जा तन की झाँईं परैं स्यामु हरित दुति होइ॥1॥
भव-बाधा = संसार के कष्ट, जन्ममरण का दुःख। नागरि = सुचतुरा, झाँईं = छाया। हरित = हरी। दुति = द्युति, चमक।
वही चतुरी राधिका मेरी सांसारिक बाधाएँ हरें - नष्ट करें; जिनके (गोरे) शरीर की छाया पड़ने से (साँवले) कृष्ण भी द्युति हरी हो जाते है।
नोट-नीले और पीले रंग के संयोग से हरा रंग बनता है। कृष्ण के अंग का रंग नीला और राधिका का कंचन-वर्ण (पीला) - दोनों के मिलने से ‘हरे’ रंग प्रफुल्लता की सृष्टि हुई। राधिका से मिलते ही श्रीकृष्ण खिल उठते थे।
सीस-मुकुट कटि-काछनी कर-मुरली उर-माल।
इहिं बानक मो मन बसो सदा बिहारीलाल॥2॥
कटि = कमर। बानक = बाना, सजधज। बिहारीलाल = भगवान् कृष्ण।
सिर पर (मोर) मुकुट, कमर में (पीताम्बर की) काछनी, हाथ में मुरली और हृदय पर (मोती की) माला - हे बिहारीलाल, इस बाने से - इस सजधज से - मेरे मन में सदा वास करो।
मोहनि मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ।
बसति सुचित अंतर तऊ प्रतिबिम्बित जग होइ॥3॥
जोइ = देखना। सुचित = निर्मल चित्त, स्वच्छ हृदय। सुचित = निर्मल चित्त, स्वच्छ हृदय। अंतर = भीतर। प्रतिबिम्बित = झलकती है।
श्रीकृष्ण की मोहिनी मूर्त्ति की गति बड़ी अद्भुत देखी जाती है। वह (मूर्त्ति) रहती (तो) है स्वच्छ हृदय के भीतर, पर उसकी झलक दीख पड़ती है सारे संसार में!
तजि तीरथ हरि-राधिका-तन-दुति करि अनुराग।
जिहिं ब्रज-केलि निकुंज-मग पग-पग होत प्रयाग॥4॥
ब्रज-केलि = ब्रजमण्डल की लीलाएँ। निकुंज-मग = कुंजों के बीच का रास्ता। प्रयोग = तीर्थराज। निकुंज = लताओं के आपस में मिलकर तन जाने से उनके नीचे जो रिक्त स्थान बन जाते हैं, उन्हें निकुंज वा कुंज कहते हैं, लता-वितान।
तीर्थों में भटकना छोड़कर उन श्रीकृष्ण और राधिका के शरीर की छटा से प्रेम करो, जिनकी ब्रज में की गई क्रीड़ाओं से कुंजों के रास्ते पग-पग में प्रयाग बन जाते हैं - प्रयाग के समान पवित्र और पुण्यदायक हो जाते हैं।
सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर।
मनु ह्वै जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर॥5॥
सुरभि समीर = वासंतिक फूलों की गंध से सुगंधित हवा। ह्वै जात = हो जाता है। अजौं = आज भी।
जहाँ की कुंजे घनी हैं, छाया सुख देने वाली है, पवन शीतल और सुगंधित है, उस यमुना के तीर पर जाते ही आज भी मन वैसा ही हो जाता है-कृष्ण-प्रेम में उसी प्रकार मग्न हो जाता है।
सखि सोहति गोपाल कैं उर गुंजन की माल।
बाहिर लसति मनौ पिए दावानल की ज्वाल॥6॥
गंुजन = गुंजा, घुँघची; - एक जंगली लता का फल, जो लाल मूँगे की तरह छोटा होता है; उसकी माला सुन्दर होती है। गोपाल = कृष्ण। दावानल = जंगल में लगी हुई आग। ज्वाल = आग की लाल लपट। लसति = शोभती है।
हे सखी! श्रीकृष्ण की छाती पर (लाल-लाल) गुंजाओं की माला शोभती है। (वह ऐसी जान पड़ती है) मानो पिये हुए दावानल की ज्वाला बाहर शोभा दे रही हो - श्रीकृष्ण जिस दावाग्नि को पी गये थे, उसी की लाल लपटें बाहर फूट निकली हों।
जहाँ जहाँ ठाढ़ौ लख्यौ स्यामु सुभग सिरमौरु।
बिनहूँ उनु छिन गहि रहतु दृगनु अजौं वह ठौरु॥7॥
सुभग-सिरमौरु = सुन्दर पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ। ठौर = स्थान। छन = क्षण। गहि रहतु = पकड़ लेता है।
सुन्दरों के सिरताज श्यामसुन्दर को जहाँ-जहाँ मैंने खड़े हुए देखा था, उनके न रहने पर भी, आज भी वे स्थान आँखों को एक क्षण के लिए (बरबस) पकड़ लेते हैं - आँख वहाँ से नहीं हटतीं।
चिरजीवौ जोरी जुरे क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ए बृषभानुजा वे हलधर के बीर॥8॥
चिरजीवौ = 1. सदा जीते रहो, 2. चिर+जीवो = घासपात खाते रहो। जुरै = जुटे, एक साथ मिले। स्नेह = 1. प्रेम, 2. घी। गँभीर = गम्भीर अगाध। घटि = न्यून, कम, छोटा। वृषभानुजा = 1. वृषभानु+ जा = वृषभानु की बेटी, 2. वृषभ + अनुजा = साँड की छोटी बहिन। हलधर = 1. बलदेव, 2. हल+धर = बैल। बीर = भाई
(राधा-कृष्ण की यह) जोड़ी चिरजीवी हो। (इनमें) गहरा प्रेम क्यों न बना रहे? (इन दोनों में) कौन किससे घटकर है? यह हैं (बड़े बाप!) वृषभानु की (लाड़ली) बेटी, (और) वे हैं (विख्यात वीर) बलदेवजी के छोटे भाई!
श्लेषार्थ - यह जोड़ी घासपात खाती रहे! इनसे अगाध घी क्यों न प्राप्त हो? घटकर कौन है? ये हैं साँड़ की छोटी बहिन, तो वे हैं बरद के छोटे भाई।
नोट-इस छोटे से दोहे में उत्कृष्ट श्लेष लाकर कवि ने सचमुच कमाल किया है।
नित प्रति एकत ही रहत बैस बरन मन एक।
चहियत जुगल किसोर लखि लोचन जुगल अनेक॥9॥
एकत = एकत्र, एक साथ। बैस = बयस, अवस्था। बरन = वर्ण, रूप-रंग। जुगल-किशोर = दोनों युवक-युवती, किशोर-किशोरी की जोड़ी। लखि चहियत = देाने के लिए चाहिए। लोचन-जुगल = आँखों के जोड़े।
दोनों सदा एक साथ ही रहते हैं। (क्यों न हो? दोनों की) अवस्था, रूप-रंग और मन (भी तो) एक-से हैं। इस युगलमूर्त्ति (राधाकृष्ण) को देखने के लिए तो आँखों के अनेक जोड़े चाहिए-दो आँखों से देखने पर तृप्ति हो ही नहीं सकती।
नोट-पद्माकर ने इस जुगल जोड़ी के परस्पर-दर्शन-प्रेम पर कहा है -
मनमोहन-तन-धन सघन रमनि-राधिका-मोर।
श्रीराधा-मुखचंद को गोकुलचंद-चकोर॥
मोर-मुकुट की चन्द्रिकनु यौं राजत नँदनंद।
मनु सखि-सेखर की अकस किय सेखर सतचंद॥10॥
मोर-मुकुट = मोर के पंख का बना मुकुट। चन्द्रिकनु = मोर की पूँछ के पर में दूज के चाँद-सा चमकीला चिह्न; मोर के पंख की आँख। नँदनंद = नंद के पुत्र, कृष्ण। मनु = मानों। ससिसेखर = जिसके सिर पर चन्द्रमा हो, चन्द्रशेखर, शिव। अकस = ईर्ष्या, डाह। सेखर = सिर। सत = शत, सौ (यहाँ अनेकवाची)।
मोर-मुकुट की चन्द्रिकाओं से (श्रीकृष्ण) ऐसे शोभते हैं, मानों शिवजी की ईर्ष्या से उन्होंने अपने सिर पर अनेक चन्द्रमा धारण किये हों।
नाचि अचानक हीं उठे बिनु पावस बन मोर।
जानति हौं, नन्दित करी यहि दिसि नंद-किसोर॥11॥
पावस = वर्षा ऋतु। नंदित = आनन्दित।
बिना वर्षा-ऋतु के अचानक ही वन में मोर नाच उठे! जान पड़ता है, इस दिशा को नंद के लाड़ले (घनश्याम) ने आनन्दित किया है।
नोट-श्रीकृष्ण का सघन-मेघ-सदृश श्यामल शरीर देखकर भ्रमवश एकाएक मोर नाच उठे थे।
प्रलय करन बरषन लगे जुरि जलधर इक साथ।
सुरपति गरबु हर्यो हरषि गिरिधर गिरि धर हाथ॥12॥
प्रलय करना = संसार को जलमग्न करने के लिए। जुरि = मिलाकर। जलधर = मेघ। सुरपति = इन्द्र। गरबु (गर्व) = घमंड। गिरिधर = कृष्ण। गिरि = पहाड़। धर = धारण कर
सब मेघ एक साथ मिलकर प्रलय करने के लिए बरसने लगे। गोवर्द्धनधारी श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर - इसके लिए मन में कुछ भी दुःख न मानकर - (गोवर्द्धन) पर्वत हाथ में धारण कर - उठाकर - इन्द्र का घमंड चूर किया।
डिगत पानि डिगुलात गिरि लखि सब ब्रज बेहाल।
कंप किसोरो दरसिकै खरैं लजाने लाल॥13॥
पानि = हाथ। डिगुलात = डगमगाना। बेहाल = विह्वल, बेचैन। कंप = थरथराहट। किसोरी = नवेली, राधिका। खरै = विशेष रूप से। लाल = कृष्ण।
हाथ हिलता और पर्वत डगमगाता है - यह देखकर ब्रजवासी व्याकुल हो गये। राधिका के दर्शन करके (मेरे शरीर के) कम्प के कारण ऐसा हुआ है - पर्वत हिला है (यह समझकर) कृष्णजी खूब ही लजित हुए।
नोट-इसी प्रसंग पर किसी कवि ने गजब का मजमून बाँधा है। देखिए, कवित्त-
मौंहनि कमान तानि फिरति अकेली ‘बधू’ टापै ए बिसिख कोर कज्जल भरै है री। तोहिं देखि मेरेहू गोविंद मन डोलि उठै मधवा निगोड़ो उतै रोप पकरै है री॥
बलि बिलि जाहुँ बृषभानु की कुमारी मेरो नैकु कह्यौ मान तेरो कहा बिगरै है री।
चंचल चपल ललचौहैं दृग मूँदि राखु जौलौं गिरिधारी गिरि नख पै धरै है री॥
लोपे कोपे इन्द्र लौं रोपे प्रलय अकाल।
गिरिधारी राखै सबै गो गोपी गोपाल॥14॥
लौं = तक। अकाल = असमय।
अपनी पूजा के लुप्त होने से क्रुद्ध हुए इन्द्र तक ने असमय में ही प्रलय करना चाहा। (किन्तु) गिरिधारी श्रीकृष्ण ने (गोवर्द्धन धारण कर) गो, गोपी और गोपाल-सबकी रक्षा की।
नोट - ‘इन्द्र लौं’ का अभिप्राय यह कि इसके पहले अघासुर, बकासुर आदि के उपद्रव भी हो चुके थे।
लाज गहौ बेकाज कत घेरि रहे घर जाँहि।
गोरसु चाहत फिरत हौ गोरसु चाहत नाँहि॥15॥
बेकाज = व्यर्थ, बेकार, अकारण। कत = क्यों। गोरस = गो+रस = इन्द्रियों का रस, चुम्नालिंगन आदि। गोरस = दही-दूध आदि।
कुछ लाज भी रक्खो-यों बेशर्म मत बनो। मैं घर जा रही हूँ व्यर्थ मुझे क्यों घेर रहे हो? (अब मैंने समझा कि) तुम इन्द्रियों का रस चाहते हो, दही-दूध नहीं।
मकराकृति गोपाल कैं सोहत कुंडल कान।
धरथौ मनौ हिय-गढ़ समरु ड्यौढ़ी लसत निसान॥16॥
मकराकृति = मकर+ आकृति = मछली के आकार का। धरîौ = अधिकार कर लिया। समरु = स्मर = कामदेव। ड्यौढ़ी = फाटक, द्वार। निसान = झंडा।
श्रीकृष्ण के कानों में मछली के आकार के कुंडल सोह रहे हैं। मानो कामदेव ने हृदय-रूपी गढ़ पर अधिकार कर लिया है और गढ़ के द्वार पर उनकी ध्वजा फहरा रही है।
नोट - कामदेव के झंडे पर मछली या गोह का चिह्न माना गया है। इसीसे उन्हें मीनकेतु, झखकेतु, मकरध्वज आदि कहते हैं।
गोधन तूँ हरष्यो हियैं घरियक लेहि पुजाइ।
समुझि परैगी सीस पर परत पसुनु के पाइ॥17॥
गोधन = गोबर की बनी हुई गोवर्द्धन की प्रतिमा, जिसे कार्तिक शुल्का प्रतिपदा को गृहस्थ अपने द्वार पर पूजते हैं और पूजा के बाद पशुओं से रौंदवाते हैं। घरियक = घरी+एक = एक घड़ी।
अरे गोधन! तू हृदय में हर्षित होकर एक घड़ीभर अपनी पूजा करा ले। सिर पर पशुओं के पाँव पड़ने ही (इस पूजा की यथार्थता) समझ पड़ेगी!
मिलि परछाँहीं जोन्ह सौं रहे दुहुनु के गात।
हरि-राधा इक संग हीं चले गली महिं जात॥18॥
परछाँही = छाया। जोन्ह = चाँदनी। दुहुन = दोनों। गात = शरीर।
दोनों के शरीर (एक का गोरा और दूसरे का साँवला) परछाई और चाँदनी में मिल रहे हैं। यों, श्रीकृष्ण और राधा एक ही साथ (निःशंक भाव से) गली में चले जाते हैं।
नोट - राधा का गौर शरीर उज्ज्वल चाँदनी में और श्रीकृष्ण का श्यामल शरीर राधा की छाया में मिल जाता था। यों उन दोनों को गली में जाते कोई देख नहीं सकता था। फलतः चाँदनी रात में भी वे निःशंक चले जाते थे।
गोपिनु सँग निसि सरद को रमत रसिकु रसरास।
लहालेछ अति गतिनु की सबनि लखे सब पास॥19॥
रमत = रम रहे हैं, आनन्द कर रहे हैं। रसरास = रस-रासलीला। लहाछेह = एक प्रकार का नाच जिसमें बड़ी तेजी से चक्रवत् घूमना पड़ता है; घूमते-घूमते मालूम होता है कि चारों ओर की चीजें पास नाचने लगीं।
शरद ऋतु की रात में, गोपियों के साथ, रसिक श्रीकृष्ण रसीले रास में रम रहे हैं। अत्यन्त चंचल गति के ‘लहाछेह’ नामक नृत्य के कारण सबने श्रीकृष्ण को सबके पास देखा।
मोर-चन्द्रिका स्याम-सिर चढ़ि कत करति गुमानु।
लखिबी पायन पै लुठति सुनियतु राधा-मानु॥20॥
मोर-चन्द्रिका = मुकुट में लगे मोर के पंखों की आँखें-कलँगी। गुमान = घमंड। कत = क्यों, कितना। लखिबी = देखूँगी। लुठत = लोटते हुए। मान = रोष, रूठना।
अरी मोर-चन्द्रिका! कृष्ण के सिर पर चढ़कर क्यों इतरा रही है? सुना है, राधा मान करके बैठी हैं। (अतएवं शीघ्र ही) तुझे उनके पाँवों पर लौटते हुए देखूँगी।
नोट - मानिनी राधा को श्रीकृष्ण जब मनाने जायेंगे, तब उनके पैरों पर माथा टेककर मनायँगे। उस समय मोर-चंद्रिका को राधा के पाँव पर लोटना ही होगा। मान-भंजन का भव्य वर्णन है।
सोहत ओढ़ें पीत पटु स्याम सलौनें गात।
मनौ नीलमनि-सैल पर आतप पर्यौ प्रभात॥21॥
पीतपटु = पीला वस्त्र, पीताम्बर। सलौनें ( स = सहित, लौने=लावण्य) = नमकीन, सुन्दर। नीलमनि = नीलम। आतप = धूप।
सुन्दर साँवले शरीर पर पीताम्बर ओढ़े श्रीकृष्ण यों शोभते हैं मानों नीलम के पहाड़ पर प्रातःकाल की (सुनहली) धूप पड़ी हो।
नोट - यहाँ कृष्णजी की समता नीलम के पहाड़ से और पीताम्बर की तुलना धूप से की गई है। प्रातः रवि की दिव्य और शीतल मधुर किरणों से पीताम्बर की उपमा बड़ी अनूठी है।
किती न गोकुल कुल-बधू काहि न किहिं सिख दीन।
कौनैं तजी न कुल-गली ह्वै मुरली-सुर लीन॥22॥
किती = कितनी। काहि = किसको। किहिं = किसने। सिख = शिक्षा। कुल-गली = वंश परम्परा की प्रथा।
गोकुल में न जाने कितनी कुलवधुएँ हैं और किसको किसने शिक्षा न दी? (परन्तु कुलवधू होकर और उपदेश सुनकर भी) वंशी की तान में डूबकर किसने कुल की मर्यादा न छोड़ी?
अधर धरत हरि कै परत ओठ-डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्र-धनुष रँग होति॥23
अधर = होंठ, ओष्ठ। डीठि = दृष्टि। हरित = हरा।
होठों पर (वंशी) धरते ही श्रीकृष्ण के (लाल) होंठ (श्वेत, श्याम और रक्त वर्ण) दृष्टि तथा (पीले) वस्त्र की ज्योति (उस वंशी पर) जब पड़ती है, तब वह हरे बाँस की वंशी इन्द्रधनुष की-सी बहुरंगी हो जाती है।
नोट - इन्द्रधनुष वर्षाकाल में आकाश-मंडल पर उगता है। वह मण्डलाकार चमकीला, रँगीला और सुहावना होता है। उसमें सात रंग देखे जाते हैं। यहाँ कवि ने वंशी की रंगों की कल्पना बड़ी खूबी से की है। होंठ के लाल रंग और वस्त्र के पीले रंग के मिलने से नारंगी रंग, फिर होंठ के लाल रंग और दृष्टि के श्याम रंग से बैजनी रंग-इसी प्रकार, बाँसुरी के हरे रंग और अधरों के लाल रंग से पीला रंग इत्यादि। भगवान श्यामसुन्दर का शरीर सघन मेघ, उसमें पीताम्बर की छटा दामिनी की दमक और बाँसुरी इन्द्रधनुष-जिसमें अधर, कर-कमल, दन्त-पंक्ति, नख-द्युति और ‘श्वेत-स्याम-रतनार’ दृष्टि की छाया प्रतिबिम्बित है! धन्य वर्णन!
कविवर मैथिलीशरणजी गुप्त ने भी ‘जयद्रथ-वध’ में खूब कहा है-
प्रिय पांचजन्य करस्थ हो मुख-लग्न यों शोभित हुआ।
कलहंस मानो कंज-वन में आ गया लोभित हुआ॥
छुटी न सिसुता की झलक झलक्यौ जोबनु अंग।
दीपति देह दुहूनु मिलि दिपति ताफता रंग॥24॥
सिसुता = शिशुता = बचपन। जोबनु = जवानी। देह-दीपति = देह की दीप्ति, शरीर की चमक। ताफता = धूपछाँह नामक कपड़ा जो सीप की तरह रंग-बिरंग झलकता या मोर की करदन की तरह कभी हल्का और कभी गाढ़ा चमकीला रंग झलकता है। ‘धूप+छाँह’ नाम से ही अर्थ का आभास मिलता है। दिपति = चमकती है।
अभी बचपन की झलक छूटी ही नहीं, और शरीर में जवानी झलकने लगी। यों दोनों (अवस्थाओं) के मिलने से (नायिका के) अंगों की छटा धूपछाँह के समान (दुरंगी) चमकती है।
तिय तिथि तरनि किसोर-वय पुन्य काल सम दोनु।
काहूँ पुन्यनु पाइयतु बैस-सन्धि संक्रोनु॥25॥
तरनि = सूर्य। सम = समान राशि में आना, इकट्ठा होना। दोनु = दोनों। संक्रोनु = संक्रान्ति। बैस = वयस, वय, उम्र।
स्त्री (नायिका) तिथि है और किशोरावस्था (लड़कपन और जवानी का संधिकाल) सूर्य है। ये दोनों पुण्य-काल में इकट्ठे हुए हैं। वयःसन्धि (लड़कपन की अन्तिम और जवानी की आरंभिक अवस्था) रूपी संक्रान्ति (पवित्र पर्व) किसी (संचित) पुण्य ही से प्राप्त होती है।
नोट - कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है-
उत सूरज राशि तजै जब लौं नहिं दूसरि रासि दबावतु है।
तब लौं वह अन्तर को समयो अति उत्तम बेद बतावतु है॥
इतहू जब बैस किसोर-दिनेस दुहू वय अन्तर आवतु है।
सुकृती कोउ पूरब पुन्यन ते बिबि संक्रम को छनु पावतु है॥
लाल अलौकिक लरिकई लखि लखि सखी सिहाति।
आज कान्हि मैं देखियत उर उकसौंहीं भाँति॥26॥
सिहाति = ललचाती है। उकसौंही-भाँति = उभरी हुई-सी, उठी-सी, अंकुरित-सी।
ऐ लाल! इसका विचित्र लड़कपन देख-देखकर सखियाँ ललचती हैं। आज-कल में ही (इसकी) छाती (कुछ) उभरी-सी दीख पड़ने लगी है।
भावुक उभरौंहौं भयो कछुक पर्यौ भरुआइ।
सीपहरा के मिस हियौ निसि-दिन देखत जाय॥27॥
भावुक (भाव+एकु) = कुछ-कुछ। उभरौंहौं = विकसित, उभरे हुए। भरु = भार, बोझ। सीपहरा = सीप से निकले मोतियों की माला। मिस = बहाना। हियो = हृदय, छाती।
(उसकी छाती) कुछ-कुछ उभरी-सी हो गई है (क्योंकि उस पर अब) कुछ बोझ भी आ पड़ा है। (इसलिए) मोती की माला के बहाने अपनी छाती देखते रहने में ही (उसके) दिन-रात बीतते हैं।
इक भीजैं चहलैं परैं बूड़ैं वहैं हजार।
किते न औगुन जग करै नै वै चढ़ती बार॥28॥
भीजैं = शराबोर हुए। चहलैं परैं = दलदल में फँसें। बूड़ैं = डूब गये। नै = नदी। बै = वय, अवस्था। औगुन = उत्पात, अनर्थ।
कोई भींगता है, कोई दलदल में फँसता है, और हजारों डूबते बहे जाते हैं। नदी और अवस्था (जवानी) चढ़ते (उमड़ते) समय संसार के कितने अवगुण नहीं करती हैं।
नोट - उठती जवानी में कोई प्रेम-रंग में शराबोर होता है, कोई वासना-रूपी दलदल में फँसता है, कोई विलासिता में डूब जाता है, कितने उमंग-तरंग में बह जाते हैं। क्या-क्या उपद्रव नहीं होते। नदी में बाढ़ आने पर तरह-तरह के अनर्थ होते ही हैं।
अपने अँग के जानि कै जोबन नृपति प्रबीन।
स्तन मन नैन नितंब कौ बड़ो इजाफा कीन॥29॥
अपने अँग के = अपना शरीर, सहायक। स्तन = छाती। नितम्ब = चूतड़। इजाफा = तरक्की, बढ़ती।
अपना शरीरी (सहायक) समझकर यौवनरूपी चतुर राजा ने (नायिका के) सतन, मन, नयन और नितम्ब को बड़ी तरक्की दी है।
नोट - जवानी आने पर उपर्युक्त अंगों का स्वाभाविक विकास हो जाता है।
देह दुलहिया की बढ़ै ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति।
त्यौं त्यौं लखि सौत्यैं सबै बदन मलिन दुति होति॥30॥
दुलहिया = दुलहिन। जोबन = जवानी। बदन = मुख।
दुलहिन की देह में ज्यों-ज्यों जवानी की ज्योति बढ़ती है त्यों-त्यों (उसे) देखकर सभी सौतिनों के मुख की द्युति मलिन होती जाती है।
नोट - सौतिनों का मुख मलिन इसलिए होता जाता है कि अब नायक उसीपर मुग्ध रहेगा, हमें पूछेगा भी नहीं।
नव नागरि तन मुलुक लहि जोबन आमिर जोर।
घटि बढ़ि तैं बढ़ि घटि रकम करीं और की और॥31॥
आमिर = हाकिम, शासक। जोर = जबरदस्त। रकम = जमाबन्दी।
नागरी (नायिका) ने शरीररूपी नवीन देश को पाकर यौवन रूपी जबरदस्त हाकिम ने (कहीं) बढ़ती को घटाकर और (कहीं) घटी को बढ़ाकर जमाबन्दी और की और ही कर दी-कुछ-का-कुछ बना दिया।
नोट - भावार्थ यह है कि किसी अंग को घटा दिया- जैसे, कटि आदि- और किसी अंग को बढ़ा दिया- जैसे, कुच आदि। जब कोई राजा नया देश प्राप्त करता है, तब वह उलट-फेर करता ही है।
लहलहाति तन-तरुनई लचि लगि-लौं लफि जाइ।
लगे लाँक लोइन भरी लोइनु लेति लगाइ॥32॥
लचि = लचककर। लगि = लग्गी, बाँस की पतली शाखा। लौं = समान। लफि जाय = झुक जाती है। लाँक (लंक) = कमर। लोइन = लावण्य, सुन्दरता। लोइनु = लोचन, आँख।
शरीर में जवानी उमड़ रही है (जिसके बोझ से वह) नायिका बाँस की पतली छड़ी-सी लचककर झुक जाती है। उसकी कमर लावण्य से भरी हुई दीखती है और (देखने वालों की) आँखों को (बरबस) अपनी ओर खींच लेती है।
सहज सचिक्कन स्यामरुचि सुचि सुगंध सुकुमार।
गनतु न मनु पथु अपथु लखि बिथुरे सुथरे बार॥33॥
सहज = स्वाभाविक। स्यामरुचि = काले। सुचि = पवित्र। बिथुरे = बिखरे हुए। गनतु = समझता या विचारता है। अपथु = कुपंथ। सुथरे = स्वच्छ, सुन्दर।
स्वभावतः चिकने, काले, पवित्र गंधवाले और कोमल- ऐसे बिखरे हुए सुन्दर बालों को देखकर मन सुमार्ग और कुमार्ग कुछ भी नहीं विचारता।
वेई कर ब्यौरनि वहै ब्यौरो कौन विचार।
जिनहीं उरझ्यौ मो हियै तिनहीं सुरझे बार॥34॥
वेई = वे ही। ब्यौरनि = सुलझाने का ढंग। ब्यौरो = ब्यौरा, भेद। उरझयौ = उलझा। बार-बाल, केश। सुरझे = सुलझा रहे हैं।
वे ही हाथ हैं, बाल सुझाने का ढंग भी वही है। (हे मन!) विचार तो सही कि भेद (रहस्य) क्या है? (मालूम होता है) जिन (नायक) से मेरा हृदय उलझा हुआ है, वे ही बाल भी सुलझा रहे हैं।
नोट - नायक प्रेमाधिक्य के कारण स्त्री (नाइन) का वेष बनाकर नायिका के बाल सुलझा रहा है। इसी बात पर नायिका चिंता कर रही है कि हो-न-हो, वे ही इस स्त्री रूप में हैं।
कर समेटि कच भुज उलटि खएँ सीस-पटु डारि।
काकौ मनु बाँधै न यह जूरा बाँधनिहारि॥35॥
कच = केश। समेटि = गुच्छे की तरह सुलझाकर । खएँ = पखौरा। सीसपट = सिर का आँचल। काको = किसका। जूग = जूड़ा, केश-ग्रंथि, वेणी का कुण्डलाकार बन्धन। बाँधनिहारि = बाँधनेवाली।
बालों को हाथों से समेट, भुजाओं को उलटे और सिर के आँचल को अपने पखौरों पर डाले हुई यह जूड़ा बाँधनेवाली भला किसका मन नहीं बाँध लेती?
छुटे छुटावत जगत तैं सटकारे सुकुमार।
मन बाँधत बेनी बँधे नील छबीले बार॥36॥
सटकारे = छरहरे, लम्बे। छुटाबत = छुड़ाते हैं।
लम्बे और कोमल (बाल) खुले रहने पर संसार से छुड़ाते हैं-सांसारिक कामों से विमुख बनाते हैं-और ये ही काले सुन्दर बाल वेणी के रूप में बँध जाने पर मन को बाँधते हैं।
नोट - लटों में कभी दिल को लटका दिया।
कभी साथ बालों के झटका दिया॥ मीरहसन
कुटिल अलक छुटि परत मुख बढ़िगौ इतौ उदोत।
बंक बकारी देत ज्यौं दामु रुपैया होत॥37॥
कुटिल = टेढ़ी। अलक = केश-गुच्छ, लट। उदोत = कान्ति, चमक। बंक = टेढ़ी। दाम = दमड़ी। छुटि परत = बिखरकर झूलने लगता है। बकारी = टेढ़ी लकीर जो किसी अंक के दांई ओर उसके रुपया सूचित करने के लिए खींच दी जाती है।
मुख पर टेढ़ी लट के छुट पड़ने से (नायिका के मुख की) कान्ति वैसे ही बढ़ गई है, जैसे टेढ़ी लकीर (बिकारी) देने से दाम का मोल बढ़कर रुपया हो जाता है।
नोट - दाम) 1 यों लिखते हैं और रुपया 1) यों। अभिप्राय यह है कि वही बाल स्वाभाविक ढंग से पीछे रहने पर उतना आकर्षित नहीं होता जितना उलटकर मुख पर पड़ने से होता है। जैसे, बिकारी अंक के पीछे रहने पर दाम का सूचक है और आगे रहने पर रुपये का।
ताहि देखि मनु तीरथनि बिकटनि जाइ बलाइ।
जा मृगनैनी के सदा बेनी परसतु पाइ॥38॥
परसत = स्पर्श करती है। बेनी = चोटी, केश-पाश (पक्षान्तर-तीर्थराज त्रिवेणी)। बलाइ = बलैया, नौजी। बिकटनि = विकट, दुर्गम।
जिस मृगनयनी के पाँवों को सदा वेणी (त्रिवेणी) स्पर्श करती है-जिसकी लम्बी चोटी सदा पाँवों तक झूलती रहती है-उसे देखकर मन विकट तीर्थों (का अटन करने) को बलैया जाय!
नीकौ लसतु लिलार पर टीकौ जरितु जराइ।
छविहिं बढ़ावतु रवि मनो ससि-मंडल मैं आइ॥39॥
जरितु = जड़ा हुआ। जराइ = जड़ाव। टीकौ = माँगटीका, शिरोभूषण। ललाट पर जड़ाऊ टीका खूब शोभता है मानो चन्द्रमंडल में आकर सूर्य (चन्द्रमा की) शोभा बढ़ा रहा हो।
नोट - नायिका का ललाट चंद्र-मंडल है और जड़ाऊ टीका सूर्य। चंद्र-मंडल में सूर्य के आते ही चंद्रमा की शोभा नष्ट हो जाती है। किन्तु यहाँ तो रत्न-खचित टीके से मुखचंद्र की छटा कुछ और ही हो गई है। कैसी बारीकबीनी है!
सबै सुहाएईं लगैं बसैं सुहाएँ ठाम।
गोरैं मुँह बेंदी लसै अरुन पीत सित स्याम॥40॥
बेंदी = ललाट पर स्त्रियाँ गोल बिन्दु रचती हैं। सित = उजला। ठाम = स्थान। सोहाये = सुन्दर, सुहावने।
सुन्दर स्थान पर विराजने से (अच्छे-बुरे) सभी सुहावने ही लगते हैं। (नायिका के) गोरे मुख पर लाल, पीली, उजली और नीली (सभी रंगों की) बेंदी अच्छी ही लगती है।
कहत सबै बेंदी दियै आँकु दसगुनौ होतु।
तिय लिलार बेंदी दियै अगिनितु बढ़तु उदोतु॥41॥
आँकु = अंक। लिलार = ललाट। अगिनितु = बेहद। उदोतु = कान्ति।
सभी कहते हैं कि बिन्दी देने से अंक का मूल्य दसगुना बढ़ जाता है। (किन्तु) स्त्रियों के ललाट पर बेंदी देने से तो (उसकी) कान्ति बेहद बढ़ जाती है।
भाल लाल बेंदी छए छुटे बार छबि देत।
गह्यौ राहु अति आहु करि मनु ससि सूर समेत॥42॥
भाल = ललाट। छुटे = बिखरे। अति आहु करि = बहुत साहस या ललकार करके। ससि = चंद्रमा। सूर = सूर्य।
लाल बेंदी वाले ललाट पर बिखरे बाल भी शोभा देते हैं। (ऐसा मालूम होता है) मानो चन्द्रमा ने, सूर्य के साथ, अत्यन्त साहस या ललकार करके राहु को पकड़ा है।
नोट - यहाँ ललाट चन्द्रमा, लाल बेंदी प्रातःकाल का सूर्य और केश राहु है।
पाइल पाइ लगी रहै लगौ अमोलिक लाल।
भौंडर हूँ की भासि है बेंदी भामिनि-भाल॥43॥
पाइल = पाजेब, नूपुर, पदमंजीर। पाइ = पैर। अमोलिकि = अनमोल, अमूल्य। लाल = रत्न। भौंडर = अबरक। भासिहै = शोभा देगी। भामिनो = स्त्री, नायिका।
अनमोल जवाहरात से जड़े होने पर भी पाजेब पैरों में ही पड़ी रहती है। किन्तु (तुच्छ) अबरक की होने पर भी बेंदी नायिका के ललाट पर ही शोभा देगी।
भाल लाल बेंदी ललन आखत रहे बिराजि।
इंदुकला कुज मैं बसी मनौ राहु-भय भाजि॥44॥
आखत = अक्षत, चावल। इंदुकला = चन्द्रमा की कला। कुज = मंगल। भाजि = भागकर।
अहो ललन! उस नायिका के ललाट की लाल बेंदी में अक्षत विराज रही है मानो राहु के भय से भागकर चन्द्रमा की कला मंगल में आ बसी हो।
नोट - यहाँ उजली अक्षत चन्द्रमा की कला है, लाल बेंदी मंगल है, (केश राहु हैं)। मंगल का रंग कवियों ने लाल माना है। बेंदी में अक्षत लगाने की प्रथा मारवाड़ में पाई जाती है। बिहारीलाल जयपुर में रहते भी तो थे।
मिलि चन्दन बेंदी रही गौरैं मुँह न लखाइ।
ज्यौं ज्यौं मद-लाली चढ़ै त्यौं त्यौं उघरति जाइ॥45॥
मद-लाली = मस्ती की लाली, जवानी की उमंग या ऐंठ की लाली।
चन्दन की उजली बेंदी मुख की गोराई में (एकदम) मिल गई है, वह गोरे मुख पर दीख नहीं पड़ती- चन्दन की उज्ज्वलता गोराई में लीन हो गई है। किन्तु ज्यों-ज्यों (उस नायिका के मुख पर) मस्ती की लाली चढ़ती जाती है, (वह बेंदी) साफ खुलती चली जाती है।
तिय-मुख लखि हीरा जरी बेंदी बढ़ैं बिनोद।
सुत-सनेह मानौ लियौ बिधु पूरन बुधु गोद॥46॥
बिधु पूरन = पूर्ण चन्द्रमा। बिनोद = प्रसन्नता, आनन्द। बुधु = बुध, चंद्रमा के पुत्र।
स्त्री (नायिका) के मुख पर हीरा जड़ी हुई बेंदी देखकर आनन्द की वृद्धि होती है मानो पुत्र के स्नेह से पूर्ण चन्द्रमा ने बुध को गोद लिया हो।
नोट - यहाँ नायिका का मुख पूर्ण चन्द्र है और हीरा-जड़ी बेंदी बुध।
गढ़-रचना बरुनी अलक चितवनि भौंह कमान।
आघु बँकाई ही बढ़े तरुनि तुरंगम तान॥47॥
बरुनी = पलक के बाल। अलक = मुखड़े पर लटके हुए लच्छेदार केश, वंकिम लट। कमान = धनुष। आघु = (संस्कृत आर्ह) मूल्य, आदर। बँकाई = टेढ़ापन। तुरंगम = घोड़ा।
गढ़ की रचना, पलक के बाल, लट, चितवन, भौंह, धनुष, नवयुवती, घोड़ा और तान- (इन सब) का मूल्य (आदर) टेढ़ाई से ही बढ़ता है।
नासा मोरि नचाइ जे करी कका की सौंह।
काँटे सी कसकैं ति हिय गड़ी कँटीली भौंह॥48॥
नासा = नाक। मोरि = मोड़कर, सिकोड़कर। जे = जो (भौंह)। सौंह = शपथ, कसम। कसकैं = सालती है, टीसती है।
नाक सिकोड़कर जिस (भौंह) को नचाकर (उस नायिका ने) काका की कसम खाई। (उस समय की) उसकी वह कटीली भौंह (अभी तक) हृदय में गड़ी हुई काँटे-सी खटक रही है-चुभ रही है।
खौरि-पनिच भृकुटी-धनुषु बधिकु-समरु तजि कानि।
हनतु तरुन-मृग तिलक-सर सुरक-भाल भरि तानि॥49॥
खौरि = ललाट पर चंदन का आड़ा टीका, ललाट पर चंदन लेपकर उँगलियों से खरोंचने पर खौर-तिलक बनता है। पनिच = धनुष की डोरी, प्रत्यंचा। समरु = समर = कामदेव। कानि = मर्यादा। तिलक = ललाट का खड़ा टीका। सुरक = तिलक का वह भाग जो नाक पर लगा होता है। भाल = तीर की गाँसी। भरि तानि = खूब तानकर।
खौर-रूपी प्रत्यंचा को भौंह-रूपी धनुष पर चढ़ाकर, व्याधा-रूपी कामदेव, (अपनी) मर्यादा छोड़, सुरक-रूपी गाँसी वाले तिलक-रूपी शर को, खूब खींचकर, नवयुवक-रूपी मृगों को मारता है।
रस सिंगार मंजनु किए कंजनु भंजनु दैन।
अंजनु-रंजनु हूँ बिना खंजनु गंजनु नैन॥50॥
शृंगार-रस में गोते लगाये हुए नेत्र कमलों के अभिमान तोड़नेवाले हैं और अंजन लगाये हुए भी वे खंजनों का घमंड चूर करते हैं-कमलों को परास्त और खंजरीटों को अपमानित करते हैं।
खेलन सिखए अलि भलैं चतुर अहेरी मार।
कानन-चारी नैन-मृग नागर नरनु सिकार॥51॥
अलि = सखी। अहेरी = शिकारी। मार = कामदेव। कानन-चारी = कानों तक आने-जानेवाले, वन में विहारनेवाले। नागर = चतुर, शहरी। नरनु = पुरुषों का।
ऐ सखी! चतुर शिकारी कामदेव ने कानों तक आने-जानेवाले (वन में विहार करने वाले) तुम्हारे नेत्र-रूपी हिरनों को चतुर नागरिक पुरुषों का शिकार करना भली भाँति सिखलाया है।
नोट: हिरनों से आदमियों का शिकार कराना-वह भी ठेठ देहाती गँवार आदमियों का नहीं, छैल-चिकनिये चतुर नागरिकों का!-कवि की अनूठी रसिकता प्रदर्शित करता है।
अर तैं टरत न बर परे दई मरक मनु मैन।
होड़ा-होड़ा बढ़ि चले चितु चतुराई नैन॥52॥
अर तैं = हठ से। टरत = टरते हैं, डिगते हैं। बर परे = बल पकड़ता है। दई = दिया हो। मरक = बढ़ावा। मैन = कामदेव। होड़ा-होड़ी = बाजी लगाकर, शर्त बदकर, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतिस्पर्धा।
(नायिका के) चित्त की चतुराई और उसकी आँखें बाजी लगाकर बढ़ चली हैं-जिस प्रकार आँखें बड़ी-बड़ी होती जा रही हैं उसी प्रकार उसकी चतुराई भी बढ़ी चली जाती है। वे (चतुराई और आँखें) अपने हठ से नहीं डिगतीं, वरन् (वह हठ) और भी बल पकड़ता जाता है, मानो कामदेव ने उन्हें (इस प्रतिद्वन्द्विता के लिए) बढ़ा दे दिया हो, ललकार दिया हो।
सायक सम मायक नयन रँगे त्रिविध रँग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जलजात लजात॥53॥
सायक = सायंकाल। मायक = माया जाननेवाला, जादूगर। त्रिबिध = तीन प्रकार। गात = शरीर। झखौ = मछली भी। विलखि = संकुचित या दुखी होकर। जलजात = कमल।
संध्याकाल के समान मायावी आँखें अपनी देहों को तीन रंगों में रँगे हुई हैं। उन्हें देखकर मछली भी संकुचित हो जल में छिप जाती है और कमल लज्जित हो जाते हैं।
नोट - नेत्रों में लाल, काले और उजले रंग होते हैं। देखिये -
अमिय हलाहल मद भरे, स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि-झुकि गिरत, जिहि चितबत इक बार॥
जोग-जुगुति सिरघए सबै मनो महामुनि मैनु।
चाहतु पिय-अद्वैतता काननु सेवतु नैनु॥54॥
जोग = मिलन, योग। मनो = मानों। जुगुतु = युक्ति, उपाय। मैनु = कामदेव। पिय = प्रीतम, ईश्वर। अद्वैतत = मिलन, अभेद-भाव, अभिन्नता। काननु = कानों, जंगल। सिखये = सिखा दिया।
मानो महातपस्वी कामदेव ने योग (मिलन) की सारी युक्तियाँ बता दी हैं। इसीसे (उस नायिका के नेत्र) प्रीतम (ईश्वर) से सदा मिले रहने के लिए कानों तक बढ़ आये हैं, (वियोग-रहित अनन्त मिलने के लिए) वन-सेवन कर रहे हैं।
वर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनानु तैं हरि नीके ए नैन॥55॥
बर = बलपूर्वक। मैन = कामदेव। मैं न = मैं नहीं।
इन नेत्रों ने कामदेव के (अचूक) बाणों को भी बलपूर्वक जीत लिया है। मैंने तो ऐसे नेत्र (कभी) देखे ही नहीं। हे कृष्ण! हरिणियों के नैन से भी ये नेत्र सुन्दर हैं।
नोट - खंजन कंज न सरि लहै बलि अलि को न बखान।
एनी की अँखिपान ते नीकी अँखियान। - शृंगार-सतसई
संगति दोपु लगै सबनु कहे ति साँचे बैन।
कुटिल बंक भु्रब संग भए कुटिल बंक गति नैन॥56॥
भु्रव = भँवें, भौंहें। कुटिल गति = टेढ़ी चालवाली। ति = सचमुच।
संगति का दोष सबको लगता है, सचमुच यह बात सच्ची कही गई है। तिरछी टेढ़ी भँवों की संगति से आँखें भी टेढ़ी और तिरछी चालवाली हो गई!
आन = दूसरा। विषम = भयंकर, कठोर। ईछन = ईक्षण = नेत्र। तीछन = तीक्ष्ण = तेज, चोखे, कँटीले।
लगते हैं आँखों में, बेधत हैं हृदय को और व्याकुल करते हैं अन्य अंगों को-सारे शरीर को! ये तुम्हारे नेत्र-रूपी तीखे-चोखे बाण सबसे भयंकर हैं।
झूठे जानि न संग्रहे मन मुँह निकसे बैन।
याही तैं मानहु किये बातनु कौं बिधि सैन॥58॥
सैन = इशारा। बैन = वचन। संग्रहै = संचय करता है। याही तैं = इसी लिए। बिधि = ब्रह्मा।
मुँह से निकले हुए वचनों को झूठा समझकर मन संग्रह नहीं करता- प्रमाण नहीं मानता। मानो इसी कारण (हृदय की) बातें करने के लिए ब्रह्मा ने नेत्रों के इशारे बनाये।
फिरि फिरि दौरत देखियत निचले नैंकु रहे न।
ए कजरारे कौन पर करत कजाकी नैन॥59॥
निचले = निश्चल, स्थिर। नेकु = जरा भी। कजरारे = काजल लगाये हुए। कजाकी = (कजा = मृत्यु) हत्यारापन, लुटेरापन, लूटमार।
बार-बार दौड़ते हुए दीख पड़ते हैं, जरा भी स्थिर नहीं रहते। (तुम्हारे) ये काजल लगे हुए नेत्र किसपर डाक डाल रहे हैं- किसकी हत्या करने के लिए इधर-उधर दौड़ लगा रहे हैं?
खरी भीरहू भेदिकै कितहू ह्वै उत जाइ।
फिरै डीठि जुरि डीठि सों सबकी डीठि बचाइ॥60॥
खरी = भारी। भेदिकै = पार करके। कितहू ह्वै = किसी ओर से होकर। उत = वहाँ। डीठि = नजर। जुरि = मिलकर। डीठि बचाइ = आँखें बचाकर।
भारी भीड़ को भी भेद कर, और किसी ओर से भी वहाँ (नायक के पास) पहुँचकर, नायिका की नजर, सबकी आँखें बचा, उसकी (नायिका की) नजर से मिल कर, फिर (साफ कन्नी काटकर) लौट आती है।
सबही त्यौं समुहाति छिनु चलति सबनु दै पीठि।
बाही त्यौं ठहराति यह कविलनबी लौं दीठि॥61॥
समुहाति = सामना करना, टकराना। कविलनबी = कम्पास के समान एक प्रकार का यंत्र, जिसकी सूई सदा पश्चिम की ओर रहती है, चोर पकड़ने की वह कटोरी जो मंत्र पढ़कर चलाई जाती है। चलति सबनि दै पीठि = सबका तिरस्कार करती चली जाती है।
किबलनुमा की सूई के समान उसकी यह नजर सभी के शरीर से क्षणभर के लिए टकराती है, फिर सभी से विमुख होकर चल पड़ती है, और उसके-अपने प्रेमिक के - रूप पर आकर ठहरती है।
कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात।
भरे भौन मैं करत हैं नैननु ही सब बात॥62॥
कहत = कहते हैं, इच्छा प्रकट करते हैं। नटत = नाहीं-नाहीं करते हैं। रीझत = प्रसन्न होते हैं। खिझत = खीजते हैं, रंजीदा होते हैं, रंजीदा होते हैं। खिलत = पुलकित होते हैं। लजियात = लजाते हैं।
कहते हैं, नाहीं करते हैं, रीझते हैं, खीजते हैं, मिलते हैं, खिलते हैं और लजाते हैं। (लोगों से) भरे घर में (नायक-नायिका) दोनों ही, आँखों ही द्वारा बातचीत कर लेते हैं।
अँग = प्रकार। सुघर = सुचतुर, सुदक्ष। नाइक = नाचना-गाना सिखानेवाला उस्ताद। पातुर = वेश्या। ‘राय’ वेश्याओं की उपाधि- जैसे प्रवीणराय वेश्या, जो केशवदास की साहित्यिक चेली थी। रस-जुत = रसीले। लेत अनन्त गति = अनेक प्रकार के पैंतरे और काँटछाँट करती है, तरह-तरह की भावभंगी ले थिरकती है।
प्रेम-रूपी उस्ताद ने सिखाकर उसे सब प्रकार से सुदक्ष बना रक्खा है। (फलतः वह आँखों की) पुतली-रूपी वेश्या रसों से भरे हुए नाना प्रकार के हाव-भाव दिखा रही है।
कंज नयनि मंजनु किये बैठी व्यौरति बार।
कच अँगुरी बिच दीठि दै चितवति नन्दकुमार॥64॥
ब्यौरति = सुलझाती है। कच = बाल, केश। दीठि = दृष्टि, नजर।
कमलनयनी (नायिका) स्नान कर बैठी हुई अपने बालों को सुलझा रही है और बालों तथा अँगुलियों के बीच से कृष्णजी को देखती भी है। (लोग जानते हैं कि वह बाल सँवार रही है, इधर बालों और उँगलियों के बीच इशारे चल रहे हैं!)
डीठि-बरत बाँधी अटनु चढ़ि धावत न डरात।
इतहिं-उतहिं चित दुहुन के नट-लौं आवत-जात॥65॥
ठीठि = नजर। बरत = रस्सी। अटनि = कोठे। लौं = समान।
कोठों पर बँधी दृष्टि-रूपी रस्सी पर चढ़कर दौड़ते हैं, (जरा भी) डरते नहीं। दोनों के चित्त नट के समान इधर-से-उधर (बेधड़क) आते-जाते हैं।
नोट - प्रेमिक और प्रेमिका अपनी-अपनी अटारी पर खड़े आँखें लड़ा रहे हैं। कवि ने उसी समय की उनके चित्त की दिशा का वर्णन किया है।
जुरे दुहुन के दृग झमकि रुके न झीनैं चीर।
हलुकी फौज हरौल ज्यौं परै गोल पर भीर॥66॥
झीने = महीन, बारीक। चीर = साड़ी। हरौल = हरावल, सेना का अग्रभाग। गोल = सेना का मुख्य भाग। झमकि = उछलकर या नाचकर। भीर = चोट, हमला।
दोनों की आँखें ललक के साथ बढ़कर जुट गईं, बारीक साड़ी (के घूँघट) में वे न रुकीं, जिस प्रकार सेना के अग्रभाग में हलकी फौज रहने से मुख्य भाग पर ही भीड़ आ पड़ती है।
लीनैं हूँ साहस सहसु कीनैं जतनु हजारु।
लोइन लोइन-सिंधु तन पैरि न पावत पारु॥67॥
लोइन = आँख। लोइन = लावण्य, सुन्दरता। पैरि = तैरकर।
हजार यत्न करने और हजार साहस रखने पर भी ये आँखे (तुम्हारे) शरीर-रूपी लावण्य-सागर को तैरकर पार नहीं पा सकतीं-तुम्हारा शरीर इतने अगाध-लावण्य से परिपूर्ण है!
पहुँचति डटि रन-सुभट लौं रोकि सकैं सब नाहिं।
लाखनुहूँ की भीर मैं आँखि उहीं चलि जाहिं॥68॥
रन-सुभट = लड़ने में वीर।
लड़ाई के वीर योद्धा के समान डटकर पहुँच जाती हैं-लोग उन्हें नहीं रोक सकते। लाखों की भीड़ में भी (उसकी) आँखें उस (नायक की) ओर चली ही जाती हैं।
गड़ी कुटुम की भीर मैं रही बैठि दै पीठि।
तऊ पलकु परि जाति इत सलज हँसौंही डीठि॥69॥
पलकु = पल+एकु = एक पल के लिए। इत = यहाँ, इस ओर। हँसौंही = प्रसन्न, विनोदिनी।
कुटुम्ब की भाड़ में गड़ी हुई-चारों ओर से परिवारवालों से घिरी हुई- (वह नायिका नायक की ओर) पीठ देकर बैठी है। तो भी एक क्षण के लिए (उसकी) लजीली और विनोदिनी दृष्टि इसकी ओर पड़ ही जाती है।
भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँह मोरि।
नाठि-नीठि भीतर गई दीठि दीठि सों जोरि॥70॥
उँचै = ऊँचा करके। मोरि = मौलि, सिर। मोरि = झुकाकर। नीठि-नीठि = जैसे तैसे, मुश्किल से। नीठि नीठि गई = मुश्किल से धीरे-धीरे गई।
भौंह ऊँची कर, आँचर उलट, सिर झुका और मुँह मोड़कर (वह नायिका) नजर-से-नजर मिलाती हुई धीरे-धीरे (घर के) भीतर (चली) गई।
ऐंचति-सी चितवनि चितै भई ओट अलसाइ।
फिर उझकनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ॥71॥
ऐंचति-सी = खींचती हुई-सी, चित्ताकर्षक, चितचोर। चितबनि = दृष्टि, नजर। चितै = देखकर। दृगनि = आँखों का। लगनिया = लगन, चाट। अलसाइ = जँभाई लेकर, उभाड़ दिखाकर अथवा मन्द गति से।
(चित्त को) खींचती हुई-सी नजरों से देख वह अलसाकर (आँख से) ओट तो हो गई; किन्तु उस मृगनयनी ने (उस समय से) बार-बार उझक-उझककर देखने की लगन (मेरी) आँखों में लगा दी-तब से बार-बार मैं उझक-उझककर उसकी बाट जोह रहा हूँ।
सटपटाति-सी ससिमुखी मुख घूँघट-पटु ढाँकि।
पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखौ झाँकि॥72॥
पावक झर = आग की लपट। सटपटाति-सी = डरती हुई-सी। झमकिकै = नखरे की चाल से, गहनो की झनकार करके, चपलता से।
डरती हुई-सी-वह चन्द्रबदनी (अपने) मुख को घूंघट से ढँककर अग्नि की लपट-सरीखी चंचलता के साथ झरोखे से झाँक गई।
नोट - भाव यह है कि अपने गुरुजनों के डर से वह मुख पर आँचल डालकर झटपट खिड़की पर आई और (नायक को) देखकर चली गई।
लागत कुटिल कटाच्छ सर क्यौं न होहिं बेहाल।
कढ़त जि हियहिं दुसाल करि तऊ रहत नटसाल॥73॥
कुटिल = तिरछे, टेढ़े। कटाक्ष = तीक्ष्ण दृष्टि, बाँकी-तिरछी नजर। कढ़त = निकलना। हियो = हृदय। दुसाल = दो भाग, आरपार। तऊ = तो भी। नटसाल = काँटे का वह हिस्सा जो काँटा निकाल लेने पर भी टूटकर अन्दर ही रह जाता है।
तिरछे कटाक्ष-रूपी (चोखे) बाण के लगने से (लोग) क्यों न व्याकुल हों? यद्यपि (बाण) हृदय को आरपार करके निकल जाता है, तथापित उसकी नुकीली गाँसी की कसक (पीड़ा) रह ही जाती है।
नैन-तुरंगम अलग-छबि-छरी लगी जिहिं आइ।
तिहिं चढ़ि मन चंचल भयौ मति दीनी बिसराइ॥74॥
तुरंगम = चंचल घोड़ा। अलग = लट। छरी = कोड़ा। बिसराय दीनी = बिस्मृत कर दिया, भुला दिया।
नेत्र-रूपी घोड़े, जिन्हें लट की शोभा-रूपी छड़ी आकर लगी है- जो नायिका की लट-रूपी चाबुक खाकर उत्तेजित हुए हैं- उन (नेत्र-रूपी घोड़ों) पर चढ़कर मेरा मन चंचल हो गया है और उसने मेरी बुद्धि नष्ट कर दी है।
नीचीयै नीची निपट दीठि कुही लौं दौरि।
उठि ऊँचै नीचै दियौ मन-कुलंग झपिझोरि॥75॥
निपट = एकदम। डीठि = दृष्टि, नजर। कुही = एक पक्षी, जो बाज की जाति का होता है। लौं = समान। कुलंग = कलबिंक = चटका = गोरैया, बगेरी। उठि ऊँचै चढ़ मेरे मन-रूपी कुलंग को छोपकर और झोरकर नीचे गिरा दिया।
नोट - कुही पक्षी शिकार को पकड़ने के लिए पहले तो नीचे-ही-नीचे उड़ता है, फिर एकबारगी ऊपर उड़ श्किार पर भीषण रूप से टूट पड़ता और उसे झकझोर नीचे गिरा देता है। लज्जाशीला नायिका की उड़नबाज नजर की भी यही गति है-रसज्ञ पाठक जानते हैं!
तिय कित कमनैती पढ़ी बिनु जिहि भौंह-कमान।
चल चित-बेझैं चुकति नहिं बंक बिलोकनि बान॥76॥
कित = कहाँ। कमनैती = तीर चलाने की कला, बाण-विद्या। जिहि = ज्या = डोरी, प्रत्यंचा। चल = चंचल। बेझै = निशान, लक्ष्य, लक्ष्य। बंक = टेढ़ा। बिलोकनि = चितवन, दृष्टि।
इस स्त्री ने यह बाण-विद्या कहाँ पढ़ी कि बिना डोरी के भौंह रूपी धनुष और तिरछी दृष्टि-रूपी बाण से चंचल चित्त-रूपी निशाने को बेधने से नहीं चूकती?
दूज्यौ खरै समीप कौ लेत मानि मन मोदु।
होत दुहुन के दृगनु हीं बतरसु हँसी-विनोदु॥77॥
(नायक-नायिका दोनों) दूर-दूर खड़े होने पर भी निकट होने का आनन्द मन में मान लेते हैं-यद्यपि दोनों दूर-दूर खड़े हैं तथापित निकट रहकर सम्भाषण करने का आनन्द अनुभव कर रहे हैं; क्योंकि दोनों की आँखों (इशारों) से ही रसीली बातचीत, दिल्लगी और चुहल हो रही है।
छुटै न लाज न लालचौ प्यौ लखि नैहर-गेह।
सटपटात लोचन खरे भरे सकोच सनेह॥78॥
प्यौ = प्रियतम। खरे = अत्यन्त। नैहर = मायके, पीहर। सटपटात = विक्षिप्त, बेचैन हो रहे हैं।
पति को अपने मायके में देखकर न तो (उन्हें भर नजर देखने के लिए) लाज छूटती है और न (देखने का) लालच ही छोड़ते बनता है। यों संकोच और प्रेम से परिपूर्ण उस नायिका के नेत्र अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं।
नोट - इस दोहे में स्वाभाविकता खूब है।
करे चाह-सौ चुटकि कै खरै उड़ौहैं मैन।
लाज नवाएँ तरफरत करत खूँद-सी नैन॥79॥
चुटकि कै = चाबुक मारकर। उड़ौहैं = उड़ाकू, उड़ान भरनेवाला। मैंन = कामदेव। खूँद = जमैंती, घोड़े की ठुमुक चाल।
कामदेव ने चाह का चाबुक मारकर नेत्रों को बड़ा उड़ाकू बना दिया है। किन्तु लाज (लगाम) से रोके जाने के कारण उसके नेत्र (रूपी-घोड़े) तड़फड़ाकर जमैती-सी कर रहे हैं।
नोट - जब घोड़े को जमैती सिखाई जाती है, तब एक आदमी पीछे चाबुक फटकारकर उसे उत्तेचित करता रहता है और दूसरा आदमी उसकी लगाम कसकर पकड़े रहता है। यों घोड़ा पीछे की उत्तेजना और आगे की रोकथाम से छटपटाकर जमैती करने लगता है।
नाबक-सर-से लाइकै तिलकु तरुनि इत ताँकि।
पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखा झाँकि॥80॥
तिलकु = टीका। तरुनि = नवयुवती। पावक-झर = आग की लपट। झरोखा = खिड़की। झमकिकै = चंचल चरणों से। नावक-सर = एक प्रकार का छोटा चुटीला तीर, जो बाँस की नली के अंदर से चलाया जाता है, ताकि सीधे जाकर गहरा घाव करे।
चुटीले तीर के समान (ललाट पर) तिलक लगाकर उस नवयुवती ने इस ओर देखा और आग की ज्वाला-सी चंचलता के साथ खिड़की से झाँक गई।
नोट - ‘नावक के तीर’ बिहारी के दोहों के विषय में प्रसिद्ध है-
सतसैया के दोहरे जनु नावक के तीर।
देखत में छोटे लगैं बेधैं सकल सरीर॥
अनियारे दीरघ दृगनु कितीं न तरुनि समान।
वह चितबनि औरे कछू जिहिं बस होत सुजान॥81॥
अनियारे = नुकीली। दीरघ = बड़ी। दृगनु = आँखें। जिहिं = जिसके। सुजान = रसिक।
कितनी युवतियों की नुकीली और बड़ी-बड़ी आँखें एक-सी नहीं हैं- बहुत-सी युवतियों की आँखें बड़ी-बड़ी और नुकीली हैं-किन्तु रसिक-जन को वशीभूत करनेवाली वह रसीली नजर कुछ और ही होती है!
चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट-पट झीन।
मानहु सुरसरिता-विमल-जल उछरत जुग मीन॥82॥
घूँघट-पट = घूँघट का कपड़ा। झीन = बारीक, महीन। सुरसरिता = गंगा। जुग = दो। मीन = मछली। उछरत = उछलती है।
बारीक कपड़े के घूँघट की ओट से (उसकी) चंचल आँखें चमक रही हैं- झलक रही हैं, मानों गंगाजी के स्वच्छ जल में दो मछलियाँ उछल रही हैं।
फूले फदकत लै फरी पल कटाच्छ करबार।
करत बचावत बिय नयन पाइक घाइ हजार॥83॥
फूले = उमंग से मरकर। फदकत = पैंतरें बदलते हैं। फरी = ढाल। पल = पलक। करबार = फरबाल = तलवार। बिय = दोनों। पाइक = पैदल सिपाही। घाइ = घाव, धार।
(उसके) दोनों नेत्र-रूपी सिपाही पलक-रूपी ढाल और कटाक्ष-रूपी तलवार लेकर सानन्द पैंतरे बदलते तथा हजारों वार करते और बचाते हैं।
जदपि चबाइनु चीकनी चलति चहूँ दिसि सैन।
तऊ न छाड़त दुहुन के हँसी रसीले नैन॥84॥
चबाइनु चीकनी = निंदा से भरी। तऊ = तो भी। सैन = इशारे। हँसी = उमंग भरी छेड़छाड़।
यद्यपि उसपर चारों ओर से निंदा-भरे इशारे चल रहे हैं- लोग इशारे कर-करके उसकी निंदा कर रहे हैं-तो भी दोनों की रसीली आँखें हँसी (चुहलबाजी) नहीं छोड़तीं।
जटित नीलमनि जगभगति सींक सुहाई नाँक।
मनौ अली चंपक-कली बसि रसु-लेतु निसाँक॥85॥
जटित = जड़ी हुई। नीलमनि = नीलम! सींक = स्त्रियों की नाक में पहनने का एक आभूषण विशेष, जिसे लौंग या छुच्छी भी कहते हैं। निसाँक = निःशंक, बेधड़क। रसु लेतु = आनन्द लूट रहा है, रस चूस रहा है।
नीलम से जड़ी लौंग (उसकी) सुन्दर नाक में जगमग करती है, मानो भौंरा चम्पा की कली पर निःशंक बैठकर रस पी रहा हो।
नोट - गोरी की नाक चम्पा की कली है, पीलम-जड़ी लौंग भौंरा है। भौंरा चम्पा के पास नहीं जाता; पर कवि ने असम्भव को सम्भव कर दिया है।
बेधक अनियारे नयन बेधत करि न निषेधु।
बरबट बेधत मो हियौ तो नासा कौ बेधु॥86॥
बेधक = बेधनेवाला। अनियारे = नुकीले। निषेध = रुकावट। बेधु = छेद, छिद्र। नासा = नाक। बरबट = अदबदाकर, जबरदस्ती।
चुभीली नुकीली आँखें यदि हृदय को छेदती हैं, तो छेदने दे, उन्हें मना मत कर (वे ठहरीं चुभीली नुकीली, बेधना तो उनका काम ही है); क्योंकि तेरी नाक का बेध-लौंग पहनने की जगह का छेद-मेरे हृदय को बरबस बेध रहा है- जो स्वयं बेध है, वही बेध रहा है, तो फिर बेधक क्यों न बेधे?
जदपि लौंग ललितौ तऊ तूँ न पहिरि इकआँक।
सदा साँक बढ़ियै रहै रहै चढ़ी-सी नाँक॥87॥
ललितौ = सुन्दर। इकआँक = निश्चय। साँक बढ़ियै रहै = डर बना रहता है। रहै चढ़ी-सी नाक = नाक चढ़ी रहना, क्रुद्ध या रुष्ट होना।
यद्यपि लौंग (देखने में) अत्यन्त सुन्दर है, तो भी तू निश्चय उसे न पहन; (क्योंकि उसके पहनने से) तेरी नाक सदा चढ़ी-सी रहती है, जिससे मेरे मन में सदा भय की वृद्धि होती है (कि तू शायद क्रुद्ध तो नहीं है)!
बेसरि मोती दुति-झलक परी ओठ पर आइ।
चूनौ होइ न चतुर तिय क्यों पट पोंछयो जाइ॥88॥
पट = कपड़ा। बेसरि = नाक की झुलनी, बुलाक।
बेसर में लगे हुए मोती की आभा की (सफेद) परिछाँई तुम्हारे ओठों पर आ पड़ी है। हे सुचतुरे! वह चूना नहीं है (तुमने जो पान खाया है, उसका चूना होठों पर नहीं लगा है), फिर वह कपड़े से कैसे पोंछी जा सकती है?
नोट - नायिका के लाल-लाल होठों पर नकबेसर के मोती की उजली झलक आ पड़ी है, उसे वह भ्रमवश चूने का दाग समझकर बार-बार पोंछ रही है; किन्तु वह मिटे तो कैसे?
इहिं द्वैहीं मोती सुगथ तूँ नथ गरबि निसाँक।
जिहिं पहिरैं जग-दृग ग्रसति लसति हँसति-सी नाँक॥89॥
सुगथ = सुन्दर पूँजी। गरबि = अभिमान कर ले। हँसति-सी लसति = सुघड़ जान पड़ती है। ग्रसति = फँसाती है।
अरे नथ! तू इन दो ही मोतियों की पूँजी पर निःशंक होकर गर्व कर ले; क्योंकि तुझे पहनकर (उस नायिका की) नाक हँसति-सी (सुन्दर शोभासम्पन्न) दीख पड़ती है और संसार की आँखों को फाँसती है।
नोट - एक उर्दू कवि ने कहा है-‘नाक में नथ वास्ते जीनत के नहीं। हुस्न को नाथ के रक्खा है कि जाये न कहीं! जीनत = खूबसूरती। हुस्न = सौन्दर्य।
वेसरि-मोती धनि तुही को बूझै कुल जाति।
पीवौ करि तिय-अधर को रस निधरक दिन-राति॥90॥
अरे बेसर में गुँथ हुआ मोती! तू ही धन्य है। (भाग्यवान्) कुल और जाति कौन पूछता है? (अलबेली) कामिनियों के (सुमिष्ट) अधरों का रस तू निर्भयता-पूर्वक दिन-रात पिया कर।
नोट- ‘को बूझै कुल जाति’ से यह मतलब है कि मोती तुच्छ सीप कुल से पैदा हुआ है, तो भी उसे ऐसा सुन्दर सौभाग्य प्राप्त है, जिसके लिए कितने कुलीन नवयुवक तरसते रहते हैं!
बरन बास सुकुमारता सब बिधि रही समाइ।
पँखुरी लगी गुलाब की गात न जानी जाइ॥91॥
(नायिका की) देह पर लगी गुलाब की पँखुरी पहचानी नहीं जाती-विलग नहीं देख पड़ती; क्योंकि उसका रंग और उसकी सुगन्ध तथा कोमलता गाल के रंग, सुगन्ध और कोमलता में एकदम मिल-सी गई है।
लसत सेत सारी ढप्यौ तरल तव्यौना कान।
पव्यौ मनौ सुरसरि-सलिल रबि-प्रतिबिम्बु बिहान॥92॥
तरल = चंचल। बिहान = प्रातःकाल।
उजली साड़ी से ढँका हुआ उसके कान का चंचल कर्णफूल ऐसा सोह रहा है, मानो गंगा के उज्ज्वल जल में प्रातः काल के सूर्य का (सुनहला) प्रतिबिम्ब आ पड़ा हो।
नोट - यहाँ सोने का कर्णफूल प्रातःकाल का सूर्य है, और साड़ी गंगा का स्फटिक-सा स्वच्छ जल।
सुदुति दुराई दुरति नहिं प्रगट करति रति-रूप।
छुटैं पीक औरै उठी लाली ओठ अनूप॥93॥
सुदुति = सुद्युति = सुन्दर कान्ति। रति-रूप = रति का रूप, कामदेव की स्त्री ‘रति’ अत्यन्त सुन्दर कही जाती है; अतएव यहाँ ‘रति-रूप’ से अर्थ है सौन्दर्य का अत्यन्त आधिक्य। दुराई = छिपाये।
सुन्दर कान्ति छिपाने से नहीं छिपती, वरन् (ऐसी चेष्टा करने पर) वह और भी अपरूप सौंदर्य प्रकट करती है। पान की पीक (या लाली) छुड़ाये जाने पर ओठों की अनुपम लाली और भी बढ़ गई है।
नोट - नायिका अपने ओठ की ललाई को पान की लाली समझकर बार-बार उसे छुड़ा रही है; किन्तु ज्यों-ज्यों पान की लाली छुटती है, त्यों-त्यों उसके ओठ की स्वाभाविक लाली और भी खिलती जाती है।
कुच-गिरि चढ़ि अति थकित ह्वै चली डीठि मुँह-चाड़।
फिरि न टरी परियै रही परी चिबुक की गाड़॥94॥
कुच = स्तन। डीठि = दृष्टि = नजर। चाड़ = चाह। परियै रही = पड़ी रही। चिबुक = ठुड्डी। गाड़ = गढ़ा।
स्तन-रूपी (ऊँचे) पर्वत पर चढ़, अत्यन्त थककर, दृष्टि-मुख (देखने) की चाह में (आगे) चली। (किन्तु रास्ते में ही) ठुड्डी के गढ़े में वह (इस प्रकार) जा गिरी कि (उसी में) उड़ी रह गई, (वहाँ से) पुनः (इधर-उधर) टली नहीं।
नोट - ‘चिबुक की गाड़’ पर एक संस्कृत कवि की उक्ति का आशय है कि ब्रह्मा ने सुन्दरी स्त्री को जब पहले-पहल बनाया, तब उसके रूप पर आप ही इतने मुग्ध हुए कि ठुड्डी पकड़कर भर-नजर देखने लग गये। उसी समय कच्ची मूर्त्ति की ठुड्डी उनके अँगूठे से दब गई। वही गढ़ा हो गया!
ललित स्याम-लीला ललन चढ़ी चिबुक छबि दून।
मधु छाक्यो मधुकर पर्यौ मनौ गुलाब-प्रसून॥95॥
ललित = सुन्दर। स्याम-लीला = गोदने की बिन्दी। दून = दूना। मधु छाक्यौ = रस पीकर तृप्त। मधुकर = भौंरा। प्रसून = फूल।
सुन्दर गोदने की (कोली) बिन्दी से, हे ललन! उसकी (गुलाबी) ठुड्डी की शोभा दूनी बढ़ गई है, (जान पड़ता है) मानो मधु पीकर मस्त भौंरा गुलाब के फूल पर (बेसुध) लेटा हुआ है।
नोट - ‘पद्माकर’ के इसी भाव के एक कवित्त का पद है- ‘कैधों अरबिन्द में मलिन्दसुत सोयो आय, गरक गोविन्त कैधों गोरी की गुराई मकें।’ अपने ‘तिल-शतक’ में मुबारक कवि तिल को यों प्रणाम करते हैं-
गोरे मुख पर तिल लसै, ताको करौं प्रणाम।
मानहु चंद बिछाय के पौढ़े सालीग्राम॥
डारे ठोढ़ी-गाड़ गहि नैन-बटोही मारि।
तिलक-चौंधि मैं रूप-ठग हाँसी-फाँसी डारि॥96॥
ठोढ़ी = ठुड्डी, चिबुक। चिलक = चमक, कान्ति।
(शरीर की) कान्ति की चकाचौंध में सौन्दर्य-रूपी ठग ने हँसी-रूपी फाँसी डाल (दर्शक के) नेत्र-रूपी बटोही को मारकर उसे ठुड्डी-रूपी गढ़े में डाल रक्खा है। यह स्याम-लीला (गोदना की काली बिन्दी) उसी की लाश है।
नोट - एक उर्दू कवि ने भी ‘तिल’ को आशिक का ‘जलाभुना दिल’ कहा है। क्या खूब है!
तो लखि मो मन जो लही सो गति कही न जाति।
ठोढ़ी-गाड़ गड़्यौ रहत दिन-राति॥97॥
मन गड़्यौ = मन बसना, मन डूबा रहना। मन उड़्यौ = मन उड़ना, मन उचटा रहना, कहीं मन न लगना।
तुम्हें देखकर मेरे मन ने जो चाल पकड़ी है, वह (चाल) कही नहीं जाती-अजीब चाल है। यद्यपि वह तुम्हारी ठुड्डी के गढ़े में गड़ा (धँसा) रहता - तल्लीन रहता है, तो भी दिन-रात उड़ता-उचटा ही रहता है-चंचल ही बना फिरता है!
नोट - यहाँ कवि ने ‘मन का गड़ना’ और ‘मन का उड़ना’ इन दोनों मुहाविरों का प्रयोग अच्छा भिड़ाया है।
लौंनै मुँह दीठि न लगै यौं कहि दीनौ ईठि।
दूनी ह्वै लागन लगी दियैं दिठौना दीठि॥98॥
लौने = लावण्यमय। ईठि = हितैषिणी। दिठौना = काजल की बिन्दी; नजर लग जाने के डर से स्त्रियाँ काजर की बिन्दी लगाती हैं।
हितैषिणी सखी ने- ‘इस लावण्ययुक्त मुखड़े पर कहीं किसी की नजर न लग जाय’ (ऐसा) कहकर डिठौना लगा दिया। किन्तु उस गोरे मुखड़े पर काजल का काला डिठौना देने से लोगों की नजर दुगुनी होकर लगने लगी- लोग और भी चाव से घूरने लगे।
पिय तिय सों हँसिकै कह्यौ लखै दिठौना दीन।
चन्द्रमुखी मुख चन्दु तैं भलौ चन्द सम कीन॥99॥
सों = से। दिठौना दीन = डिठौना लगाये हुए। तैं = से।
डिठौना लगाये हुए देखकर प्रीतम ने अपनी प्रियतमा से हँसकर कहा- हे चन्द्रमुखी! (काला ढिठौना लगाकर) चन्द्रमा के समान (धब्बेदार) कलंकित बना लेने पर भी, (तुम्हारा) मुख, चन्द्रमा से अच्छा ही है।
गड़े बड़े छबि-छाकु छकि छिगुनी छोर छुटैं न।
रहे सुरँग रँग रँगि वही नह दी मँहदी नैन॥100॥
छबि = शोभा। छाकु = नशा। छकि = भर-पेट पीकर। छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली, कनगुरिया। सुरँग = लाल। नह दी = नँह में दी गई, नख में लगाई गई। मँहदी = मेंहदी।
सौंदर्य की मदिरा पीकर खूब ही गड़ रहे हैं, छिगुनी की छोर छोड़ते ही नहीं। यहाँ तक कि उसी (छिगुनी के) नँह में लगी मेंहदी के लाल रंग में ये नेत्र रँग भी गये हैं-उसके ध्यान में लाल भी हो गये हैं!
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