन बूड़े जहाँ हजारु।

वहै सदा पसु-नरनु कौं प्रेम-पयोधि पगारु॥618॥


पयोधि = समुद्र। पगारु = एकदम छिछला, पायान।


पर्वत से भी ऊँचे रसिकों के मन जहाँ हजारों डूब गये, वही प्रेम का समुद्र नर-पशुओं के लिए सदा छिछला ही रहता है-(इतना छिछला रहता है कि उसमें उनके पैर भी नहीं डूबते!)


चटक न छाँड़तु घटत हूँ सज्जन नेहु गँभीरु।

फीकौ परै न बरु फटै रँग्यौ चोल-रँग चीरु॥619॥


चटक = चटकीलापन। सज्जन = सदाचारी, सहृदय। बरु = भले ही। चोल = मजीठ। चीर = वस्त्र।


सज्जनों का गम्भीर प्रेम घटने पर भी अपनी चटक नहीं छोड़ता-कम हो जाने पर भी उसकी मधुरिमा नष्ट नहीं होती। जिस प्रकार मँजीठ के रंग में रँगा हुआ वस्त्र फट भले ही जाय, किन्तु फीका नहीं पड़ता।


सम्पति केस सुदेस नर नवत दुहुनि इक बानि।

विभव सतर कुच नीच नर नरम बिभव की हानि॥620॥


सम्पति = धन, वृद्धि, ऐश्वर्य। सुदेस नर = सज्जन पुरुष, भलामनस। बानि = आदत। बिभव = विभव = धन, यौवन। सतर = ऐंठ।


ऐश्वर्य पाकर-बढ़ने पर-केश और सज्जन पुरुष नरम पड़ जाते हैं, इन दोनों की एक आदत है। कुच और नीच आदमी विभव पाकर ऐंठने लगते हैं, और विभव की हानि होते ही नरम हो जाते हैं।


न ए बिससियहि लखि नए दुर्जन दुसह सुभाइ।

आँटैं परि प्राननु हरैं काँटैं लौं लगि पाइ॥621॥


बिससियहि = विश्वास कीजिए। नए = नम्र बने हुए। आँटैं परि = दाँव लगने पर, घात पाने पर। पाइ =पैर


इन दुःसह स्वभाव वाले दुर्जनों को नम्र होते देखकर विश्वास न कीजिए। घात लगने पर ये काँटे के समान पैर में लगकर प्राण ही ले लेते हैं।


जेती सम्पति कृपन कैं तेती सूमति जोर।

बढ़त जात ज्यौं-ज्यौं उरज त्यौं-त्यौं होत कठोर॥622॥


कृपन = सूम, शठ। सूमति = सूमड़ापन, शठता। उरज = कूच।


सूमड़े आदमी का धन जितना ही बढ़ता है, उतनी ही उसकी शठता भी जोर पकड़ती जाती है। (जिस प्रकार नवयौवना के) कुच ज्यों-ज्यों बढ़ते हैं, त्यों-त्यों कठोर होते जाते हैं।


नीच हियैं हुलसे रहैं गहे गेंद के पोत।

ज्यौं-ज्यौं माथै मारियत त्यौं-त्यौं ऊँचे होत॥623॥


हियैं = हृदय। हुलसे रहैं = हुलास से भरा रहता है, उत्साह से भरा हुआ। पोत = ढंग, स्वभाव।


गेंद का ढंग पकड़े हुए नीच आदमी का हृदय (अपमानित किये जाने पर भी) सदा हुलास से भरा ही रहता है। (जिस प्रकार गेंद को) ज्यों-ज्यों माथे में मारिए, त्यों-त्यों वह ऊँची ही होती है।



कैसैं छोटे नरनु तैं सरत बड़नु के काम।

मढ़यौ दमामौ जातु क्यौं कहि चूहे कैं चाम॥624॥


छोटे परनु = क्षुद्र मनुष्यों से। सरत = सिद्ध या पूरा होता है। दमामौ = नगाड़ा। चाम = चमड़ा।


ओछे आदमियों से-छुटहों से-बड़े आदमी का काम कैसे सध सकता है-कभी पूरा नहीं होता। कहो, चूहे के चाम से नगाड़ा केसे मढ़ा (छवाया) जा सकता है? कभी नहीं।


कोटि जतन कोऊ करौ परै न प्रकृतिहिं बीचु।

नल-बल जलु ऊँचै चढ़ै अंत नीच कौ नीचु॥625॥


प्रकृति = स्व्भाव। बीचु = फर्क। नल-बल = नल का जोर।


करोड़ों यत्न कोई क्यों न करे, किन्तु स्वभाव में फर्क नहीं पड़ता-स्वभाव नहीं बदलता। नल के जोर से पानी ऊपर चढ़ता है, पर अंत में वह नीच नीचे ही को बढ़ता है। (पानी का स्वाभाविक प्रवाह जब होगा तब नीचे ही की ओर)।


लटुवा लौं प्रभु कर गहैं निगुनी गुन लपटाइ।

वहै गुनी कर तैं छुटै निगुनीयै ह्वै जाइ॥626॥


लटुवा = लट्टू। लौं = समान। गुन = (1) गुण (2) रस्सी, डोरा। गुनी = (1) गुणयुक्त (2) डोरा-युक्त। निगुनी = (1) गुण-रहित (2) डोरा-रहित। यै = ही।


प्रभु के हाथ पकड़ते ही-अपनाते ही-लट्टू के समान गुणहीन में भी ‘गुण’ (‘लट्टू’ के अर्थ में ‘डोरा’) लिपट जाता है, किन्तु वही गुणी उनके हाथ से छूटते ही-ईश्वर से विमुख होते ही-पुनः गुण-हीन का गुण-हीन ही (‘लट्टू’ के अर्थ में ‘डोरा’) रह जाता है।


चलत पाइ निगुनी गुनी धनु मनि मुत्तिय माल।

भेंट होत जयसाहि सौं भागु चाहियतु भाल॥627॥


पाइ = पाकर। मुत्तिय = मुक्ता, मोती। जयसाहि = बिहारीलाल के आश्रयदाता जयपुर-नरेश महाराज जयसिंह। भाल = अच्छा, कपाल।


निगुणी और गुणी-सभी-वहाँ से धन, मणि और मुक्ता की माला पाकर चलते हैं। हाँ, जयसिंह से भेंट होने के लिए भाग्य अच्छा होना चाहिए। (उसे भेंट ही होना कठिन है, यदि भेंट हो गई, तो फिर धन का क्या पूछना।)


यौं दल काढ़े बलख तैं तैं जयसाहि भुवाल।

उदर अघासुर कैं परैं ज्यौं हरि गाइ गुवाल॥628॥


दल = सेना। बलख = अफगानिस्तान का एक प्रान्त। भुवाल = भूपाल, राजा। उदर = पेट। अघासुर = कंस का साथी एक राक्षस, जो सर्प के रूप में आकर व्रज के बहुत-से ग्वालों और गौओं को निगल गया था।


हे जयसिंह महाराज, बलख देश से (शत्रुओं के बीच में फँसी हुई) अपनी सेना को आपने यों निकाल लिया, जिस प्रकार अघासुर के पेट में पड़ी हुई गौओं और ग्वालों को श्रीकृष्ण ने (निकाल लिया था)।


अनी बड़ी उमड़ी लखैं असिबाहक भट भूप

मंगलु करि मान्यौ हियैं भो मुँहु मंगलु-रूप॥629॥


अनी = सेना। असिबाहक = तलवर चलाने वाला, तलवारधारी। भट = शूर-वीर। मगलु = कुशल, आनन्द। मंगलु = मंगलग्रह, जिसका रंग लाल माना गया है। रूप = सदृश।


(शत्रुओं की) बड़ी उमड़ी सेना को देखकर तलवारधारी शूर-वीर राजा ने उसे हृदय में मंगल के समान जाना-आनन्ददायक समझा-और उनका मुँह (आनन्द और क्रोध से) मंगल (ग्रह) के समान (लाल) हो गया।


रहति न रन जयसाहि-मुख लखि लाखनु की फौज।

जाँचि निराखरऊँ चलैं लै लाखनु की मौज॥630॥


रन = युद्ध-भूमि। लखि = देखकर। लाखनु = लाखों। निराखरऊँ = गिरक्षर, वज्र-मूर्ख। मौज = बकसीस।


जयसिंह का मुख देखकर (शत्रुओं की) लाखों की फौज भी युद्ध-भूमि में नहीं ठहर सकती। (यों ही) उनसे याचना करके-दान माँगकर-निरक्षर (वज्र-मूर्ख) भी लाखों की बकसीस ले जाता है।


प्रतिबिम्बित जयसाहि-दुति दीपति दरपन-धाम।

सबु जगु जीतन कौं कर्‌यौ काय-व्यूह मनु काम॥631॥


दुति = द्युति, चमक। दीपति = जगमगाती है। दरपन-धाम = आइने का बना हुआ घर, शीश-महल। काय-व्यूह शरीर की सैन्य रचना।


शीश-महल में राजा जयसिंह की द्युति प्रतिबिम्बित होकर जगमगा रही है-जिधर देखो उधर उन्हीं का रूप दीख पड़ता है-मानो कामदेव ने समूचे संसार को जीतने के लिए काय-व्यूह बनाया हो-अनेक रूप धारण किये हों।


नोट - जयपुर में महाराज जयसिंह का वह शीश-महल अब तक वर्त्तमान है। उसकी दीवारें, छत, फर्श सब कुछ शीशे का बना है। उसमें खड़े हुए एक मनुष्य के अनेक प्रतिबिम्ब चारों ओर देख पड़ते हैं।


दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न बढ़ै दुखु दंदु।

अधिक अँधेरौ जग करत मिलि मावस रवि-चंदु॥632॥


दुसह = असहनीय, (यहाँ) अत्यन्त क्षमताशील। दुराज = दो राजा। दन्दु = द्वन्द = दुःख। मावस = अमावस।


अत्यन्त क्षमताशील दो राजाओं के होने से प्रजा के दुःख क्यों न अत्यन्त बढ़ जायँ? अमावस के दिन सूर्य और चन्द्रमा (एक ही राशि पर) मिलकर संसार में अधिक अँधेरा कर देते हैं।


नोट - ज्योतिष के अनुसर अमावस के दिन सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि पर होते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है।


बसैबुराई जासु तन ताही कौ सनमानु।

भलौ भलौ कहि छोड़ियै खोटैं ग्रह जपु दानु॥633॥


बुराई = अपकार। सनमनु = आदर। खोटैं = बुरे।


जिसके शरीर में बुराई बसती है-जो बुराई करता है, उसी का सम्मान होता है। (देखिए) भले ग्रहों (चन्द्र, बुध आदि) को तो भला कहकर छोड़ देते हैं-और बुरे ग्रहों (शनि, मंगल आदि) के लिए जप और दान किया जाता है।


कहै यहै स्रुति सुम्रत्यौ यहै सयाने लोग।

तीन दबावत निसक हीं पातक राजा रोग॥634॥


सु्रति = श्रुति, वेद। सुम्रत्यौ = स्मृति। सयाने = चतुर। दबावत = सताते हैं। निसक = निःशक्त, निर्बल, कमजोर। पातक = पाप।


(सभी) श्रुतियाँ और स्मृतियाँ यही कहती हैं, और चतुर लोग भी यही (कहते हैं) कि पाप, राजा और रोग-ये तीन-कमजोर ही को दबाते हैं-दुःख देते हैं।


बड़े न हूजै गुननु बिनु बिरद बड़ाई पाइ।

कहत धतूरे सौं कनकु गहनौ गढ़यौ न जाइ॥635॥


हूजै = हो सकते। बिरद = बाना। कनकु (1) सोना (2) धतूरा।


बड़ाई का बाना पा लेने से-ऊँचा नाम रख लेने से-गुण के बिना बड़े हो नहीं सकते। ‘कनक’ कहे जाने पर भी-‘सोने’ का अर्थवाची (कनक) नाम होने पर भी धतूरे से (सोने के समान) गहने नहीं गढ़ जाते।


गुनी गुनी सब कैं कहैं निगुनी गुनी न होतु।

सुन्यौ कहूँ तरु अरक तैं अरक समान उदातु॥636॥


अरक = (1) अकवन = (2) सूर्य। उदोतु = ज्योति, प्रकाश।


सब किसी के ‘गुणी-गुणी’ कहकर पुकारने से-गुणहीन (कभी) गुणी नहीं हो सकता। (सब लोग ‘अकवन’ को ‘अर्क’ कहते हैं, और ‘अर्क’ ‘सूर्य’ को भी कहते हैं) सो एक नाम-(परस्पर पर्यायवाचक होने पर भी) ‘अकवन’ के पेड़ से क्या कभी ‘सूर्य’ के समान ज्योति निकलते सुना है?


नाह गरजि नाहर-गरज बोलु सुनायौ टेरि।

फँसी फौज मैं बन्दि बिच हँसी सबनु तनु हेरि॥637॥


नाह = पति। गरजि = गरजकर। नाहर-गरज = सिंह का गर्जन। टेरि बोलु सुनायौ = जोर से बोल सुनाया। बन्दि = घेरा। हेरि = देखकर।


सिह के गर्जन के समान गरजकर पति (श्रीकृष्ण) ने जोर से (अपना) बोल सुना दिया। (उसे सुनते ही) फौज के घेरे में फँसी हुई (रुक्मिणी) सब लोगों के शरीर की ओर देखकर हँस पड़ी (कि अब तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।)


संगति सुमति न पावहीं परे कुमति कैं धंध।

राखौ मेलि कपूर मैं हींग न होइ सुगंध॥638॥


सुमति = सुन्दर मति, सुबुद्धि। कुमति = दुष्ट बुद्धि। धंध = जंजाल, फेर। मेलि = मिलाकर।


जो कुमति के धंधे में पड़ा रहता है-जिसे खराब काम करने की आदत सी लग जाती है, वह सत्संगति से भी सुमति नहीं पाता-नहीं सुधरता। कपूर में मिलाकर भले ही रक्खो, किन्तु हींग सुगंधित नहीं हो सकती।


पर-तिय-दोषु पुरान सुनि लखी मुलकि सुखदानि।

कसु करि राखी मिस्र हूँ मुँह आई मुसकानि॥639॥


पर-तिय-दोषु = पर स्त्री-गमन का दोष। मुलकि = हँसकर, मुस्कुराकर। मिस्र = कथा बाँचने वाले पौराणिक या व्यास।


पर-स्त्री प्रसंग का दोष पुराण में सुनकर उस सुखदायिनी स्त्री ने (जो पौराणिक जी की परकीया थी, और कथा सुनने आई थी) हँसकर (पौराणिक जी की ओर) देखा (कि दूसरों को तो उपदेश देते हो, और स्वयं मुझसे फँसे हो!) और, पौराणिक मिश्र जी ने भी (अपनी प्रेमिका की हँसी देखकर) अपने मुँह तक आई मुस्कुराहट को बलपूर्वक रोक रक्खा (कि कहीं लोग ताड़ न जायँ!)


सब हँसत करतारि दै नागरता कै नाँव।

गयौ गरबु गुन कौ सरबु गएँ गँवारैं गाँव॥640॥


(जहाँ) नागरिकता के नाम पर-नागरिक प्रवीणता के नाम पर-सब लोग ताली बजा-बजाकर हँसते हैं, (उस) गँवारों के गाँव में बसने से गुण का सारा गर्व जाता रहा!


फिरि-फिरि बिलखी ह्वै लखति फिरि-फिरि लेति उसाँसु।

साँई सिर कच सेत लौं बीत्यौ चुनति कपासु॥641॥


बिलखी = व्याकुल। साँई = पति। कच = केश, बाल। चुनति = चुनती या बीनती है। बीत्यौ = बीती हुई, उजड़ी हुई।


बार-बार व्याकुल होकर देखती है, और बार-बार लम्बी साँसें लेती है-गरम आह भरती है! यों उजड़ी हुई कपास को पति के सिर के उजले केश के समान चुनती है। (कपास के उजड़े हुए खेत की कपास चुनने में उसे उतना ही कष्ट होता है, जितना वृद्ध पति के सिर के उजले केश चुनने में नवयुवती पत्नी को होता है)


नोट - कपास का खेत नायिका के गुप्त-मिलन का स्थान था। उसके उजड़ जाने पर उसे दुःख है। उजले केश के विषय में ‘केशव’ का कहना है-”केसब केसनि अस करी, जस अरिहू न कराहि; चन्द्रबदनि मृगलोचनी, बाबा कहि-कहि जाहिं।“


नर की अरु नल-नीर की गति एकै करि जोइ।

जेतौ नीचौ ह्वै चलै तेतौ ऊँचौ होइ॥642॥


नल-नीर = नल का पाी। एकै करि = एक ही समान। गति = चाल। जोइ =देखी जाती है।


आदमी की और नल के पानी की एक ही गति दीख पड़ती है। वे जितने ही नीचे होकर चलते हैं उतने ही ऊँचे होते हैं। (आदमी जितना ही नम्र होकर चलेगा, वह उतना ही अधिक उन्नति करेगा, और नल का पानी जितने नीचे से आयगा, उतना ही ऊपर चढ़ेगा।)


बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु मन-सरोज बढ़ि जाइ।

घटत-घटत सु न फिरि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ॥643॥


सलिलु = पानी। सरोज = कमल। बरु = भले ही।


धन-रूपी जल के बढ़ते जाने से मन-रूपी कमल भी बढ़ता जाता है। किन्तु (जल के) घटते जाने पर वह (कमल) पुनः नहीं घटता, भले ही जड़ से कुम्हिला जाय। (धनी का मन गरीब होने पर भी वैसा ही उदार रह जाता है।)


जो चाहौ चटक न घटै मैलो होइ न मित्त।

रज राजस न छुवाइयै नेहु चीकनैं चित्त॥644॥


चटक = चटकीलापन। मैलो = मलिन। रज = धूल। राजस = धन-वित्त। नेहु = (1) प्रेम (2) घी, तेल।


हे मित्र, जो चाहते हो कि (प्रेम या मन का) चटकीलापन न घटे, और वह मलिन न हो, तो प्रेम (रूपी तेल) से चिकने बने हुए चित्त में रुपये-पैसे के व्यवहार-रूपी धूल को न छुलाओ।


अति अगाधु अति औथरौ नदी कूप सरु बाइ।

सो ताकौ सागरु जहाँ जाकी प्यास बुझाइ॥645॥


अगाधु = अथाह। औथरौ = उछले, छिछले। कूप = कुँआ। सरु = तालाब। बाइ = बावड़ी, वापी, सरसी। सागरु = समुद्र।


अत्यन्त अथाह और अत्यन्त उथली (कितनी ही) नदियाँ, कुँए, तालाब और बावड़ियाँ हैं। किन्तु जहाँ जिसकी प्यास बुझती है, उसके लिए वही समुद्र है।


मीत न नीति गलीतु ह्वै जौ धरियैं धनु जोरि।

खाऐं खरचैं जौ जुरै तौ जोरियै करोरि॥646॥


नीति न = नीति नहीं, उचित नहीं। गलीतु ह्वै = गल-पचकर, अत्यन्त दुःख सहकर। जोरि = जोड़कर, इकट्ठा कर।


हे मित्र, यह उचित नहीं है कि गल-पचकर-अत्यन्त दुःख सहकर-धन इकट्ठा कर रखिए। (हाँ, अच्छी तरह) खाने और खरचने पर जो इकट्ठा हो सके, तो करोड़ों रुपये जोड़िए-इकट्ठा कीजिए।


टटकी धोई धोवती चटकीली मुख-जोति।

लसति रसोई कैं बगर जगरमगर दुति होति॥647॥


टटकी घोई = तुरत की धुली हुई। धोवती = धोती, साड़ी। बगर = घर। जगरमगर = जगमग। दुति = ज्योति।


तुरत की धोई हुई साडी और मुख की चटकीली चमक वाली नायिका रसोई के घर में शोभा पा रही है, जिससे जगमग ज्योति फैल रही है।


सोहतु संगु समान सौं यहै कहै सबु लोग।

पान-पीक ओठनु बनै काजर नैननु जोगु॥648॥


समान = बराबरी का। बनै = बन आती है, शोभती है।


‘बराबरी का संग (सम्बन्ध) ही शोभता है,’ सब लोग यही कहते हैं। जैसे, (लाल) ओठों में पान की (लाल) पाक बन आती है, और (काली) आँखों के योग्य (काला) काजर समझा जाता है।


चित पित-मारक जोगु गनि भयौ भयैं सुत सोगु।

फिरि हुलस्यौ जिय जाइसी समुझैं जारज जागु॥649॥


पित-मारक = पितृहन्ता, पिताघातक। सोगु = शोक। जाइसे = ज्योतिषी। जारज = दोगला, जो अपने बाप से न जन्मे।


चित्त में पितृघातक योग विचारकर-यह जानकर कि इस नक्षत्र में पुत्र उत्पन्न होने से पिता की मृत्यु होती है-अपना पुत्र होने पर भी (ज्योतिषी जी को) शोक हुआ। किन्तु पुनः जारज-योग समझकर-यह समझकर कि इस नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला लड़का दोगला होता है-ज्योतिषी जी हृदय में प्रसन्न हुए (कि यह मेरा पुत्र तो है नहीं, फिर मैं कैसे मरूँगा? मरेंगे तो वे, जिनसे मेरी स्त्री का गुप्त सम्बन्ध था!)


अरे परेखौ को करै तुँहीं बिलोकि बिचारि।

किहिं नर किहिं सर राखियै खरैं बढ़ैं परि पारि॥650॥


परेखौ = परीक्षा। सर = तालाब। पारि = (1) बाँध (2) मर्यादा।


अजी, कौन परीक्षा करे? तुम्हीं विचार कर देखो, किस पुरुष ने और किस तालाब ने अत्यन्त बढ़ने पर अपनी मर्यादा-बाँध-की रक्षा की है? (तालाब में अत्यन्त जल होगा, वह उबल पड़ेगा, और आदमी को भी अधिक धन होगा, तो वह इतराता चलेगा।)


कनकु कनक तैं सौगुनौ मादकता अधिकाइ।

उहिं खाएँ बौराइ इहिं पाऐं हीं बौराइ॥651॥


कनक = (1) धतूरा (2) सोना। मादकता = नशा। बौराई = बौराता है, बावला या पगला हो जाता है।


सोने में धतूरे से सौगुना अधिक नशा है! क्योंकि उसे (धतूरे को) खाने से (मनुष्य बौराता है) और इसे (सोने को केवल) पाने (मात्रा) से ही बौराता है।


नोट - किन्तु मेरा कहना है कि ‘कनक-कनक से सौगुनौ कनक-बरनि तन ताय। वा खाये वा पाय ते या देखे बौराय॥’


ओठु उचै हाँसी भरी दृग भौंहन की चाल।

मो मनु कहा न पी लियै पियत तमाकू लाल॥652॥


उचै = ऊँचै करके। दृग = आँख। मो = मेरा।


ओठों को ऊँचा कर और आँखों तथा भौंहों की चाल को हँसीयुक्त बनाकर तमाखू पीते हुए प्रीतम क्या मेरे मन को नहीं पी गये? (जरूर पी गये! तभी तो ‘बे-मन’ हुई घूमती हो!!)


बुरो बुराई जौ तजै तौ चितु खरौ सकातु।

ज्यौं निकलंकु मयंकु लखि गनैं लोग उतपातु॥653॥


सकातु = डरता है। मयंकु = चन्द्रमा। उतपातु = उपद्रव।


बुरे आदमी अगर अपनी बुराई तज देते हैं, तो मन बहुत डरता है-चित्त में भय उत्पन्न होता है। जिस प्रकार निष्कलंक चन्द्रमा को देखकर लोग उत्पात की आशंका करते हैं।


नोट - ज्योतिष में लिखा है कि यदि चन्द्रमा का काला धब्बा नष्ट हो जाय, तो संसार में हिम-वर्षा होगी।


भाँवरि अनभाँवरि भरे करौ कोरि बकवादु।

अपनी-अपनी भाँति कौ छुटै न सहजु सवादु॥654॥


भाँवरि भरे = चक्कर लगाओ। भाँति = ढंग। सहजु = स्वाभाविक। सवादु = रुचि, प्रवृत्ति।


(निगरानी करने की गरज से चाहे) उनके चारों ओर चक्कर लगाओ या न लगाओ, या उनसे करोड़ों प्रकार के बकवाद करो; किन्तु अपने-अपने ढंग की स्वाभाविक प्रवृत्ति छूट नहीं सकती-(वे उस ओर जायँगे ही)।


नोट - नायक किसी दूसरी स्त्री पर आसक्त है। नायिका उसकी खूब निगरानी करती है। उससे लड़ती-झगड़ती है। इस पर सखी का कथन।


जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीति बहार।

अब अलि रही गुलाब मैं अपत कँटीली डार॥655॥


कुसुम = फूल। सु = वह। बहार = (1) छटा (2) वसन्त। अलि = भौंरा। अपत = पत्र-रहित। कँटीली डार = काँटों से भरी डाल।


जिन दिनों तुमने वे (गुलाब के) फूल देखे थे, वह बहर तो बीत गई-वह वसन्त तो चला गया। अरे भौंरे! अब तो गुलाब में पत्र-रहित कँटीली डालियाँ ही रह गई हैं।


इहीं आस अटक्यौ रहतु अलि गुलाब कैं मूल।

ह्वैहैं फेरि बसंत-रितु इन डारनु वे फूल॥656॥


अटक्यौ रहतु = टिका या अड़ा हुआ है। मूल = जड़। ह्वैहैं = होंगे।


इसी आशा से भौंरा गुलाब की जड़ में अटका हुआ है-उसकी ‘अपत कँटीली डार’ को से रहा है-कि पुनः वसन्त ऋतु में इन डालियों में वे ही (सुन्दर सुगन्धित) फूल होंगे।


नोट - यह दोहा पिछले दोहे के जवाब में लिखा हुआ मालूम पड़ता है। कैसा लासानी सवाल-जवाब है!


सरस कुसुम मँडरातु अलि न झुकि झपटि लपटातु।

दरसत अति सुकुमारु तनु परसत मन न पत्यातु॥657॥


मँड़रातु = मँड़ाता है, ऊपर चक्कर काटता है। दरसत = देखकर। मन न पत्यातु = मन नहीं पतियाता, तबीयत नहीं कबूल करती।


रसीले फूल पर भौंरा चक्कर काट रहा है, किन्तु झुककर और झपटकर वह नहीं लिपटता-झटपट उस फूल का आलिंगन नहीं करता, क्यांकि उस फूल का अत्यन्त सुकुमार गात देखकर स्पर्श करने को उसका मन नहीं पतियाता-उसकी तबीयत नहीं कबूल करती-(डर है कि कहीं स्पर्श करने से उसका सौकुमार्यपूर्ण) सौंदर्य नष्ट न हो जाय।


नोट - इस दोहे के पहले चरण को प्रश्न और दूसरे चरण को उसका उत्तर मानकर पढ़ने से और भी आनन्द आयेगा। फूलों पर भौंरे को मँडराते देखकर कोई पूछता है-”रसमय पुष्प से भ्रमर क्यों नहीं लिपटता?“ कोई रसिक उत्तर देता है-”पुष्प का सुकुमार गात देख चिपटने से हिचकता है।“


बहकि बड़ाई आपनी कत राँचति मति भूल।

बिनु मधुकर कैं हियैं गड़ै न गुड़हर फूल॥658॥


राँचति = प्रसन्न होती है। मधु = रस। गुड़हर = ओड़हुल।


हे गड़हर के फूल! अपनी बड़ाई में बहककर कितना प्रसन्न हो रहे हो? भूलो मत। बिना मधु के होने से (अत्यन्त सुन्दर होने पर भी) भौंरे के हृदय में नहीं गड़ते-उसे पसन्द नहीं पड़ते।


नोट - रूपगर्विता नायिका से सखी कहती है कि केवल सुन्दर रूप से कुछ न होगा, गुण (प्रेम की सुगन्ध) ग्रहण कर, तभी नायक वश में होगा।


जदपि पुराने बक तऊ सरबर निपट कुचाल।

नए भए तु कहा भयौ ए मनहरन मराल॥659॥


बक = बगला। तऊ = तो भी। सरबर = सरोवर। निपट = एकदम। कुचाल = खराब चाल।


ऐ सरोवर! यह एकदम खराब चाल है (इसे छोड़ दो)। यद्यपि वे (बगले) पुराने साथी हैं, तो भी आखिर हैं तो वे बगले ही। और (इन हंसों के) नये होने ही से क्या हुआ? ये हैं मन को मोहित करने वाले हंस। (अतः बगले को छोड़ हंस की संगति करो-परिचित अपरिचित का खयाल छोड़ दो।)


अरे हंस या नगर मैं जैयो आपु बिचारि।

कागनि सौं जिन प्रीति करि कोकिल दई बिड़ारि॥660॥


बिड़ारि = खदेड़ देना, भगा देना।


अरे हंस! इस नगर में तू सोच-विचारकर जाना, (क्योंकि इस गाँव में वे ही लोग रहते हैं) जिन्होंने कागों से प्रीति करके कोयल को खदेड़ दिया था।


को कहि सकै बड़ेनु सौं लखैं बड़ी त्यौं भूल।

दीने दई गुलाब की इन डारनु वे फूल॥661॥


भूल = गलती। दीने = दिया है। दई = दैव, विधाता।


(बड़ो की) बड़ी भी भूल देखकर बड़ों से कौन कह सकता है? विधाता ने गुलाब की इन (कँटीली) डालियों में वे (सुन्दर) फूल दिये हैं (फिर भी उनसे कौन कहने जाता है कि यह आपकी भूल है!)


वे न इहाँ नागर बढ़ी जिन आदर तो आब।

फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गँवई गाँव गुलाब॥662॥


नागर = नगर के रहने वाले, चतुर, रसिक। आब = शोभा, रौनक। गँवई गाँव = ठेठ देहात।


यहाँ (देहात में) वे रसिक ही नहीं हैं, जो तेरी शोभा और आदर को बढ़ाते। ऐ गुलाब, इस ठेठ देहात में फूलकर भी तुम बिना फूले हुए हो गये-तुम्हारा फूलना न फूलना बराबर हो गया।


कर लैं सूँघि सराहिहूँ रहैं सबै गहि मौनु।

गंधी अंध गुलाब कौ गँवई गाहकु कौनु॥663॥


कर = हाथ। गंधी = इत्र बेचनेवाला। गँवई देहात।


हाथ में लेकर सूँघकर और प्रशंसा करके भी सब चुप रह जाते हैं। अरे अंधा इत्रफरोश, इस गुलाब के इत्र का इस गँवई में कौन गाहक होगा?


को छूट्यौ इहिं जाल परि कत कुरंग अकुलात।

ज्यौं-ज्यौं सुरझि भज्यौ चहत त्यौं-त्यौं उरझत जात॥664॥


कत = क्यों। कुरंग = हिरन। भज्यौ = भागना।


इस जाल में पड़कर कौन छूटा? फिर, अरे हिरन! तू क्यों अकुलाता है? देख, ज्यों-ज्यों तू सुलझकर भागना चाहता है, त्यों-त्यों (इस उछल-कूद से) उलझता जाता है।


पटु पाँखै भखु काँकरै सपर परेई संग।

सुखी परेवा पहुमि मैं एकै तुँहीं बिहंग॥665॥


पटु = वस्त्र। भखु = भक्ष्य, भोजन। परेई- ‘परेवा’ का स्त्रीलिंग ‘परेई’। बिहंग = पक्षी। सपर = पंखयुक्त, परिवार के साथ।


पंख ही तुम्हारा वस्त्र है, (सर्वत्र सुलभ) कंकड़ ही तुम्हारा भोजन है, और पंख वा परिवार (बाल-बच्चों) के साथ (अपनी प्राणेश्वरी) परेई का संग है-कभी वियोग नहीं होता। सो, हे परेवा, संसार में तुम्हीं एक सुखी पक्षी हो-तुम्हें यथार्थ में सुखी कह सकते हैं।


नोट - इस दोहे में बिहारी ने सुखी जीवन का एक चित्र-सा खींच दिया है। भोजन-वस्त्र की सुलभता और बाल-बच्चों के साथ प्राणप्यारी का सहवास-इसके आगे सुखी बनने के लिए और चाहिए ही क्या? किन्तु आजकल के नवयुवक कहेंगे-‘स्वाधीनता’। सो ‘बिहंग’ शब्द से ‘स्वाधीनता’ का भाव स्पष्ट व्यक्त होता है। ‘बिहंग’ का अर्थ है ‘आकाश में (स्वच्छन्द) विचरण करने वाला’-अतएव-‘स्वतन्त्र’।


स्वारथु सुकृत न स्रमु बृथा देखि बिहंग बिचारि।

बाज पराऐं पानि परि तूँ पच्छीनु न मारि॥666॥


सुकृत = पुण्यकर्म। स्रमु = श्रम, मिहनत। बिहंग = आकाश में उड़नेवाला, पक्षी। पानि । हाथ


न तो इसमें तेरा कोई स्वार्थ है (क्योंकि मांस खुद बहेलिया ले लेगा), और न कोई पुण्य-कार्य है (क्योंकि यह हत्यारापन है), इस प्रकार यह परिश्रम व्यर्थ है, ऐ (उन्मुक्त आकाश में स्वच्छन्द विचरण करने वाला) पक्षी! विचार कर देख। अरे बाज! दूसरे के हाथ पर बैठकर (दूसरे के बहकावे में आकर) पक्षियों को (स्वजातियों को) मत मार।


दिन दस आदरू पाइकै करि लै आपु बखानु।

जौ लौं काग सराध-पाु तौ लौं तौ सनमानु॥667॥


बखानु = बड़ाई। लौं = तक। सराघ-पखु = श्राद्ध पक्ष या श्राद्ध का पखवारा। सनमानु = सम्मान, आदर।


दो-चार-दस दिन (कुछ दिन) आदर पाकर अपनी बड़ाई कर ले। अरे काग! जब तक श्राद्ध का पखवारा है, तभी तक तेरा आदर भी है।


नोट - श्राद्ध में काग को बलि का भाग दिया जाता है।


मरत प्यास पिंजरा पर्‌यौ सुआ समैं कैं फेर।

आदरु दै दै बोलियतु बाइसु बलि की बेर॥668॥


सुआ = सुग्गा, तोता। बाइसु = कोवा। बलि = श्राद्ध के अन्न में से निकाला हुआ कौवे का भाग। बेर = समय।


समय के फेर से (भाग्य-चक्र के प्रभाव से) सुग्गा पिंजड़े में पड़ा प्यासा मर रहा है, और (श्राद्ध-पक्ष होने के कारण) बलि देने के समय काग को आदर के साथ बुला रहे हैं-(कैदवन्द सुग्गे का प्यासों मरना और स्वच्छन्द कौवे का सादर भोजनार्थ बुलाया जाना-सचमुच किस्मत का खेल है!)


जाकैं एकाएकहूँ जग ब्यौसाइ न कोइ।

सो निदाध्घ फूलै फरै आकु डहडहौ होइ॥669॥


एकाएकहूँ = अकेला भी, एकाकी भी। ब्यौसाइ = उपाय, यत्न। निदाघ = ग्रीष्म-ऋतु। आकु = अर्क = अकवन। डहडहौ = लहलहा, हरा-भरा।


जिसके लिए संसार में कोई अकेला मनुष्य भी उपाय करने वाला नहीं है-जिसे सींचने का कोई उद्योग नहीं किया जाता-वही ‘अकवन’ ग्रीष्म-ऋतु में भी हरा-भरा रहता है और फूलता-फलता है।


नहि पावसु ऋतुराज यह तजि तरबर चित भूल।

अपतु भऐं बिनु पाइहै क्यों नव दल फल फूल॥670॥


पावसु = वर्षा-ऋतु। ऋतुराज = वसन्त-ऋतु।


यह पावस नहीं (जिसमें सब वृक्ष स्वभावतः हरे-भरे बने रहते हैं, वसन्त है। हे वृक्ष, मन की इस भूल को छोड़ दो। इस ऋतु में बिना पत्र-रहित हुए तुम कैसे नये पत्ते और फल-फूल प्राप्त करोगे?) वसन्त में हरा-भरा होने से पहले-पतझड़ के कारण-पत्ररहित होना ही पड़ेगा।


सीतलता रु सुबास की घटै न महिमा मूरु।

पीनसवारैं ज्यौं तज्यौ सोरा जानि कपूरु॥671॥


रु = अरु = और। मूरु = मूल्य, मोल। पीनसवारैं = पीनस रोग (नकड़ा) का रोगी, जिसकी घ्राणशक्ति नष्ट हो जाती है, और जिसे सुगंध-दुर्गंध कुछ नहीं जान पड़ती। सोरा = नमक के रूप में एक खारा पदार्थ।


पीनस-रोग वाले ने जैसे कपूर को सोरा जानकर छोड़ दिया, उसे उसकी शीतलता और सुगंध की महिमा और उससे उसकी शीतलता और सुगंध की महिमा और न उसका मोल ही घटा। (कोई मूर्ख यदि गुणी का निरादर करे, तो उससे उस गुणी का गुण नहीं घट जाता और न उसका सम्मान ही कम होता है।)


गहै न नेकौ गुन गरबु हँसौ सकल संसारु।

कुच-उचपद लालच रहै गरैं परैहूँ हारु॥672॥


गुन गरबु = गुण का घमंड। गर परैहूँ = गले पड़ने पर भी (इस मुहाविरे का अर्थ है = ‘बिना इच्छा के ही किसी के पीछे पड़े रहना’)। हार = (1) माला (2) पराजय


अपने गुण का उसे जरा भी घमंड नहीं, सारा संसार उसे (‘हार’-‘हार’ कहकर) हँसता है, तो भी वह ‘हार’ कुच-रूपी ऊँचे पद के लोभ में पड़कर (उस नवयौवना के) गले में पड़ा ही रहता है। (उपहास सहकर भी लोग ऊँचे ओहदे को नहीं छोड़ते।)


मूड़ चढ़ाऐंऊ पर्‌यौ रहै पीठि कच-भारु।

रहै गरैं परि राखिबौ तऊ हियैं पर हारु॥673॥


मूड़ चढ़ाना = सिर चढ़ाना, अधिक मान करना। कच-भार = केश-कुच्छ, केश-जाल, बालों का समूह। गले पड़ना = देखो 672 वाँ दोहा। हारु = माला।


सिर पर चढ़ाये रखने पर भी केश-गुच्छ पीठ पर ही पड़े रहते हैं-(आदर दिखलाने पर भी नीच का निरादर ही होता है), और यद्यपि गले पड़कर रहती है, तो भी माला हृदय ही पर रक्खी जाती है-(निरादृत होने पर भी सज्जन का सम्मान ही होता है)।


नोट - इस दोहे में बिहारीलाल ने मुहाविरे का अच्छा प्रयोग दिखलाया है। कविवर ‘रसलीन’ भी मुहाविरों के प्रयोग में बड़े कुशल हैं। ‘वेणी’ पर कैसी मुहाविरेदार भाषा में मजमून बाँधा है-


भनत न कैसेहू बनै, या बेनी के दाय!

तुव पीछे जे जगत के पीछे परे बनाय॥


जो सिर धरि महिमा मही लहियति राजा-राइ।

प्रगटत जड़ता अपनियै मुकुट पहिरियतु पाइ॥674॥


महिमा = बड़ाई। मही = भूमंडल (संसर) में जड़ता = मूर्खता।


जिसे सिर पर रखकर बड़े-बड़े राजे-महाराजे संसार में बड़ाई पाते हैं, उसी मुकुट को पाँव में पहनकर (मूर्ख मनुष्य) अपनी जड़ता ही प्रकट करता है। (आदरणीय का तिरस्कार करना ही मूर्खता है।)


चले जाइ ह्याँ को करैं हाथिनु कौ व्यापार।

नहि जानतु इहिं पुर बसैं धोबी ओड़ कुम्हार॥675॥


ह्याँ = यहाँ। पुर = गाँव। ओड़ = बेलदार।


चले जाओ, यहाँ हाथी का व्यापार कौन करता है? नहीं जानते कि इस गाँव में केवल धोबी, बेलदार और कुम्हर बसते हैं (जो गदहे पालते हैं)?


नोट - पश्चिम में कुम्हार और बेलदार भी गदहे पालते हैं।


करि फुलेल कौ आचमन मीठौ कहत सराहि।

रे गंधी मति-अंध तूँ अतर दिखावत काहि॥676॥


फुलेल = फूलों के रस से बना तेल। आचमन करि = पीकर। गंधी = इत्र बेचनेवाला अत्तार। मति अंध = बेवकूफ। अतर = इत्र।


(यहाँ तो) फुलेल का आचमन कर उसे सराहता और मीठा कहता है! रे बेवकूफ इत्रफरोश, तू यहाँ किसको इत्र दिखा रहा है? (वह तो यह भी नहीं जानता कि फुलेल लगाने की चीज है या पीने की, फिर यह इत्र की कद्र क्या जानेगा?)


विषम वृषादित की तृषा जिये मतीरनु सोधि।

अमित अपार अगाध जलु मारौ मूढ़ पयोधि॥677॥


विषम = प्रचंड। वृषादित = (वृषा+आदित्य) वृष-राशि का सूर्य, जो अतिशय प्रचंड होता है; जेठ की तीखी धूप। तृषा = प्यास। मतीरनु = तरबूजों। सोधि = खोजकर। अगाध = अथाह। मारौ = मारवाड़ (राजपुताने की मरुभूमि)। मूढ़ = मूर्ख (यहाँ ‘बेकार’)। पयोधि = समुद्र।


जेठ की कड़ी धूप की प्यास से (व्याकुल होने पर) तरबूजों को खोजकर प्राण बचाया। इस मारवाड़ की मरुभूमि में अत्यन्त विस्तृत और अगाध जल वाला समुद्र किस काम का?-बेकार है।


जम-करि-मुँह तरहरि पर्‌यौ इहिं धरहरि चित लाउ।

विषय-तृषा परिहरि अजौं नरहरि के गुन गाउ॥678॥


करि = हाथी। तरहरी = तलहटी, नीचे। हरि = (1) ईश्वर (2) सिंह। तृषा = तृष्णा, वासना। परिहरि = छोड़कर। अजौं = अब भी। नरहरि = नृसिंह भगवान। धरहरि = निश्चय।


यम-रूपी हाथी के मुख के नीचे पड़े हो, यह समझकर निश्चय (सिंह-रूपी) हरि में चित्त लगाओ-और, विषय की तृष्णा छोड़कर अब भी उस नृसिंह के गुण गाओ।


जगतु जनायौ जिहिं सकलु सो हरि जान्यौ नाहिं।

ज्यौं आँखिनु सबु देखियै आँखि न देखी जाहिं॥679॥


जिहिं = जिसने। ज्यौं = जैसे। न देखी जाहिं = नहीं दीख पड़तीं।


जिसने सारे संसर को जनाया-जिसने तुम्हें सारे संसार का ज्ञन दिया, उसी ईश्वर को तुमने नहीं जाना-नहीं पहचाना, (ठीक उसी प्रकार) जिस प्रकार अपनी आँखों से और सब वस्तुएँ तो देखी जाती हैं, पर स्वयं (अपनी ही) आँखें नहीं दीख पडतीं।


जप माला छापैं तिलक सरै न एकौ कामु।

मन काँचै नाचै बृथा साँचै राँचै रामु॥680॥


छापे = राम नाम की छाप, जिसे साधु-सन्त अपने शरीर और वस्त्र में लगाते हैं। सरै = सधता है। कामु = कार्य, मनस्कामना। साँचै = सचाई (सच्ची लगन) से ही। राँचै = रीझते हैं।


जप (मंत्र-पाठ), माला (सुमिरन), छापे या तिलक से एक भी काम नहीं सध सकता-कोई भी मनोरथ सिद्ध नहीं हो सकता। जब मन सच्चा है-मन वश में नहीं है, तो यह सारा नाच (आडम्बर) वृथा है, (क्यांेकि) राम सत्य से ही प्रसन्न होते हैं (आडंबरों से नहीं)।



यह जग काँचो काँच-से मैं समझयौ निरधार।

प्रतिबिम्बित लखियै जहाँ एकै रूप अपार॥681॥


काँचो = कच्चा, क्षणभंगुर। निरधार = निश्चित रूप से।


यह मैंने निश्चित रूप से जान लिया कि यह क्षणभंगुर संसार काँच के समान है, जहाँ एक वही (ईश्वर का) अपार रूप (सभी वस्तुओं में) प्रतिबिम्बित हो रहा है-झलक रहा है।


बुधि अनुमान प्रमान स्रुति किऐं नीठि ठहराइ।

सूछम कटि पर ब्रह्म की अलख लखी नहि जाइ॥682॥


स्रुति = श्रुति = वेद, कान। नीठि = मुश्किल से। ठहराइ = निश्चित होती है। सूछम = सूक्ष्म, बारीक। अलख अ जो देखा न जा सके। पर = भाँति, समान।


नायिका की कटि ब्रह्म की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म है, अलख है, वह देखी नहीं जा सकती-समझ में नहीं आ सकती। बुद्धि द्वारा अनुमान करने और वेदों के प्रमाण मानने (कानों से सुनने) पर भी वह मुश्किल से समझ पड़ती है।


तौ लगु या मन-सदन मैं हरि आवैं किहिं बाट।

बिकट लटे जौ लगु निपट खुलैं न कपट-कपाट॥683॥


सदन = घर। बाट =राह। निपट बिकट जटे = अत्यन्त दृढ़ता से जड़े हुए। कपट = छल, प्रपंच, दम्भ। कपाट = किवाड़।


तबकि इस मन-रूपी घर में ईश्वर किस राह से आवें, जब तक कि (इसमें) अत्यन्त दृढ़ता से जड़े हुए कपट-रूपी किवाड़ न खुल जायँ-मन निष्कपट न हो जाय।


या भव-पारावार कौं उलँघि पार को जाइ।

तिय-छबि-छायाग्राहिनी ग्रहै बीच ही आइ॥684॥


भव = संसर। पारावार = समुद्र। उलँघि = लाँघकर। तिय-छबि = स्त्री की शोभा। छाया ग्राहिनी = लंका-द्वीप के पास समुद्र में रहनेवाली रामायण-प्रसिद्ध ‘सिंहिका’ नामक राक्षसी, जो आकाश में उड़ने वाले जीवों की छाया पकड़कर उन्हें खींच लेती थी- (”निसिचरि एक सिंधु महँ रहई, करि माया नभ के खग गहई“-तुलसीदास)। ग्रहै =पकड़ लेती है। बीच ही = जीवनकाल के मध्य (युवावस्था) में ही।


इस संसार-रूपी समुद्र को लाँघकर कौन पार जा सकता है?(क्योंकि) स्त्री की शोभा-रूपी छायाग्रहिणी बीच में ही आकर पकड़ लेती है- (स्त्री का सौन्दर्य युवावस्था में ही ग्रस लेता है)


भजन कह्यौ तातैं भज्यौ भज्यौ न एकौ बार।

दूरि भजन जातैं कह्यौ सो तैं भज्यौ गँवार॥685॥


भजन = (1) सुमिरन (2) भागना। भज्यौ = (1) भाग गये (2) भजन किया। तातैं = उससे। जातैं = जिससे।


जिसका भजन करने को कहा (जिसका भजन करने के लिए मातृगर्भ में वचन दिया), उस (ईश्वर) से तू दूर भागा, एक बार भी उसे नहीं भजा-नहीं सुमिरा। और, जिससे दूर भागने को कहा, (जिससे बचे रहने का वादा किया) ऐ गँवार, उसी (माया-मोह) को तूने भजा- उसी में तू अनुरक्त हुआ।


पतवारी माला पकरि और न कछू उपाय।

तरि संसार-पयोधि कौं हरि नावैं करि नाउ॥686॥


पतवारी = पतवार। नावैं = नाम को ही। पयोधि = समुद्र।


दूसरा कोई उपाय नहीं। माला-रूपी पतवार को पकड़कर और ईश्वर के नाम की ही नौका बनाकर इस संसार-रूपी समुद्र को पार कर जाओ।


यह बिरिया नहि और की तूँ करिया वह सोधि।

पाहन-नाव चढ़ाई जिहिं कीने पार पयोधि॥687॥


बिरिया = वेला, समय। करिया = कर्णधार, मल्लाह। सोधि = खोजकर। पाहन = पत्थर। पयोधि = समुद्र।


यह दूसरे की बेर नहीं है-(इस अन्तिम अवस्था में कोई दूसरा मदद नहीं कर सकता), तू उसी मल्लाह को खोज, जिसने पत्थर की नाव पर चढ़ाकर समुद्र को पार कराया था।


नोट - श्रीरामचन्द्रजी पत्थर का पुल बनाकर अपनी मर्कटसेना को लंका ले गये थे। उन्हीं का नाम भव-सागर सेतु है।


दूरि भजत प्रभु पीठि दै गुन-बिस्तारन-काल।

प्रगटत निर्गुन निकट ह्वै चंग-रंग गोपाल॥688॥


भजत = भागना। पीठि दै = विमुख होकर। गुन (1) गुण (2) तागा। निर्गुन = (1) गुण-रहित (2) बिना तागे का। चंग = पतंग, गुड्डी। रंग = समान।


गोपाल (की लीला) गुड्डी के समान है। गुण-विस्तार करने के समय-अपने को गुणवान् समझने के समय-वह प्रभु पीठ देकर दूर भागता है, (ठीक उसी तरह, जिस तरह ‘गुण’-तागा बढ़ाने पर गुड्डी दूर भागती है), और निर्गुण होते ही-अपने को तुच्छातितुच्छ समझते ही-वह (ईश्वर) निकट ही प्रकट हो जाता है (जिस तरह गुण-हीन-तागा बिना-हो जाने पर गुड्डी निकट आ जाती है।)


जात-जात बितु होतु है ज्यौं जिय मैं सन्तोष।

होत-होत जौं होइ तौ होइ घरी मैं मोप॥689॥


जात-जात = जाते-जाते, जाते समय। बित = धन। मोष = मोक्ष।


धन के जाते समय जिस प्रकार मन में सन्तोष होता है, अगर (धन) के आते समय भी उसी प्रकार (सन्तोष) हो, तो एक घड़ी में ही (अथवा, घर ही में) मोक्ष मिल जाय।


ब्रजवासिनु को उचित धनु जो धन रुचत न कोइ।

सुचितु न आयौ सुचितइ कहौ कहाँ तैं होइ॥690॥


सुचितइ = निश्चिन्तत, शान्ति।


जो और कोई धन तुम्हें नहीं रुचता है (वहाँ तक तो ठीक है मगर) व्रजवासियों का उपयुक्त धन (श्रीकृष्ण) अगर हृदय में नहीं आया, तो कहो, शान्ति किस प्रकार हो सकती है?


नीकी दई अनाकनी फीकी परी गुहारि।

तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि॥691॥


अनाकनी दई = आनाकानी कर दी, सुनि अनसुनी कर दी, कान बन्द कर लिये। गुहारि = पुकार, कातर प्रार्थना। तारन-बिरदु = भवसागर से उबारने का यश, तारने की बड़ाई। बारक = एक बार। बारनु = हाथी।


(हे प्रभो, तुमने तो) अच्छी आनाकानी की (कि मेरी) पुकार ही फीकी पड़ गई! (मालूम होता है) मानो (तुमने) एक बार हाथी को तारकर अब तारने का यश ही छोड़ दिया! शायद दीनों की कातर प्रार्थना अब तुम्हें फीकी मालूम होती है।


दीरघ साँस न लेहि दुख सुख साईं नहि भूलि।

दई-दई क्यौं करतु है दई दई सु कबूलि॥692॥


दीरघ = लम्बी। साईं = स्वामी, ईश्वर। दई = दैव। दई = दिया है।


दुःख में लम्बी साँस न लो, और सुख में ईश्वर को मत भूलो। दैव-दैव क्यों पुकारते हो? दैव (ईश्वर) ने जो दिया है, उसे कबूल (मंजूर) करो।


कौन भाति रहिहै बिरदु ब देखिबी मुरारि।

बीधे भोसौं आइकै गीधे गीधहिं तारि॥693॥


बिरद = ख्याति, कीर्ति। मुरारि = श्रीकृष्ण। बीधे = बिधना, उलझना। गीधे = परक गये थे, चस्का लग गया था।


हे श्रीकृष्ण, अब देखूँगा कि तुम्हारा यश किस तरह (अक्षुण्ण) रहता है! (तुम) गीध (जटायु) को तारकर परक गये थे, किन्तु अब मुझसेआनकर उलझे हो-(मुझ-जैसे अधम को तारो, तो जानूँ!)


बंधु भए का दीन के को तार्यौ रघुराइ।

तूठे-तूठे फिरत हौ झूठे बिरदु कहाइ॥694॥


का = किस। तूठे-तूठे = संतुष्ट होकर। बिरद = बड़ाई, कीर्ति।


हे रघुनाथ, तुम किस दीन के बंधु बने-किसके सहायक हुए, और किसको तारा? झूठमूठ का विरद बुलाकर-अपनी कीर्ति लोगों से कहला कहलाकर-तुम (नाहक) संतुष्ट बने फिरते हो!


थोरैं ही गुन रीझते बिसराई वह बानि।

तुमहूँ कान्ह मनौ भए आज-काल्हि के दानि॥695॥


तोरैं ही = थोड़े ही। रीझते = प्रसन्न होते। बानि = आदत।


ऐ कन्हैया, (तुम जो) थोड़े ही गुण से प्रसन्न हो जाते थे वह आदत (तुमने) भुला दी। मानो तुम भी आजकल कलियुग के दानी हो गये हो (जो हजार सर पटकने पर भी धेला नहीं देते)।


कब कौ टेरतु दीन ह्वै होत न स्याम सहाइ।

तमहूँ लागी जगतगुरु जगनाइक जग-बाइ॥696॥


टेरत = पुकारता है। जग-बाइ = संसार की हवा।


कब से दीन होकर पुकार रहा हूँ-कातर प्रार्थना कर रहा हूँ, किन्तु हे श्याम, तुम सहाय (प्रसन्न) नहीं होते। हे संसार के गुरु और प्रभु, (मालूम होता है), तुम्हें भी इस संसार की हवा लग गई है-संसारी मनुष्यों की भाँति तुम भी निठुर बन गये हो!


प्रगट भए द्विजराज-कुल सुबस बसै ब्रज आइ।

मेरे हरौ कलेस सब केसव केसवराइ॥697॥


द्विजराज = (1) उत्तम ब्राह्मण (2) चंद्रमा। केसव = केशव, श्रीकृष्ण। केसबराइ = बिहारीलाल के पिता।


श्रेष्ठ ब्राह्मण-वंश में (‘कृष्ण’ अर्थ में ‘चन्द्रवंश’ में) प्रकट हुए, और अपनी इच्छा से ब्रज में आ बसे। वह कृष्ण-रूपी (मेरे पिता) केशवराय मेरे सब कलेशों को दूर करें।


घर-घर डोलत दीन ह्वै जन-जन जाँचतु जाइ।

दियैं लोभ-चसमा चखनु लघुहू बड़ौ लखाइ॥698॥


डोलत = घूमता-फिरता है। चखनु = आँखों पर। चसमा = ऐनक।


(यह लालची मन) दीन बनकर घर-घर घूमता (मारा फिरता) है, और प्रत्येक मनुष्य से याचना करता जाता है-कुछ-न-कुछ माँगता ही जाता है; क्योंकि आँखों पर लोभ का चश्मा देने से छोटी (मामूली) चीज भी बड़ी (बेशकीमती) दीख पड़ती है।


कीजै चित सोई तरे जिहिं पतितनु के साथ।

मेरे गुन-औगुन-गननु गनौ न गोपीनाथ॥699॥


जिहिं = जिससे। गननु = गुणों, समूहों। गनौ न = खयाल न करो।


हे गोपीनाथ! वैसा ही (कृपालु) मन रखिए-इरादा कीजिए, जिससे मैं न गिनिए, (क्योंकि पार न पाइएगा, अतः दया कर तार ही दीजिए)।


ज्याैं अनेक अधमनु दियौ मोहूँ दीजै मोषु।

तौ बाँधौ अपनैं गुननु जौ बाँधैही तोषु॥700॥


मोषु = मोक्ष। गुननु = (1) गुणों (2) रस्सियों। तोषु = संतोष।


जिस प्रकार आपने अनेक पतितों को मोक्ष दिया है, उसी प्रकार मुझे भी दीजिए-आवागमन से छुड़ाइए-(अथवा) यदि बाँधने ही से (सांसारिक माया-मोह के बंधनों में फँसाये रखने से ही) संतोष हो, तो अपने गुणों (की रस्सियों) से ही बाँधिए। (बंधन या मोक्ष, दो में से कोई एक, तो देना ही पड़ेगा!)



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