Monday, July 18, 2022

बिहारी सतसई (चौथा शतक) | बिहारी | Bihari Satsai / Chautha Shatak | Bihari


 
हितु करि तुम पठयौ लगैं वा बिजना की बाइ।

टली तपनि तन की तऊ चली पसीना न्हाइ॥301॥


पठयौ = पठाया, भेजा। बिजना = पंखा। बाइ = हवा। टली = दूर हुई तपनि = जलन, ताप। तऊ = तो भी। न्हाइ चली = शराबोर हो गई।


तुमने हित करके (पंखा) भेजा। उस पंखे की हवा लगने से (उसके) शरीर की जलन तो दूर हो गई-शरीर की (विरहाग्नि) ज्वाला तो शान्त हो गई, तो भी (तुम्हारा प्रेम स्मरण कर) वह पसीने से नहा गई-प्रेमावेश में उसका शरीर पसीने से तर हो (पसीज) गया।


नाँउ सुनत ही ह्वै गयौ तनु औरै मनु और।

दबै नहीं चित चढ़ि रह्यौ अबै चढ़ाऐं त्यौर॥302॥


दबै = छिपे। चित चढ़ि रह्यौ = हृदय में रम रहा है। चढ़ाऐं त्यौर = त्यौरियाँ (भौंह) चढ़ाने से, क्रोध प्रकट करने से।


(नायक का) नाम सुनते ही (तुम्हारा) शरीर कुछ और हो गया, मन कुछ और हो गया-शरीर और मन (दोनों) में विचित्र परिवर्त्तन हो गया। वह चित्त में चढ़े हुए (नायक) का प्रेम अब त्यौरियाँ चढ़ाने से (क्रोध दिखलाने से) नहीं छिप सकता।


नैकौ उहिं न जुदी करी हरषि जु दी तुम माल।

उर तैं बास छुट्यौ नहीं वास छुटै हूँ लाल॥303॥


नैकौ = तनिक भी। उहिं = उसे। जुदी करी = अलग किया, जुदा किया। हरषि जु दी तुम = तुमने जो प्रसन्न होकर दी। बास = बसेरा। बास = गंध।


प्रसन्न होकर जो तुमने (उसे अपनी) माला दी, वह उसे जरा भी अलग नहीं करती। हे लाल! गन्ध के नष्ट हो जाने पर भी (उस माला का) हृदय का वास (स्थान) नहीं छूटा-सूखकर निर्गन्ध हो जाने पर भी वह माला उसके गले में ही विराज रही है।


परसत पोंछत लखि रहतु लगि कपोल कैं ध्यान।

कर लै प्यौ पाटल विमल प्यारी पठए पान॥304॥


परसत = स्पर्श करता है, छूता है। लखि रहत = देखता रहता है। ध्यान लगि = ध्यान करके। कर = हाथ। प्यौ = प्रीतम। पाटल = गुलाब का फूल। बिमल = स्वच्छ, सुन्दर। पठए = भेजा।


प्रीतम ने (प्यारी का भेजा हुआ) सुन्दर गुलाब का फूल हाथ में लेकर (बदले में) प्यारी के पास पान भेज दिया। (और इधर प्रेम-वश उस गुलाब के फूल को वह) स्पर्श करता है, पोंछता है और (प्यारी के) गालों का ध्यान करके (उसे एकटक) देखता है।


नोट - नायिका ने गुलाब का फूल भेजा कि इसी गुलाब के रंग के सामन मैं तुम्हारे प्रेम में रँगी हूँ। नायक ने उत्तर में पान भेजा कि यद्यपि बाहर से प्रकट नहीं है, तथापित इस पान के छिपे रंग के समान मैं भी तुम्हारे प्रेम-रंग में शराबोर हूँ। प्रेम का रंग लाल (खूनी) माना जाता है।


मनमोहन सौं मोहु करि तूँ घनस्याम निहारि।

कुंजबिहारी सौं बिहरि गिरिधारी उर धारि॥305॥


निहारि = देखना। बिहरि = विहार करना। धारि = धारण करना।


(मोह-प्रेम-ही करना है तो) तू मनमोहन से मोह (प्रेम) कर। (देखना ही चाहती है तो) घनश्याम को देख। (विहार ही करना चाहती है तो) कुंजबिहारी के साथ विहार कर और (धारण ही करना चाहती है तो) गिरिधारी को हृदय में धारण कर।


नोट - मनमोहन, घनश्याम, कुंजबिहारी, गिरिधारी आदि श्रीकृष्ण के नाम है। सभी नाम उपयुक्त स्थान पर प्रयुक्त हैं-प्रेम करने के लिए मनमोहन, देखने के लिए श्यामसुन्दर, विहार करने के लिए वृन्दावनविहारी और धारण करने के लिए गिरिधारी-कैसा चमत्कार है!


मोहिं भरोसौ रीझिहैं उझकि झाँकि इक बार।

रूप रिझावनहारु वह ए नैना रिझवार॥306॥


उझकि = उचककर, जरा उठकर। रिझावनहार = चित्त को आकृष्ट करने वाले। रिझवार = रीझनेवाले, रूप देखकर लुब्ध होने वाले।


मुझे (पूरा) भरोसा है कि (तुम देखते ही) रीझ जाओगी- (आसक्त हो जाओगी)। एक बार उचककर झाँको-जरा सिर उठाकर देखो तो सही। (नायक का) वह रूप रिझानेवाला है-आसक्त (मोहित) करने वाला है, और तुम्हारी ये आँखें रीझनेवाली हैं-आसक्त (मुग्ध) हो जाने वाली हैं।


कालबूत-दूती बिना जुरै न और उपाइ।

फिरि ताकैं टारै बनै पाकैं प्रेम लदाइ॥307॥


कालबूत = मेहराब बनाने के समय उसके नीचे ईंट, लकड़ी आदि का दिया हुआ भराव जो मेहराब के पुख्ता हो जाने पर हटा दिया जाता है। जुरै = छुटे, जमे। और = दूसरा। टारै बनै = अलग करना ही पड़ता है। पाकैं = पक जाने पर, पक्का हो जाने के बाद। लदाइ = मेहराब का लदाव।


कालवूत-रूपी दूती के बिना दूसरे उपाय से (प्रेम) नहीं जुड़ता। फिर प्रेम-रूपी लदाव (मेहराब) के पक जाने पर-भली भाँति जुट जाने पर-उसे (भराव-रूपी दूती को) अलग करना ही पड़ता है (अर्थात् जब तक पूर्ण रूप से प्रेम स्थापित नहीं हो जाता, तभी तक दूती की आवश्यकता रहती है।)


गोप अथाइनु तैं उठे गोरज छाई गैल।

चलि बलि अलि अभिसार की भली सँझौखैं सैल॥308॥


गोप = ग्वाले। अथाइनु = बाहर की बैठक। गोरज = गोधूलि, साँझ समय गौओं के घर लौटते समय उनके खुर-प्रहार से उड़नेवाली धूलि। गैल = राह। बलि = बलैया लेना। अभिसार = वह समय जब नायिका छिपकर अपने प्रेमी से संकेतस्थल पर मिलने जाती है। सँझौखैं सैल = संध्या समय की सैर।


गोप लोग (बाहर की) बैठकों से उठ गये। राह में गोधूलि छा गई। सखी! मैं बलैया जाऊँ, चलो, अभिसार के िलिए साँझ समय की सैर बड़ी अच्छी होती है- (कोई देखने सुनने वाला रह ही न गया, रास्ता भी गोधूलि से अंधकारमय हो गया, अतएवं प्रीतम से मिलने का यह बड़ा अच्छा अवसर है।)


सघन कुंज घन घन तिमिरु अधिक अँधेरी राति।

तऊ न दुरिहै स्याम व दीप-सिखा-सी जाति॥309॥


सघन = घना। घन = मेघ। घन = घना। तिमिर = अंधकार। तऊ = तो भी। दुरिहै = छिपेगी। दीप-सिखा = दिये की लौ।


कुंज सघन हैं- अत्यन्त घने हैं। मेघ भी घने हैं-बादल भी खूब उमड़ रहे हैं। फलतः इस अँधेरी रात में अंधकार और भी अधिक हो गया है। तो भी हे श्याम! वह दीपक की लौ के समान (चमकती हुई नायिका) जाती हुई न छिप सकेगी-इतने अंधकार में भी इसकी देह की द्युति देखकर लोग जान ही जायँगे कि वह जा रही है।


फूली-फाली फूल-सी फिरति जु बिमल बिकास।

भोरतरैयाँ होहु तैं चलत तोहि पिय पास॥310॥


फूली-फाली = विकसित और प्रफुल्लित। विमल = स्वच्छ। भोर = प्रातः काल, उषाकाल। तरैया = तारे, तारिकाएँ।


जो (तारिकाएँ) फूल के समान विकसित और प्रफुल्लित स्वच्छ प्रकाश के साथ (अकाश में) फिर रही हैं। प्रीतम के पास तुम्हारे चलते ही (वे सब) भोर की तारिकाएँ हो जायँगी-तुम्हारे मुखचन्द्र के प्रकाश से वे सब फीकी पड़ जायँगी।


उयौ सरद-राका-ससी करति क्यौं न चितु चेतु।

मनौ मदन-छितिपाल कौ छाँहगीरु छबि देतु॥311॥


उयौ = उगा। सरद-राका-ससी = शरद की पूर्णिमा का चन्द्र। मदन = कामदेव। छितिपाल = राजा। छाँहगीरु = छत्र। छबि = शोभा।


शरद ऋतु का पूर्ण चन्द्र उग आया। (फिर भी) चित्त में चेत क्यों नहीं करती-होश में आकर मान क्यों नहीं छोड़ती? (वह चन्द्रमा ऐसा मालूम होता है) मानो मदन-रूपी राजा का छत्र शोभ रहा हो।


निसि अँधियारी नील-पटु पहिरि चली पिय-गेह।

कहौ दुराई क्यौं दुरै दीप-सिखा-सी देह॥312॥


पटु = वस्त्र, साड़ी। गेह = घर। दुराई = छिपाने से। दीप-सिखा = दीप-शिखा = दीये की लौ।


अँधेरी रात में नीली साड़ी पहनकर (गुप्त रूप से मिलने के लिए) प्रीतम के घर को चली, किन्तु कहो तो (उसकी) दीये की लौ के समान (प्रकाशवान) देह छिपाने से कैसे छिपे?


नोट - दोहा सं. 309 के अर्थ से इसके भाव का मिलान कीजिए।


छिपैं छपाकर छिति छुवैं तम ससिहरि न सँभारि।

हँसति हँसति चलि ससिमुखी मुख तैं आँचरु टारि॥313॥


छिपैं = छिप गया। छिपाकर = चन्द्रमा। छिति = पृथ्वी। छुवैं = छू गया। तम = अंधकार। ससिहरि न = सिहर मत, डर मत। सँभारि = सँभलकर। टारि = हटाकर।


चन्द्रमा छिप गया। पृथ्वी को अंधकार छू रहा है। (किन्तु इससे अँधेरा हुआ जानकर) तू डर मत, सँभल जा। अरी चन्द्रमुखी! मुख से घूँघट हटाकर हँसती-हँसती चल (तेरे मुख और दाँतों की चमक से आप ही पथ में उजाला हो जायगा।)


नोट - यह शुक्लाभिसारिका नायिका है। किन्तु कृष्णाभिसारिका नायिका पर कुछ इसी भाव का एक कवित्त द्विजदेव कवि का है। उसके अन्तिम दो चरण देखिए- ”नागरी गुनागरी सु कैसे डरैं रैनि डर जाके अंग सोहैं ये, सहायक अनंद री। वाहन मनोरथ अमा है सँगवारी सखी मैनमद सुभट मसाल मुखचंद री।“


अरी खरी सटपट परी बिधु आधैं मग हेरि।

संग लगे मधुपनु लई भागनु गली अँधेरि॥314॥


खरी = अत्यन्त, अधिक। सटपट परी = सकपकाहट में पड़ गई। मग = रास्ता। हेरि = देखकर। मधुपनु = मधुपों से, मधुपों के कारण। भागनु = भाग्य से। अँधेरि लई = अँधियारी हो गई।


अरी! आधी राह पर चन्द्रमा को देखकर तुम बहुत सकपकाहट में क्यों पड़ गई हो-ज्योंही आधी राह खतम हुई कि चन्द्रोदय देखकर असमंजस में पड़ गई (कि मैं जाऊँ या नहीं, और यदि जाऊँ, तो कैसे जाऊँ, कहीं कोई देख न ले) किन्तु (शरीर की सुगंध के लोभ से) साथ लगे हुए भौंरों के कारण भाग्य से ही गली में अँधियारी छा गई। (जिससे तुम्हें कोई नहीं देख सकेगा।)


जुबति जोन्ह मैं मिलि गई नैंकु न होति लखाइ।

सौंधे कैं डौरैं लगी अली चली सँग जाइ॥315॥


जुबति = जवान स्त्री। जोन्ह = चाँदनी। नैंकु = तनिक। सौंधे = सुगंध। डौरैं लगी = डोर पकड़े, डोरियाई हुई, आश्रय (सहारे) से। अली = सखी।


नवयौवना (नायिका) चाँदनी में मिल गई-उसका प्रकाशवान गौर शरीर चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणों में साफ मिल गया-जरा भी नहीं दीख पड़ी! (अतएव, उसकी) सखी सुगंध की डोर पकड़े-उसके शरीर की सुगंध का सहारा लेकर-(पीछे-पीछे) साथ में चली गई।


ज्यौं ज्यौं आवति निकट निसि त्यौं त्यौं खरी उताल।

झमकि झमकि टहलैं करै लगी रहँचटैं बाल॥316॥


निसि = रात। खरी = अत्यन्त, अधिक। उताल = उतावली, जल्दीबाजी। टहलैं = कामकाज। रहँचटैं-लगी = लगन-लगी, प्रेम-पगी।


ज्यों-ज्यों रात निकट आती है-ज्यों-ज्यों दिन बीतता जाता और रात पहुँचती जाती है-त्यों-त्यों अत्यन्त उतावली से वह प्रेम में पगी बाला (प्रियतम के मिलन का समय निकट आता जान) झमक-झमककर (ताबड़तोड़) घर की टहलें करती है।


झुकि-झुकि झपकौंहैं पलनु फिरि-फिरि जुरि जमुहाइ।

बींदि पियागम नींद मिसि दीं सब अली उठाइ॥317॥


झपकौंहैं = झपकती (ऊँघती) हुई। पलनु = पलकों से। जमुहाई = जँभाई (अँगड़ाई) लेकर। बींदि = (संस्कृत ‘बिदु’ = जानना) जानकर। पियागम = प्रीतम का आगमन। मिसि = बहाना।


(उस नायिका ने) प्रीतम के आगमन (का समय) जान झपकती हुई पलकों से झुक-झस्ुककर और बार-बार मुड़ती हुई जँभाई लेकर नींद के बहाने सब सखियों को उठा (जगाकर हटा) दिया (सब सखियाँ उसे ऊँघती हुई जानकर चली गईं)।


अँगुरिन उचि भरु भीति दै उलमि चितै चख लोल।

रुचि सौं दुहूँ दुहूँन के चूमे चारु कपोल॥318॥


उचि = उचककर। भरु = भार। भीति = भीत्ति, दीवार। उलमि = उझक कर। चख = आँख। लोल = चंचल। रुचि = प्रेम। दुहूँन = दोनों। चारु = सुन्दर। कपोल = गाल।


(पैर की) अँगुलियों पर उचक-अँगुलियों पर खड़ी हो दीवार पर शरीर का भार दे और उझककर चंचल आँखों से (इधर-उधर) देखकर दोनों ने प्रेम से दोनों के सुन्दर गालों का (परस्पर) चिुम्बन किया।


नोट- नायिका और नायक के बीच में उन दोनों ने कुछ ऊँची दीवार थी। उस समय उन दोनों ने जिस कौशल से परस्पर चुम्बन किया था, उसी का वर्णन इस दोहे में है।


चाले की बातैं चलीं सुनत सखिनु कैं टोल।

गोऐंहू लोचन हँसत बिहँसत जात कपोल॥319॥


चाले = गौना। बातैं चलीं = चर्चा छिड़ी। टोल = टोली, गोष्ठी, झुंड। गोऐंहू = छिपाने पर भी। लोचन = आँखें। बिहँसत = खिलते।


सखियों की टोली में ‘गौने की बातचीत चल रही है’-यह खबर सुनकर (प्रसन्नता को) छिपाने (की चेष्टा करने) पर भी (प्रीतम के मिलन के उत्साह में नायिका की) आँखें हँसती हैं, और गाली खिलते जाते हैं-यद्यपि लाज के मारे खुलकर नहीं हँसती, तथापित उसकी आँखों में और गालों पर आनन्द का प्रभाव (विकास) स्पष्ट दीख पड़ता है।


मिसि हीं मिसि आतप दुसह दई और बहकाइ।

चले ललन मनभावतिहिं तन की छाँह छिपाइ॥320॥


मिसि = बहाना। आतप = धूप। और = औरों को। दुसह = नहीं सहने योग्य। मनभावतिहिं = चहेती स्त्री के पास। छाँह = छाया।


बहाने-ही-बहाने में (उस) कड़ी धूप में दूसरी (सखियों) को बहका दिया-उस स्थान से हटा दिया। फिर ललन (श्रीकृष्ण) प्यारी (राधिका) को शरीर की छाया में छिपाकर (जिससे उसे धूप न लगे) चल पड़े। (अद्भुत आलिंगन!)


लाई लाल बिलोकियैं जिय की जीवन-मूलि।

रही भौन के कोन मैं सोनजुही-सी फूलि॥321॥


लाई = ले आई। जिय = प्राण। जीवन-मूलि = संजीवनी बूटी। भौन = घर। सोनजुही = पीली चमेली। फूलि = प्रफुल्ल, प्रसन्न।


हे लाल! मैं बुला लाई हूँ, अपने प्राण की संजीवनी बूटी को देखिए-जिसके लिए आपके प्राण निकल रहे थे, उस (प्राण-संचारिणी) नवयुवती को देखिए। (उधर) घर के कोने में वह पीली चमेली के समान फूल रही है- पीली चमेली के समान देह वाली युवती आपकी प्रतीक्षा में आनन्द-विभोर हो खड़ी है।


नहि हरि-लौं हियरो धरौ नहि हर-लौं अरधंग।

एकत ही करि राखियै अंग-अंग प्रत्यंग॥322॥


हरि = विष्णु। लौं = समान। हियरो = हृदय में। हर = महादेव। अरधंग = आधा अंग। एकत = एकत्र। प्रत्यंग = प्रति अंग।


न तो विष्णु के समान (इस नायिका को लक्ष्मी की तरह) हृदय से लगाकर रक्खो, और न शिव के समान (इसे पार्वती की भाँति) अर्द्धांगिनी (बनाकर रक्खो)। (वरन् इसके) प्रत्येक अंग को (अपने) अंग-अंग से एकत्र (सटा) करके ही रक्खो (इसे अपने में इस प्रकार लीन बना लो कि इसका अस्तित्व ही न रह जाय)।


रही पैज कीनी जु मैं दीनी तुमहिं मिलाइ।

राखहु चम्पक-माल लौं लाल हियैं लपटाइ॥323॥


पैज = प्रतिज्ञा। चम्पक = चम्पा। हियैं = हृदय में।

मैंने जो प्रतिज्ञा की थी सो रह गई-पूरी हो गई-तुमसे (इस नायिका को) मिला दिया। अब हे लाल! इसे चम्पा की माला के समान अपने गले में लिपटाकर रक्खो।


रही फेरि मुँह हेरि इत हितु-समुहैं चितु नारि।

डीठि परत उठि पीठ की पुलकैं कहैं पुकारि॥324॥


हेरि = देखना। इत = इधर, मेरी ओर। हितु-समुहैं = प्रेमी के सामने। चित = हृदय। डीठि = दृष्टि, नजर। पुलकैं = रोमांच।


मुँह फेरकर इधर देख रही हो, (किन्तु) हे बाले! (तुम्हारा) चित्त तो अपने प्रेमी के सामने है। यद्यपि तुम मेरी ओर देख रही हो, किन्तु तुम्हारा मन सामने खड़े हुए नायक की ओर है। (नायक की) नजर पड़ते ही (प्रेमावेश में तुम्हारी) पीठ की पुलकें उठकर (पीठ के रोंगटे खड़े होकर) यह बात पुकार-पुकारकर कह रही हैं।


दोऊ चाह भरे कछू चाहत कह्यौ कहैं न।

नहि जाँचकु सुनि सूम लौं बाहिर निकसत बैन॥325॥


चाह = प्रेम। सूम = कंजूस, कृपण, वरकट। जाँचकु = भिक्षुक, मँगता। लौं = समान। बैन = वचन।


दोनों चाह से भरे-प्रेम में पगे-(एक दूसरे को) कुछ कहना चाहते हैं किन्तु कह नहीं सकते। चायक के आने की खबर सुनकर सूम के समान उनके वचन बाहर नहीं निकलते-जिस प्रकार याचक के आने की खबर सुनकर सूम घर से बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार उन दोनों के वचन भी मुख से बाहर नहीं होते।


लहि सूनैं घर करु गहत दिखादिखी की ईठि।

गड़ी सुचित नाहीं करति करि ललचौंही डीठि॥326॥


लहि = पाकर। सूने = शून्य, एकान्त, अकेला। करु = हाथ। ईठि = इष्ट, प्रेम। ललचौंही = ललचानेवाली।


(उसकी मेरी) देखादेखी की ही प्रीति थी-बातें तक नहीं हुई थीं, केवल वह मुझे देखती थी और मैं उसे देखता था, इसी में प्रेम हो गया था। (एक दिन) सूने घर में (उसे) पाकर (मैंने उसकी) बाँह पकड़ी। उस समय वह आँखें ललचौंही बनाकर ‘नाहीं-नाहीं’ करती हुई मेरे चित्त में गड़ गई-बाँह पकड़ते ही अभिलाषा-भरी आँखों से उसने जो ‘नहीं-नहीं’ की सो हृदय में गड़ रही है।


गली अँधेरी साँकरी भौ भटभेरा आनि।

परे पिछानै परसपर दोऊ परस पिछानि॥327॥


साँकरी = तग, पतली। भौ भटभेरा = मुठभेड़ हुई, टक्कर लड़ी। आनि = आकर। पिछाने = पहचाने। परस पिछानि = स्पर्श की पहचान से।


(नायिका नायक से मिलने जा रही थी और नायक नायिका से मिलने आ रहा था कि इतने ही में) पतली और अँधेरी गली में आकर (दोनों की) मुठभेड़ हो गई-एक दूसरे से टकरा गये।(और टकराते ही शरीर के) स्पर्श की पहचान से दोनों परस्पर पहचान गये-एक दूसरे को स्पर्श करके ही एक दूसरे को पहचान गया।


हरषि न बोली लखि ललनु निरखि अमिलु सँग साथु।

आँखिनु ही मैं हँसि धर्यौ सीस हियै धरि हाथु॥328॥


ललन = प्यारे, श्रीकृष्ण। अमिलु = बेमेल, अनजान। हियै = हृदय।


संगी-साथियों को अपरिचित जान श्रीकृष्ण को देखकर प्रसन्न होने पर भी कुछ बोली नहीं। हाँ आँखों में ही हँसकर (अपना) हाथ (पहले) हृदय पर रख (फिर उसे) सिर पर रक्खा- (अर्थात्) हृदय में बसते हो, प्रणाम करती हूँ! (खासी सलामी दगी!)


भेटत बनै न भावतो चितु तरसतु अति प्यार।

धरति लगाइ-लगाइ उर भूपन बसन हथ्यार॥329॥


भावतो = प्यारे। तरसतु = ललचता है। बसन = कपड़े। उर = हृदय।


अपने प्यारे से भेंटते नहीं बनता-दिन होने के कारण गुरुजनों के सम्मुख भेंट नहीं कर पाती- और अत्यन्त प्रेम के कारण चित्त तरस रहा है। (अतएव उनके) गहनों, कपड़ों और हथियारों को हृदय से लगा-लगाकर रखती है।


नोट - सैनिक पति बहुत दिनों पर घर लौटा है। दिन होने के कारण वह बाहर की बैठक में ही रह गया और अपने आभूषण, वस्त्र और अस्त्र-शस्त्र घर भेज दिये। उस समय उसकी स्त्री की दशा का वर्णन इस दोहे में है।


कोरि जतन कोऊ करौ तन की तपनि न जाइ।

जौ लौं भीजे चरि लौं रहै न प्यौ लपटाइ॥330॥


कोरि = करोड़। तपनि = ताप, ज्वाला। जौ लौं = जब तक। भीजे चीर = तर या गीला कपड़ा। लौं = समान। प्यौ = प्रिय, प्रीतम।


करोड़ों यत्न कोई क्यों न करो, किन्तु उस (वियोगिनी) के शरीर की ज्वाला न जायगी-(विरहाग्नि) नहीं शान्त होगी। जब तक कि भींगे हुए चीर के समान (उसका) प्रीतम (उससे) लिपटकर न रहे।


तनक झूँठ नसवादिली कौन बात परि जाइ।

तिय मुख रति-आरम्भ की नहिं झूठियै मिठाइ॥331॥


तनक = थोड़ा। नसवादिली = निस्वादु, बेमजा। तिय = स्त्री। रति = समागम, सम्भोग। मिठाइ = मीठी लगती है। झूठियै = झूठी भी।


”थोड़ा झूठ भी बेमजा है“-(इस) बात पर कौन जाय-कौन भूले। स्त्री के मुख से समागम के आरम्भ में (निकली हुई) ‘नहीं’ झूठी भी मीठी लगती है।


नोट - दुलहिन की ‘नाहीं’ पर कविवर दूलह कहते हैं-धरी जब बाहीं तब करी तुम नाहीं पाय दियो पलँगाही नाहीं-नाहीं कै सुहाई हौ। बोलत में नाहीं, पट खोलत में नाहीं, ‘कवि दूलह’ उछाहीं लाख भाँतिन लखाई हौ॥ चुम्बन में नाहीं, परिरंभन में नाहीं, सब हासन विलासन में नाहीं ठकीठाई हौ। मेलि गलबाहीं केलि कीन्हीं चितचाहीं, यह ‘हाँ’ ते भली ‘नाहीं’ सो कहाँ ते सीख आई हौ?“


भौंहनु त्रासति मुँह नटति आँखिनु सौं लपटाति।

ऐंचि छुड़ावति करु इँची आगैं आवति जाति॥332॥


त्रासति = डरवाती है। नटति = नहीं-नहीं (इनकार) करती है। ऐंचि = खींचकर। इँची = खिंचती। आगे आवति जाति = सामने वा पास चली आती है।


भौंहों से डरवाती है-भौंहें टेढ़ी कर क्रोध प्रकट करती है। मुख से ‘नहीं-नहीं’ करती है। आँखों से लिपटती है-प्रेम प्रकट करती है (और) खींचकर (अपना) हाथ (मेरे हाथ से) छुड़ाती हुई भी (वह स्वयं) खिंचती हुई आगे ही आती-जाती है-यद्यपि वह बाँह छुड़ाकर भागने का बहाना करती है, तो भी मेरी ओर बढ़ती आती है।


दीप उजेरैं हू पतिहिं हरत बसनु रति काज।

रही लिपटि छबि की छटनु नेकौं छुटी न लाज॥333॥


उजेरै हू = उजाले में भी। बसनु = वस्त्र, साड़ी। रति-काज = सहवास (समागम) के लिए। छटनु = छटा से। नेकौं = जरा भी।


दीपक के उजाले में भी समागम के लिए पति उसके वस्त्र हरण कर रहा है-शरीर से कपड़े हटा रहा है। किन्तु, सौंदर्य की छटा से-शरीर भी शोभा-जनित आभा से लिपटी रहने के कारण उसकी लाज जरा भी न छुटी (यद्यपि वस्त्र हटा दिया गया, तो भी उसके शरीर की द्युति में नायक की आँखें चौंधिया गईं, जिससे उसे नग्नता की लाज न उठानी पड़ी!)


लखि दौरत पिय-कर-कटकु बास छुड़ावन काज।

बरुनी बन गाढ़ैं दृगनु रही गुए़ौ करि लाज॥334॥


कर = हाथ। कटकु = सेना। बास = (1) वस्त्र (2) निवास-स्थान। बरुनी = पलक के बाल। गाढ़ैं = सघन। दृगनु = आँखों। गुढ़ौ करि = किला बनाकर।


वस्त्र (रूपी निवास-स्थान या देश) छुड़ाने के लिए प्रीतम के हाथ-रूपी सेना को दौड़ते (ताबड़तोड़ वस्त्रहरण करते) देखकर (नायिका की) लज्जा बरुनी-रूपी सघन वन में (बने हुए) आँखों को किला बनाकर छिप रही-(समूचे शरीर से सिमटकर लाज आँखों में आ छिपी!)


नोट -अत्यन्त लज्जा से स्त्रियाँ आँखें बन्द कर लेती हैं। जबरदस्ती नग्न किये जाने पर स्वभावतः उनकी आँखें बन्द हो जाती हैं।


सकुचि सरकि पिय निकट तैं मुलकि कछुक तनु तोरि।

कर आँचर की ओट करि जमुहानी मुँह मोरि॥335॥


सकुचि = लजाकर। सरकि = सरककर, हटकर। मुलकि = मुस्कुराकर। तनु तोरि = अँगड़ाई लेकर। कर = हाथ। जमुहानी = जँभाई ली, देह को ऐंठा। मुख मोरि = मुँह फेरकर।


(समागम के बाद) लजाकर प्रीतम के निकट से कुछ दूर हट, अँगड़ाई लेकर कुछ मुस्कुराई तथा हाथ और आँचल की ओट कर, मुख फेरके जँमाई ली।


सकुच सुरत आरंभ हीं बिछुरी लाज लजाइ।

ढरकि ढार ढुरि ढिग भई ढीठि ढिठाई आइ॥336॥


सकुच = (1) सकुचाकर (2) कुच-सहित। ढरकि = ढरककर, खिसककर। ढार ढुरि = अनुकूल या प्रसन्न हो।


(1) सकुचाकर समागम के आरम्भ में ही (वह नायिका) लाज से लजाकर दूर हट गई; किन्तु ढीठ ढिठाई के आने पर वह सहर्ष खिसककर निकट आ गई- (पहले लज्जावश अलग हट गई; पर जब ढिठाई ने उत्साहित किया, तब पास चली आई)। अथवा (2) कुच स्पर्श के साथ समागम के आरम्भ होते ही लज्जा (बेचारी) लजाकर दूर हो गई (लाज जाती रही) और धृष्ट घृष्टता खिसककर, प्रसन्न हो, निकट आकर उपस्थित हुई- (लजीली लाज भगी और शोख ढिठाई सामने आई)।


पति रति की बतियाँ कहीं सखी लखी मुसकाइ।

कै कै सबै टलाटली अली चलीं सुख पाइ॥337॥


रति = समागम। लखी = देखी। टलाटली = टालमटूल, बहाना। अली = सखियाँ। सुख पाइ = सुखी (प्रसन्न) होकर।


पति ने (इशारे से) रति की बातें कहीं, (इस पर नायिका ने) सखियों की ओर मुस्कुराकर देखा। (मर्म समझकर) सब सखियाँ टालमटूल कर-करके प्रसन्न हो (वहाँ से) चल दीं।


चमक तमक हाँसी ससक मसक झपट लपटानि।

ए जिहि रति सो रति मुकुति और मुकुति अति हानि॥338॥


चमकना और तमकना-कभी चिहुँक उठना और कभी क्रोधित हो जाना, हँसना और सिसकना-कभी मजा पाने पर हँस पड़ना और कभी जोर पड़ने पर कष्ट से सी-सी करना; मसकना और झपटकर लिपटना-शरीर के मर्दित किये जाने पर बार-बार गले से लिपट जाना; ये सब भावभंगियाँ जिस समागम में हों, वही समागम (वास्तव में) मोक्ष है (मोक्ष-तुल्य आनन्दप्रद है), और प्रकार के मोक्ष में तो अत्यन्त हानि (बड़ा घाटा) है।


नोट - बिहारी ने इसमें समागम समय की पूरी तस्वीर तो खींच ही दी है, साथ ही शब्द-संगठन ऐसा रक्खा है कि यह योगियों के ब्रह्मानन्द पर भी पूर्ण रूप से घटता है। योगी भी ब्रह्मानन्द में मस्त हो कभी चौंक उठते हैं, कभी उत्तेजित हो जाते हैं, कभी हँस पड़ते हैं, कभी रो पड़ते हैं और कभी भाव-विह्वलता के कारण झपटकर (ध्यानास्थ इष्टदेव) से लिपटने की चेष्टा करते हैं। वही परमानन्दमय ‘कैवल्य-परमपद’ वास्तविक मोक्ष है, अन्य प्रकार के मोक्ष व्यर्थ हैं।


जदपि नाहिं नाहीं नहीं बदन लगी जक जाति।

तदपि मौंह हाँसी-भरिनु हाँ सीयै ठहराति॥339॥


वदन = मुख। जक = रटन, आदत। हाँसी भरिनु भौंह = प्रसन्न भौंह, आनन्दद्योतक भौंह। हाँ सीयै = हाँ के समान ही। ठहराति = जान पड़ती है।


यद्यपि (नायिका के) मुख में ‘नहीं-नहीं-नहीं’ की ही रट लग जाती है- वह सदा ‘नहीं-नहीं’ (इनकार) ही करती जाती है, तथापि हँसी-भरी हुई (विकसित) भौंहों के कारण (‘नहीं-नहीं’ भी) ‘हाँ’ के समान ही जान पड़ती है- ‘हाँ’ के समान ही सुखदायक मालूम होती है।


पर्‌यौ जोरु बिपरीत-रति रुपी सुरति रनधीर।

करत कुलाहलु किंकिनी गह्यौ मौनु मंजीर॥340॥


बिपरीत रति = (समागम काल में) नायक नीचे और नायिका ऊपर। रुपी = पैर रोपे (जमाये हुई है, डटी है। सुरति = समागम। रन = युद्ध। किंकिनी = कमर में पहनने का एक घुँघरूदार आभूषण, करघनी। मौन गह्यो = मौनावलम्बन, चुप साधे रहना। मंजीर = पाँवों में पहनने का एक रुनझुनकारी गहना, नूपुर।


विपरीत रति में खूब जोर पड़ रहा है-जोरों के साथ विपरीत रति जारी है। वह धीरा समागम-रूपी युद्ध में डटी है। (अतएव, कमर की) किंकिणी शोर कर रही है, और (पाँवों के) नूपुर मौन पकड़े हुए (चुप) हैं।


नोट - विपरीत-रति में नायिका की कटि-चंचल (क्रियाशील) है, इसलिए किंकिणी बज रही है, और पैर (जमे हुए) स्थिर हैं, इसलिए नूपुर चुप हैं।


बिनती रति बिपरीत को करो परसि पिय पाइ।

हँसि अनबोलैं ही दियौ ऊतरु दियौ बुताइ॥341॥


परसि = स्पर्श कर, छूकर। प्रिय = प्रीतम। पाइ = पैर। अनबोलैं ही = बिना कुछ कहे ही। ऊतरु दियो = जवाब दिया। दियौ बुताइ = दीपक बुझाकर।


प्रीतम ने (नायिका के) पैर छूकर विपरीत रति के लिए विनती की। (इस पर नायिका ने) बिना कुछ मुँह से बोले ही (केवल) हँसकर दीपक बुझाकर उत्तर दे दिया (कि मैं तैयार हूँ, लीजिए-चिराग भी गुल हुआ!)


मेरे बूझत बात तूँ कत बहरावति वाल।

जग जानी बिपरीत रति लखि बिंदुली पिय भाल॥342॥


कत = क्यों। बहरावति = बहलाती है, चकमा देती है। जग जानी = दुनिया जान गई। बिंदुली = टिकुली, चमकी या सितारा।


मेरे पूछने पर अरी बाला! तू क्यों चकमा देती है? प्रीतम के ललाट में (तेरी) टिकुली देखकर संसार जान गया कि (तुम दोनों ने) विपरीत रति की है।


नोट - विपरीत रति में ऊपर रहने के कारण नायिका की टिकुली गिरकर नीचे पड़े हुए नायक के ललाट पर सट गई।


राधा हरि हरि राधिका बनि आए संकेत।

दम्पति रति-बिपरीत-सुखु सहज सुरत हूँ लेत॥343॥


बनि आए = बनकर आये, रूप धरकर आये। संकेत = गुप्त मिलन का पूर्व-निश्चित स्थान। दम्पति = स्त्री पुरुष दोनों, संयुक्त। सहज = स्वाभाविक। सुरत = समागम। हूँ = भी।


गुप्त मिलन के स्थान पर राधा कृष्ण का (राधा धरकर आई) और कृष्ण राधा का रूप धरकर आये (अतएव, इस रूप-बदलौअल के कारण) स्वाभाविक समागम में दम्पति (राधा और कृष्ण-दोनों) विपरीत रति का सुख ले रहे हैं।


नोट - कृष्ण के वेष में राधा ऊपर और राधा के वेश में कृष्ण नीचे हैं। परिवर्तित रूप के अनुसार तो स्वाभाविक रति हे। पर वास्तव में विपरीत रति ही है।


रमन कह्यो हठि रमनि कौं रति बिपरीत बिलास।

चितई करि लोचन सतर सलज सरोस सहास॥344॥


सतर = तिरछी। सलज = लज्जा-सहित, लजीली। सरोस = क्रोध सहित, रोषीली, लाल। सहास = हास-युक्त, हँसीली, प्रफुल्ल।


(रमने) कहा। (इस पर राधा ने) अपनी आँखों को तिरछी, लजीली, रोसीली और हँसीली बनाकर (श्रीकृष्ण) की ओर देखा।


रँगी सुरत-रँग पिय-हियै लगी जगी सब राति।

पैंड़-पैंड़ पर ठठुकि कै ऐंड़-भरी ऐंड़ाति॥345॥


सुरत = समागम, रति। हियैं लगी = हृदय से सटी हुई। पैंड़-पैंड़ = पग-पग पर। ठठुकि कै = ठिठककर, रुक-रुककर। ऐंड़-भरी = सौभाग्य-गर्व से भरी। ऐंड़ति = अँगड़ाई लेती है, देह ऐंठती है।


समागम के रँग में रँगी, प्रीतम के हृदय से लगी सारी रात जगी है। (अतएव, दिन में आलस के मारे) पग-पग पर ठिठक-ठिठककर गर्व से अँगड़ाई ले रही है।


लहि रति-सुखु लगियै हियै लखी लजौंही नीठि।

खुलत न मो मन बँधि रही वहै अधखुली डीठि॥346॥


 रति-सुख = समागम का सुख। हियैं = हृदय में। लजौंही = लजीली। नीठि = मुश्किल से। मो = मेरे। मन बँधि रही = मन में बस रही है।


समागम का सुख पाकर हृदय से लग गई और लजीली (आँखों से) मुश्किल से (मेरी ओर) देखा। उस समय की उसकी वह अधखुली नजर मेरे मन से बँध रही है, खुलती नहीं-उसका वह लजीली और अधखुली नजरों से देखना मुझे नहीं भूलता।


करु उठाइ घूँघटु करत उझरत पट गुझरौट।

सुख मोटैं लूटीं ललन लखि ललना की लौट॥347॥


उझरत = सरक जाने से। पट गुझरौट = सिकुड़ा हुआ वस्त्र। मोटैं = गठरियाँ। ललन = नायक। ललना = नायिका। लौट = अदा से घूम जाना।


हाथ उठाकर घूँघट करते समय सिकुड़े हुए कपड़ों के सरक जाने से नायिका का (नायक से लजाकर) घूम जाना देखकर नायक ने सुख की मोटरियाँ लूटीं- (सुख का खजाना पा लिया)।


हँसि ओठनु बिच कर उचै कियै निचौंहै नैन।

खरैं अरैं पिय कैं प्रिया लगी बिरी मुख दैन॥348॥


उचै = ऊँचा कर। निचौंहे = नीचे की ओर। खरे = अत्यन्त। अरे = हठ किये (अड़े) हुए। बिरी = पान का बीड़ा। दैन लगी = देने लगी।


(प्रीतम ने प्यारी के हाथों से पान खाने का हठ किया, इस पर) ओठों के बीच में हँसकर-कुछ मुस्कुराकर-हाथ ऊँचा कर और आँखें नीची किये प्यारी अत्यन्त हठ किये हुए प्रीतम के मुख में पान का बीड़ा देने लगी।


नाक मोरि नाहीं ककै नारि निहौरैं लेइ।

छुवत ओंठ बिय आँगुरिनु बिरी बदन प्यौ देइ॥349॥


नाक मोरि = नाक सिकोड़कर। ककै = करके। नारि = स्त्री, नायिका। निहोरे = आग्रह या अनुनय-विनय करने पर। बिय = दोनों। बिरी = पान का बीड़ा। बदन = मुख। प्यौ = प्रीतम, नायक।


नाक सिकोड़कर नहीं-नहीं करके नायिका निहोरा करने पर (बीड़ा) लेती है, और नायक अँगुलियों से दोनों ओठ छूते हुए नायिका के मुख में पान का बीड़ा देता है।


नोट - दोनों नजाकत से भरे हैं। नायिका लेते समय नहीं-नहीं करती है, तो नायक देते समय उसके कोमल गुलाबी होठों को ही छू लेता है।


सरस सुमिल चित तुरँग की करि-करि अमित उठान।

गोइ निबाहैं जीतियै प्रेम-खेलि चौगान॥350॥


सरस = ‘प्रेम’ के अर्थ में ‘रसयुक्त’ और ‘घोड़े’ के अर्थ में ‘पुष्ट’। सुमिल = (1) मिलनसार (2) जो सवार के इच्छानुसार दौड़े। अमित = अनेक। उठान = घावा। गोइ निबाहैं = (1) छिपाकर निबाहने से (2) छिपाकर ‘गोल’ (लक्ष्य) तक ले जाने से। चौगान खेल = घोड़े पर चढ़कर गेंद खेलना।


रसयुक्त (पुष्ट) और मिलनसार चित्त-रूपी घोड़े के अनेक अनेक धावे कर-करके छिपा-छिपाकर निर्वाह करने (‘गोल’ लक्ष्य तक ले जाने) से ही प्रेमरूपी चौगान के खेल में जीत सकोगे।


दृग मिहचत मृगलोचनी भज्यौ उलटि भुज बाथ।

जानि गई तिय नाथ के हाथ परस ही हाथ॥351॥


दृग = आँख। मिहचत = मूँदना। मृगलोचनी = वह स्त्री जिसके नेत्र मृग के नेत्र-से बड़े-बड़े हों। बाथ = अँकवार। परस = स्पर्श।


आँखें मूँदते ही-ज्यों ही प्रीतम ने पीछे से आकर उसकी आँखें बन्द कीं-त्यों ही उस मृगलोचनी ने (अपनी) भुजाएँ उलटकर उसे (निस्संकोच) अँकवार में भर लिया। (क्योंकि) हाथों के स्पर्श होते ही युवती जान गई कि (ये) प्रीतम के ही हाथ हैं।


प्रीतम दृग मिहचत प्रिया पानि-परस सुखु पाइ।

जानि पिछानि अजान लौं नैंकु न होति जनाइ॥352॥


पानि-परस = पाणि-स्पर्श, हाथ का स्पर्श। पिछानि = पहचानकर। अज्ञान = अश्र, अनभिज्ञ। लौं = समान। नैंकु = जरा, तनिक। न होति जनाइ = प्रकट नहीं करता, परिचय नहीं बतलाता।


प्रिय (नायिका) द्वारा आँखों के बन्द किये जाने पर (उसके कोमल) हाथों के स्पर्श का सुख पाकर प्रीतम (उसे भली भाँति) जान और पहचानकर भी अज्ञान के समान तनिक प्रकट नहीं होता (यह प्रकट नहीं करता कि तू कौन है, क्योंकि कर-स्पर्श जन्य सुख मिल रहा है।)


कर मुँदरी की आरसी प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ।

पीठ दियैं निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ॥353॥


मुँदरी = अँगूठी। आरसी = दर्पण, नगीना। प्यौ = पिया, प्रीतम। पीठ दियैं = मुँह फेरकर बैठी हुई। निधरक = बेधरक, स्वच्छन्दता से।


अपने हाथ की अँगूठी के (उज्वल) नगीने में प्रीतम का प्रतिबिम्ब देख (वह नायिका, प्रीतम की ओर) पीठ करके एकटक दृष्टि लगाकर (उस नगीने में झलकती हुई प्रीतम-छबि को) बेधड़क देख रही है-नगीने में प्रतिबिम्बित प्रीतम की मूर्त्ति देखकर ही प्रिय-दर्शन का आनन्द लूट रही है।



मैं मिसहा सोयौ समुझि मुँह चूम्यौ ढिग जाइ।

हँस्यौ खिस्यानी गल रह्यौ रहा गरैं लपटाइ॥354॥


मिसहा = मिस करने वाला, बहानेबाज, छली। ढिग = निकट। खिस्यानी = लज्जित हो गई। गल गह्यौ = गलबहियाँ डाल दी। गरे = गले से।


मैंने उस छलिये को सोया हुआ जान निकट जाकर उसका मुँह चूमा। इतने ही में वह (जगा होने के कारण) हँस पड़ा, मैं लज्जित हो गई, उसने गलबाहीं डाल दी। (तो हार-दाँव मैं भी) उसके गले से लिपट गई।


मुँहु उघारि पिउ लखि रह्यौ रह्यौ न गौ मिस-सैन।

फरके ओठ उठे पुलक गए उघरि जुरि नैन॥355॥


उघारि = खोलकर। मिस-सैन = बहानेबाजी की नींद, बनावटी सोना (शयन)। पुलक = रोमांच। जुरि = मिलना।


मुँह उघारकर-मुँह पर से आँचल हटाकर-प्रीतम देख रहा था, अतः उस (नायिका) से झूठ-मूठ सोया न गया-आँखें मूँदकर जो सोने का बहाना किये हुए थी, सो वैसी न रह सकी। (पहले) ओठ फड़कने लगे (फिर) रोमांच उठ आये (और अन्त में) आँखें खुलकर (नायक की आँखों से) मिल गई।


बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।

सौंह करै भौंहनु हँसै दैन कहैं नटि जाइ॥356॥


बतरस = बातचीत का आनन्द। लुकाइ धरी = छिपाकर रक्खा। सौंह = शपथ। नटि जाइ = नाहीं (इनकार) कर देती है।


बातचीत का मजा लेने के लोभ से श्रीकृष्ण की मुरली छिपाकर रख दी। (अब श्रीकृष्ण के माँगने पर) शपथ खाती है, भौंह से हँसती है (भौंहों को नचा-नचाकर प्रसन्नता जताती है), देने को कहती है देने पर तैयार होती है, (और पुनः) नाहीं कर देती है।


नैंकु उतै उठि बैठियै कहा रहे गहि गेहु।

छुटी जाति नहँ दी छिनकु महँदी सूकन देहु॥357॥


उतै = उधर। गहि = पकड़े। छुटी जाति = धुली या धुली जाती है। नहँ दी = नखों में दी या लगाई हुई। छिनकु = एक क्षण।


जरा उधर (अलग) उठकर बैठो। क्या घर को पकड़े रहते हो; क्या सदा घर में बैठे (घुसे) रहते हो? (देखो, तुम्हारे निकट रहने से प्रेमावेश के पसीने के कारण इसके) नँह में लगाई गई (मेहँदी) छुटी जाती है, एक क्षण के लिए भी तो इस मेहँदी को सूखने दो।


बाम तमासो करि रही बिबस बारुनी सेइ।

झुकति हँसति हँसि हँसि झुकति झुकि झुकि हँसि हँसि देइ॥358॥


बाम = युवती स्त्री। तमासो = तमाशा, भावभंगी। बारुनी = मदिरा। सेइ = सेवन कर, पीकर। झुकि-झुकि = लचक के साथ गिर-गिरकर।


शराब पीकर बेबस हो वह युवती तमाशा कर रही है-विचित्र हावभाव दिखा रही है। (नशे के झोंक में) झुकती (लड़खड़ाकर गिरती) है, हँसती है, (फिर) हँस हँसकर झुकती और झुक-झुककर हँस-हँस (खिलखिला) पड़ती है।


हँसि-हँसि हेरति नवल तिय मद के मद उमदाति।

बलकि-बलकि बोलति बचन ललकि ललकि लपटाति॥359॥


हेरति = देखती है। मद के मद = शराब के नशे में। उमदाति = झूमकर, देखती है। बलकि-बलकि = उबल-उबलकर, उत्तेजित हो-होकर।


शराब के नशे में वह उन्मादिनी (मस्तानी) नवयुवती हँस-हँसकर देखती है। उमंग से भर-भरकर (अंटसंट) बातें करती है, और ललक-ललककर (उत्कंठापूर्वक) लिपट जाती है।


खलित बचन अधखुलित दृग ललित स्वेद-कन जोति।

अरुन बदन छबि मदन की खरी छबीली होति॥360॥


खलित = स्खलित, स्फुट, अस्पष्ट। स्वेद-कन = पसीने की बूँदें। अरुन = लाल। खरी = अत्यन्त। मद छकी = शराब के नशे में चूर।


अस्पष्ट बातें, अधुखली आँखें, (शरीर में) पसीनों के सुन्दर कणों की ज्योति और गुल्लाला चेहरे की शोभा- (इन लक्षणों से युक्त वह नायिका) कामदेव की-सी शोभावाली अत्यन्त सुन्दरी हो जाती है।


निपट लजीली नवल तिय बहकि बारुनी सेइ।

त्यौं-त्यौं अति मीठी लगति ज्यौं-ज्यौं ढीठ्यो देइ॥361॥


निपट = अत्यन्त। नवल तिय = नवयुवती। बहकि = बहकावे (भुलावे) में आकर। मीठी = भली, प्यारी, लुभावनी, सुस्वादु। ढीठ्यो देह = ढिठाई दिखाती है।


अत्यन्त लजावती उस नवयुवती ने भुलावे में आकर शराब पी ली-नायक ने शर्बत आदि के बहाने उसे शराब पिला दी; सो (नशे के कारण) ज्यों-ज्यों वह (लज्जा छोड़कर) धृतष्टता (शोखी) दिखलाती है, त्यों-त्यों अत्यन्त मीठी (मनभावनी) लगती है।


बढ़त निकसि कुच-कोर-रुचि कढ़त गौर भुज-मूल।

मनु लुटिगौ लोटनु चढ़त चोंटत ऊँचे फूल॥362॥


कुच = स्तन। कोर = घेरा, किनारा, मंडल। रुचि = शोभा। भुज-मूल = बाँह का मूल-स्थान, पखौरा। लोटनु = त्रिबली, पेटी। चोंटत = चुनते (तोड़ते) समय। ऊँचे फूल = ऊँची डाल के फूल।


ऊँची डाल से फूल तोड़ते समय, (हाथ ऊँचा करने के कारण) उसके कुचमण्डल की शोभा (कंचुकी से) निकलकर बढ़ रही है, तथा (सुन्दर) गोरे पखौरे भी (कपड़े हट जाने से) बाहर निकल गये हैं। (इन शोभाओं को देखकर तो मन मुग्ध था ही कि उसकी) त्रिवली (की तीन सीढ़ियों) पर चढ़कर मन लुट गया।


नोट - ऊँचे फूल तोड़ते समय स्वभावतः, पीन कुच की कोर कंचुकी से बाहर दीख पड़ेगी, और खिंचाव के कारण वस्त्र हट जाने से पखौरे औरत्रि बली के भी दर्शन हो जायँगे। सप्तम शतक का 608 वाँ दोहा देखिए।


घाम घरीक निवारियै कलित ललित अलि-पुंज।

जमुना-तीर तमाल-तरु मिलित मालतो-कुंज॥363॥


घाम = धूप। घरीक = एक घड़ी। निवारियै = गँवाइये, बिताइये। तमाल = एक प्रकार का सुहावना श्यामल वृक्ष। मालती-कुंज = मालती-लता-मण्डप।


यमुना के तीर पर, तमाल तरु से मिलकर बनी हुई सुन्दर भौंरों से सुशोभित मालती-कुंज में, एक घड़ी धूप गँवा लीजिए।


चलित ललित स्रम स्वेदकन कलित अरुन मुख तैं न।

वन-विहार थाकी तरुनि खरे थकाए नैन॥364॥


चलित = चंचल। ललित = सुन्दर। स्रम = परिश्रम। स्वेदकन-कलित = पसीने की बूँदों शोभित। अरुन = ललाई, अत्यन्त लाल। बन-बिहार = वन में किये गये आमोद-प्रमोद। तरुनि = तरुणी, युवती।


चंचल और सुन्दर श्रम (स्वच्छन्द वन-विहार-जनित श्रान्ति) के पसीने की बूँदों वाले (गुप्त रूप से) वन में आमोद-प्रमोद करने से थकी हुई उस युवती के लाल मुखड़े से नायक की आँखें नहीं थकतीं (उसकी वह शोभा देखते-देखते नायक के नेत्र नहीं थकते।)



अपनैं कर गुहि आपु हठि हिय पहिराई लाल।

नौलसिरी औरै चढ़ी बौलसिरी की माल॥365॥


गुहि = गूँथकर। आपु = आप ही, स्वयंमेव। हिय = हृदय। नौलसिरी = नवलश्री = नवीन शोभा। औरैं = विलक्षण, विचित्र, निराली। बौलसिरी = मोलिश्री, मौलसिरी का फूल।


लाल (नायक) ने अपने ही हाथों से मौलसिरी की माला गूँथकर और हठ करके स्वयं ही उस (नायक) के गले में पहनाई। (फिर तो नायक द्वारा पहनाई गई उस मौलसिरी की माला से नायिका के सुन्दर शरीर पर) और ही तरह की (अपूर्व) नवीन शोभा चढ़ (छा) गई।


लै चुभकी चलि जाति जित-जित जलकेलि अधीर।

कीजत केसरि-नीर से तित-तित के सरि-नीर॥366॥


लै चुभकी = डुबकी लगाकर। जित = जहाँ। जल-केलि = जलक्रीड़ा। केसरि-नीर = केसर मिश्रित जल। सरि-नीर = नदी का पानी।


जल-विहार में चंचल बनी नायिका डुबकी मारकर जहाँ-जहाँ चली जाती है, वहाँ-वहाँ की नदी के (स्वच्छ) जल को (अपने केसरिया रंग के शरीर की पीली प्रभा से) केसर-मिश्रित जल के समान (पीला) कर देती है।



छिरके नाह नवोढ़-दृग कर-पिचकी जल जोर।

रोचन रँग लाली भई विय तिय लोचन-कोर॥367॥


नीठि नीठि उठि बैठि हूँ प्यौ प्यारी परभात।

दोऊ नींद भरैं खरैं गरैं लागि गिर जात॥372॥


नीठि नीठि = बड़ी मुश्किल से। प्यौ = पिय, प्रीतम। परभात = प्रभात, प्रातः। खरैं = अत्यन्त। गरैं लागि = गले लिपटकर।


प्रीतम और प्यारी (दोनों) प्रातःकाल बड़ी-बड़ी मुश्किल से उठ बैठते भी हैं। (और पुनः) दोनों अत्यन्त नींद में भरे होने के कारण (परस्पर) गले से लिपटकर (सेज पर) गिर जाते हैं।



लाज गरब आलस उमग भरे नैन मुसुकात।

राति रमी रति देति कहि औरै प्रभा प्रभात॥373॥


गरब = अभिमान। उमग = उत्साह। राति रमी रति = रात में किया गया समागम। औरै = और ही, विचित्र, अनोखा। प्रभा = छबि-छटा।

लज्जा, अभिमान, आलस्य और उमंग से भरे (तुम्हारे) नेत्र मुसकुरा रहे हैं। प्रातः काल की (तुम्हारी) यह अनोखी छटा रात में किया गया समागम (स्पष्ट) कहे देती है।


कुंज-भवनु तजि भवनु कौं चलियै नंदकिसोर।

फूलति कली गुलाब की चटकाहट चहुँ ओर॥374॥


कुंज-भवन = वृन्दावन का केलि-मंदिर। चटकाहट = चटक+आहट = कलियों के चिटखने का शब्द। चहुँ ओर = चारों तरफ।


हे नंदकिशोर (श्रीकृष्ण जी)! कुंजभवन को छोड़कर अब घर चलिए, (क्योंकि) गुलाब की कली खिल रही है (और उसकी) चटक चारों ओर सुन पड़ रही है-(अर्थात् अब प्रातः काल हुआ, रास-विलास छोड़िये।)


नटि न सीस साबित भई लुटी सुखनु की मोट।

चुप करि ए चारी करति सारी परी सरोट॥375॥


नटि = नहीं-नहीं करना। सीस साबित भई = तेरे ऊपर प्रमाणित हो गई। मोट = मोटरी, गठरी। चारी = चुगली। सारी = साड़ी, चुनरी। सरोट = सिकुड़न, शिकन।


नहीं-नहीं मत कर। अब तेरे मत्थे यह बात साबित हो गई कि तूने सुखों की मोटरी लूटी है। चुप हो जा, तेरी ये साड़ी में पड़ी हुई सिकुड़न ही चुगली कर रही है (कि यह किसी के द्वारा रौंदी गई है-क्योंकि रति-काल में स्वभावतः साड़ी मसल जाती है।)


मो सौं मिलवति चातुरी तूँ नहिं भानति भेउ।

कहे देत यह प्रगट हों प्रगट्यौ पूस पसेउ॥376॥


मो सौं = मुझसे। मिलवति चातुरी = चतुराई भिड़ा रही है, चालाकी कर रही है। भानति = (संस्कृत ‘भन्’ = कहना) कहती है। भेउ = भेद, रहस्य। पसेउ = पसीना। प्रगट हीं = स्पष्ट, प्रत्यक्ष।


मुझसे तू चतुराई की बातें कर रही है, भेद नहीं बतलाती। किन्तु (कड़ाके का जाड़ा पड़नेवाले इस) पूस महीने में पसीना प्रगट होकर यह स्पष्ट कहे देता है (कि तू किसी के साथ समागम कर आई है।)


सही रँगीलैं रतजगैं जगी पगी सुख चैन।

अलसौहैं सौहैं कियैं कहैं हँसीहैं नैन॥377॥


रतजगैं = किसी व्रत में रात-भर जागना। अलसौंहैं = अलसाये हुए। सौंहैं = शपथ, कसम। हँसौंहैं = हँसीले।


अरी रँगीली! (तेरा कहना) सही है। (तू व्रत के) रतजगे में ही जागी है (तभी तो) सुख और चैन में पगी है-आनन्द और उत्साह में मस्त है। (और, तेरे ये) हँसीले नेत्र भी, आलस में मस्त बने, शपथ खाकर यही कह रहे हैं।


नोट - नायिका गत रात्रि के अपने समागम की बात छिपाती है, इसपर सखी चुटकी लेती है।


यौं दलमलियतु निरदई दई कुसुम सौं गातु।

करु धरि देखौ धरधरा डर कौ अजौं न जातु॥378॥


दलमलियतु = मसलना, रौंदना। दई = दैव। करु हाथ। धरधरा = धड़कना। अजौं = अभी तक। उर = हृदय।


हाय रे दई! उस निर्दयी (नायक) ने इसके फूल के ऐसे शरीर को यों मसल दिया है कि हाथ धरके देखो, अभी तक इसके हृदय से धड़कन नहीं जाती-अभी तक भय और पीड़ा से इसकी छाती धड़क रही है।


छिनकु उघारति छिनु छुवति राखति छिनकु छिपाइ।

सबु दिनु पिय-खंडित अधर दरपन देखत जाइ॥379॥


छिनकु = छिन+एकु =क्षण। अधर = ओठ। दरपन = दर्पण, आईना। क्षण में उघारनी है, क्षण में छूनी है और पुनः क्षण में छिपा रखती है (कि कोई देख न ले।) यों उसका सारा दिन प्रीतम द्वारा खंडित किये गये अधर को दर्पण में देखने ही में बीतता है।


नोट - प्रीतम ने रति-क्षण-रंग-रस-मत्त होकर चुम्बन करते समय सुकोमल अधर पर दाँत गड़ा दिये थे, जिससे वह खंडित (रदच्छत) हो गया था।


औरै ओप कनीनिकनु गनी घनी सिरताज।

मनी धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज॥380॥


ओप = कान्ति। कनीनिकनु = आँखों की पुतलियाँ। गनी = गिनी हैं; मानी हैं। घनी = सबों में, बहुतेरों में। मनि = मणि, तेजस्विता। घनी = प्रीतम, नायक। पट = वस्त्र।


(तुम्हारी आँखों की) पुतलियों में आज कुछ दूसरी ही कान्ति है, (इसलिए तो मैंने इन्हें) सबों में सिरताज माना है। लाज-रूपी वस्त्र से छनकर ये प्रीतम के (निर्मल) नेह की मणि बनी हुई है-यद्यपि लज्जा से ढँकी हुई है, तो भी इनसे, नायक का प्रेम, कपड़े से ढँकी हुई (दिव्य) मणि की (उज्ज्वल) आभा के समान, प्रकट हो (झलक) रहा है।


कियौ जु चिबुक उठाइकै कम्पित कर भरतार।

टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेढ़ैं तिलक लिलार॥381॥


चिबुक = ठुड्डी। कर = हाथ। भरतार = पति। तिलक = टीका। टेढ़ीयै टैढ़ी फिरति = ऐंठती हुई ही घूमती फिरती है। लिलार = ललाट।


(प्रेमावेश से) काँपते हुए हाथों से पति ने जो ठुड्डी उठाकर (टीका) कर दिया, सो ललाट में उस टेढ़ी टीका को ही लगाये हुए वह टेढ़ी-ही-टेढ़ी बनी फिरती है-घमंड में ऐंठती हुई चलती है।


वेई गड़ि गाड़ैं परीं उपट्यौ हारु हियैं न।

आन्यौ मोरि मतंगु-मनु मारि गुरेरनु मैन॥382॥


गाड़ि = गड़कर, गड़ने से। गाड़ैं = गड्ढे। उपट्यौ = गड़कर गहरा दाग उखड़ आना। आन्यौ मोरि = मोड़ लाया। मतंगु = मतवाला हाथी। मनु = मन। गुरेरनु = गुलेल, गुलेती। मैंन = कामदेव।


कामदेव गुलेलों से मार-मारकर तुम्हारे मन रूपी मतवाले हाथी को इस ओर मोड़ (फेर) लाया है, उन्हीं (गुलेल की गोलियों) के गड़ने से ये गड्ढे़ पड़ गये हैं। (दूसरी स्त्री के साथ समागम करते समय) उसका हार तुम्हारे हृदय में नहीं उपटा है-(ये गड्ढे हार की मणियों के गड़ने से नहीं बने हैं।)


नोट - नायक दूसरी स्त्री के साथ विहार करके आया है। नायिका उपालम्भ देती है। अगले कई दोहों में ऐसे उपालम्भ मिलेंगे।


पलनु पीक अंजनु अधर धरे महाबरु भाल।

आजु मिले सु भली करी भले बने हौं लाल॥383॥


पलनु = पलकों में। अधर = ओठ। भाल = ललाट।


पलकों में (पान की) पीक है- भरत-रात कहीं दूसरी स्त्री के साथ जगे हो, उसीकी लाली है। अधरों पर अंजन लगा है-किसी मृगनैनी के कजरारे नयनों को चूमा है, उन्हीं का अंजन लग गया है और ललाट पर महावर धारण किये हुए हो-किसी मानिनी को पैरों पड़कर मनाया है, उसीका महावर लग गया है। आज (इस बाने से) मिले हो, सो अच्छा ही किया है (क्योंकि) हे लाल! (आज तुम) बड़े अच्छे बने हो-आज का तुम्हारा यह रूप बहुत बढ़िया दीख पड़ता है!


गहकि गाँसु औरै गहै रहे अधकहे बैन।

देखि खिसौंहैं पिय नयन किए रिसौंहैं नैन॥384॥


गहकि = क्रोधित होकर। गाँसु = वैमनस्य, अनख। अधकहे बैन = अधूरे वचन। खिसौंहैं = लज्जित। रिसौंहैं = रोषयुक्त।


क्रोधित होकर अधिक शत्रुता पकड़ ली- खूब उत्तेजित हो गई। आधे कहे हुए वचन मुख में ही रह गये। प्रीतम की लज्जित आँखें देखकर (उन्हें भर-रात दूसरी स्त्री के संग रहा समझकर, नायिका ने) अपनी आँखें रोषयुक्त कर लीं।


तेह तरेरौ त्यौरु करि कत करियत दृग लोल।

लीक नहीं यह पीक की सु्रति-मनि-झलक कपोल॥385॥


तेह = क्रोध। तरेरौ त्यौरु करि = त्यौरियाँ चढ़ाकर। लोल = चंचल। लीक = रेखा। सु्रति-मनि = कर्ण-भूषण की मणि। कपोल = गाल।


क्रोध में त्यौरियाँ चढ़ाकर आँखें क्यों चंचल कर रही हो? गालों पर यह पीक की रेखा नहीं है-किसी दूसरे ने चुम्बन किया है, उसके अधरों की लाली नहीं है (वरन्) कर्ण-भूषण की मणि की (लाल) झलक (प्रतिबिम्ब) है। दर्पणोज्ज्वल कपोलों में कर्णफूल-मणि की अरुण आभा प्रतिफलित हो रही है।


बाल कहा लाली भई लोइन कोइनु माँह।

लाल तुम्हारे दृगनु की परी दृगनु मैं छाँह॥386॥


लोइन = आँखें। कोइनु = आँखों के भीतर का उजला हिस्सा। माँह = में। दृगनु = आँखें। छाँह = छाया।


हे बाले! तुम्हारी आँखों के कोयों में लाली क्यों छा गई है? हे लाल! तुम्हारी आँखों की छाया ही मेरी आँखों में पड़ गई है-(तुम जो रात-भर किसी कामिनी के पास जगकर अपनी आँखें लाल-लाल बना लाये हो, उन्हीं की छाया मेरी आँखों में पड़ी है!)


नोट-नायिका ने परस्त्री-संगी नायक को देखते ही क्रुद्ध होकर आँखें लाल कर ली हैं। नायक इसका कारण पूछता है। नायिका अनुकूल जवाब देती है। बड़ी अनोखी सूझ है।


तरुन कोकनद बरन बर भए अरुन निसि जागि।

वाही कैं अनुराग दृग रहे मनो अनुरागि॥387॥


तरुन = नवीन, विकसित। कोकनद = लाल कमल। बरन = रंग। अरुन = लाल। अनुरागि रहे = रँग रहे।


रात-भर जगने से नये लाल कमल के सुन्दर रंग के समान नेत्र लाल हो गये हैं मानो उसी (अन्य स्त्री) के प्रेम में आपके नेत्र अनुरंजित हो रहे हैं-रँग गये हैं।


केसर केसरि-कुसुम के रहे अंग लपटाइ।

लगे जानि नख अनखुली कत बोलति अनखाइ॥388॥


केसर = पराग-तन्तु (जो लाल पतले डोरे के समान होता है), किंजल्क। अनखुली = अन खाने वाली, क्रोधिता।


केसर के फूल के पराग-तन्तु (नायक के) शरीर से लिपट रहे हैं। अरी क्रोधिता! उसे (दूसरी स्त्री के) नख लगा जानकर-परस्त्री-समागम के समय का नख-क्षत समझकर-तू क्यों अनखा (क्रोध से झुँझला) कर बोल रही है?


सदन सदन के फिरन की सद न छुटै हरिराइ।

रुचै तितै बिहरत फिरौ कत बिदरत उरु आइ॥389॥


सदन = घर। सद = आदत। हरिराइ = श्रीकृष्णचन्द्र। रुचै = भावे, नीक लगे, अच्छा जँचे। तितै = वहाँ। बिहरत फिरौ = मौज करते फिरो। बिदरत = विदीर्ण करते हो। उरु = हृदय। आइ = आकर।


हे कृष्णचन्द्र (तुम्हारी) घर-घर फिरने की आदत नहीं छूटती? खैर, जहाँ मन भावे, वहाँ विहरते फिरो। (किन्तु) मेरे पास आकर (मेरी) छाती क्यों विदीर्ण करते हो? (तुम्हें देख और तुम्हारी करतूत याद कर मेरी छाती फटने लगती है।)


पट कै ढिग कत ढाँपियत सोभित सुभग सुबेखु।

हद रद-छद छबि देत यह सद रद-छद की रेखु॥390॥


पट = कपड़ा। कै = करके। ढिग = निकट। सुवेखु = सुन्दर रूप से। रद-छद = ओठों। छबि = शोभा। सद = सद्यःकाल का, तुरत का। रद-छद = ओठों पर दाँत का घाव। रेख = रेखा, लकीर।


कपड़े निकट करके क्यों ढक रहे हो? सुभग और सुन्दर रूप से तो शोभ रहा है! दाँतों के घाव की ताजी रेखा से यह अधर बेहद शोभा दे रहा है-तुरत ही किसी स्त्री ने तुम्हारे अधर का चुम्बन करते समय दाँत गड़ाये हैं, जिसका चिह्न अत्यन्त शोभ रहा है।


मोहूँ सौं बातनु लगैं लगी जीभ जिहि नाँइ।

सोई लै उर लाइयै लाल लागियतु पाँइ॥391॥


मोहूँ सौं = मुझसे भी। नाँइ = नाम। उर = हृदय।


मुझसे भी बातें करते समय (तुम्हारी) जीभ जिसके नाम पर लगी है-अकस्मात् जिसका नाम तुम्हारे मुख से निकल गया है-उसीको लेकर हृदय से लगाओ। हे लाल! मैं तुम्हारे पाँव लगती हूँ-पैरों पड़ती हूँ।


लालन लहि पाऐं दुरै चोरी सौंह करैं न।

सीस चढ़े पनिहा प्रगट कहैं पुकारैं नैन॥392॥


लहि पाऐं = पकड़े जाने पर। दुरैं = छिपै। सौंह = शपथ। पनिहा = चोर पकड़ने वाले तांत्रिक। सीस चढ़े पुकारैं = बिना पूछे ही आप-से-आप बता रहे हैं।


हे लाल! पकड़े जाने पर शपथ करने से भी चोरी नहीं छिपती। ये तुम्हारे नेत्र पनिहा के समान सिर चढ़कर पुकार-पुकार स्पष्ट कह रहे हैं-तुम्हारे अलसाये हुए नेत्र देखने से ही सब बातें प्रकट हो जाती हैं (कि तुम कहीं रात-भर रमे हो)।


तुरत सुरत कैसैं दुरत मुरत नैन जुरि नीठि।

डौंड़ी दै गुन रावरे कहति कनौड़ी डीठि॥393॥


सुरत = समागम, मैथुन। मुरत = मुड़ते हैं। नीठि = मुश्किल से। डौंड़ी दैं = ढोल बजाकर। रावरे = आपके। कनौड़ी = लज्जित, अधीन। डीठि = दृष्टि


तुरत किया हुआ समागम कैसे छिप सकता है? (प्रमाण लीजिए-आपके अलसाये हुए) नेत्र मुश्किल से (मेरे नेत्रों से) जुड़ते हैं, और (फिर तुरत ही) मुड़ जाते हैं-मेरे सामने मुश्किल से आपकी आँखें बराबर होती हैं। आपकी यह लज्जित दृष्टि ही ढोल बजा-बजाकर आपके गुणों को कह रही है।


मरकत-भाजन-सलिल गत इंदु-कला कैं बैख।

झीन झगा मैं झलमलत स्यामगात नख-रेख॥394॥


मरकत = नीलमणि। भाजन = बर्तन। सलिल = जल। गत = में, अदर बेख = वेष = रूप, यहाँ समानता-सूचक है। झीन = महीन, बारीक। झगा = जामा, अँगरखा। नख-रेख = नख की रेखा, नख की खरौंट।


(श्रीकृष्ण के) साँवले शरीर में (समागम के समय राधा द्वारा दी गई) नख की रेखा नीलमणि के बर्तन में भरे हुए जल में द्वितीया के चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब के समान, महीन जामे के भीतर से झलमला रही है।


नोट - श्यामसुन्दर का श्याम शरीर नीलमणि का पात्र है। बारीक श्वेत वस्त्र का जामा उस (मणि-पात्र) में रक्खा गया (स्वच्छ) जल है और नख की रेखा दूज का चाँद है।


वैसीयै जानी परति झगा ऊजरे माँह।

मृगनैनी लपटी जु हिय बेनी उपटी वाँह॥395॥


बेनी = लम्बी चोटी। उपटी = दबकर दाग पड़ गया।


मृगनैंनी (नायिका) के हृदय में लिपटने से बाँह में जो (उसकी) वेणी का निशान पड़ गया है, सो उज्ज्वल जामे के अन्दर से वैसे ही स्पष्ट जान पड़ता है-दीख पड़ता है।


वाही की चित चटपटी धरत अटपटे पाइ।

लपट बुझावत बिरह की कपट भरेऊ आइ॥396॥


चटपटी = चाह। अटपटे = उलटे-सीधे। लपट = ज्वाला।


चित्त में तो उसी (अन्य स्त्री) की चाह लगी है। अतएव, पैर अटपटे पड़ते हैं-यथास्थान ठीक नहीं पड़ते। यों कपट से भरा हुआ भी-(यद्यपि मन दूसरी स्त्री से लगा है, तो भी केवल तसल्ली देने के लिएि ही)-(वह नायक) विरह की ज्वाला बुझा जाता है।


कत बेकाज चलाइयति चतुराई की चाल।

कहे देति यह रावरे सब गुन निरगुन माल॥397॥


कत = क्यों। बेकाज = व्यर्थ। निरगुन माल = बिना डोरे की माला। चतुराई की चाल चलाइयति = चालाकी-भरी बातें करते हो।


क्यों व्यर्थ चतुराई की बातें करते हो? यह बिना डोरे की माला ही आपके सब गुणों को कहे देती है (कि आपने किसी अन्य स्त्री का गाढ़ालिंगन किया है, जिससे उसकी छाती की माला का निशान बिना डोरी की माला के ऐसा आपकी छाती में गड़ गया है।)


पावक सो नयननु लगै जावक लाग्यौ भाल।

मुकुरु होहुगे नैंकु मैं मुकुरु बिलोकौ लाल॥398॥


पावक = आग। जावक = महावर। मुकुरु होहुगे = मुकर (नठ) जाओगे। नैंकु = जरा, तुरत, एक क्षण में। मुकुरु आईना।


आपके मस्तक में लगा हुआ (किसी दूसरी स्त्री के पैर का) महावर (मेरे) नेत्रों में आग के समान (लाल) मालूम पड़ता है। एक क्षण में ही तुम मुकर (इन्कार कर) जाओगे, अतएव हे लाल! आईने में देख लो।


रही पकरि पाटी सु रिस भरै भौंह चितु नैन।

लखि सपने पिय आन-रति जगतहुँ लगत हियैं न॥399॥


रिस = क्रोध। आन-रति = पर-स्त्री प्रसंग करते हुए। हियै = हृदय से।


पलँग की पाटी पकड़कर रह गई। भौंह, मन और नेत्र क्रोध से भर गये-भौंहें तिरछी हुईं, मन रोषयुक्त हुआ और आँखें लाल हो गईं। स्वप्न में प्रीतम को दूसरी स्त्री से समागम करते देख जगने पर भी (निकट ही सोये हुए प्रीतम के) हृदय से नहीं लगती।


रह्यौ चकित चहुँधा चितै चितु मेरो मति भूलि।

सूर उयै आए रही दृगनु साँझ-सी फूलि॥400॥


चहुँधा = चारों ओर। सूर = सूर्य। दृगनु = आँखें।


ये (नायक) चकित होकर चारों ओर देख रहे हैं-भेद खुलने के भय से इधर-उधर ताक-झाँक कर रहे हैं। हे मेरे चित! तुम मत भूलो। देखो, ये सूर्योदय के समय तो आये हैं, किन्तु इनकी आँखें संध्या-सी फूल रही हैं- लाल-लाल हो रही है। (अतएव, निस्संदेह रात-भर कहीं जगे हैं।)



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