चितै रहत चहुँ ओर तें निहचल चखनु चकोर॥101॥
सूर = सूर्य। सुखमा = सौंदर्य, शोभा। निहचल चखनु = अटल दृष्टि से, टकटकी लगाकर।
सूर्य के उदय हो जाने पर भी आनन्दित मन से उसके मुख के सौंदर्य की ओर (उसे चन्द्र-मंडल समझकर) चकोर टकटकी लगाये चारों ओर से देखता रहता है।
पत्राहीं तिथि पाइयै वा घर कैं चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौई रहत आनन-ओप उजास॥102॥
पत्रा = तिथि पत्र। नित प्रति = हर रोज। पून्यौई = पूर्णिमासी ही। आनन = मुख। ओप = चमक। उजास = प्रकाश।
उस नायिका के घर के चारों ओर पत्रा (पंचांग) ही में तिथि पाई जाती है- तिथि निश्चय कराने के लिए पत्रा ही की शरण लेनी पड़ती है; क्योंकि (उसके) मुख की चमक और प्रकाश से वहाँ सदा पूर्णिमा ही बनी रहती है- उसके मुख की चमक और प्रकाश देखकर लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि पूर्ण चन्द्र की चाँदनी छिटक रही है।
पाइ महावरु दैन कौं नाइनि बैठी आइ।
फिरि फिरि जानि महावरी एड़ी मीड़ति जाइ॥109॥
महावरी = महावर लगी हुई। फिरि फिरि = बार-बार।
(उस नायिका के) पाँव में महावर लगाने के लिए नाइन आ बैठी। किन्तु (उसकी एड़ी स्वाभाविक रूप से इतनी लाल थी कि) वह बराबर उसे महावर लगी हुई जानकर माँज-माँजकर धोने लगी।
नोट - पैरों में महावर लगाने के पूर्व पहले की लगी हुई महावर धो दी जाती है।
कौहर-सी एड़ीनु की लाली देखि सुभाइ।
पाइ महावरु देइ को आपु भई बे-पाइ॥110॥
कौहर = एक जंगली लाल फल। सुभाय = स्वाभाविक। देइ को = कौन दे, कौन लगावे। बे-पाय = हक्का-बक्का, विस्मय-विमुग्ध।
लाल कौहर फल के समान उसकी एड़ियों की स्वाभाविक लाली देखकर, पैर में महावर कौन लगावे? नाइन स्वयं हक्का-बक्का (किंकर्त्तव्य विमूढ़) हो गई!
किय हाइलु चित चाइ लगि बजि पाइल तुव पाइ।
पुनि सुनि सुनि मुँह-मधुर-धुनि क्यों न लालु ललचाइ॥111॥
हाइलु = घायल। चाय = चाह, चाट। पायल = पाजेब
तेरे पैरों की पाजेब बजकर चित्त में चाह उत्पन्न करती और घायल बनाती है। फिर मुख की मीठी बोली सुन-सुनकर लाल (नायक) क्यों न लालच में पड़ जाय?
सोहव अँगुठा पाइ कै अनुवटु जर्यौ जराइ।
जीत्यौ तरिवन-दुति सुढरि पव्यौ तरनि मन पाइ॥112॥
पाइ के = पैर के। अनवटु = पैर के अँगूठे में पहनने का आभूषण-विशेष। जराइ = जड़ाव, नगीना। तरिवन = कर्णफूल। तरनि = सूर्य।
नगीने जड़ा हुआ पैर के अँगूठे का अनवट शोभा रहा है। (वह ऐसा लगता है) मानो कर्णफूलों की प्रभा से पराजित हो सूर्य उस (नायिका) के पाँवों पर लुढ़क पड़ा हो!
पग पग मग अगमन परत चरन-अरुन-दुति झूलि।
ठौर ठौर लखियत उठे दुपहरिया-से फूलि॥113॥
पथ में पग-पग पर आगे की ओर (जहाँ पैर पड़ने को हैं) पैर की लाल प्रभाा झड़-सी पड़ती है- जहाँ वह अपना पैर उठाकर रखना चाहती है, वहीं उसके तलवे की लाली पृथ्वी पर प्रतिबिम्बित होने लगती है- (वह ऐसी) देख पड़ती है, मानो जगह-जगह दुपहरिया के (लाल-लाल) फूल फुल उठे हों!
दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरी सारी सेत।
कवि-आँकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत॥114॥
कंचुकी = स्तनों के कसने की चोली। चुपरी = चिपटी हुई, सुगंधित सटी या कसी हुई। सेत = सफेद। आँकनु = अक्षरों, शब्दों।
सटी हुई उजली सारी और कंचुकी के भीतर स्तन नहीं छिपते। कवि के शब्दों के अर्थ के समान वे साफ देख पड़ते हैं।
नोट - यों ही एक कवि ने स्त्री के कंचुकी-मण्डित कुच और कवि के गूढ़ार्थ-भाव-संवलित शब्दों की तुलना करते हुए कहा है-
कवि-आखर अरु तिय-सुकुच अध उघरे सुख देत।
अधिक ढके हू सुखद नहिं उघरे महा अहेत॥
भई जु छबि तन बसन मिलि बरनि सकैं सु न बैन।
आँग-ओप आँगी दुरी आँगी आँग दुरै न॥115॥
सु = सो, वह। ओप = कान्ति, प्रभा। आँगी = अँगिया, चोली। दुरी = छिप गई।
वस्त्र से मिलकर उसके शरीर की जो छबि हुई, वह वचन द्वारा नहीं वर्णन की जा सकती- उसके वर्णन में वाणी (मुग्धता या असमर्थता के कारण) मूक हो जाती है। (उसके) अंग की कान्ति से (उसकी) चोली ही छिप गई, चोली से अंग (स्तन) न छिप सके!
नोट - पीताम्बर की चोली अंग की चम्पक कान्ति में छिप गई।
भूषन पहिरि न कनक कै कहि आवत इहि हेत।
दरपन कैसे मोरचे देह दिखाई देत॥116॥
कनक = सोना। कहि आवत इहि हेत = इसलिए कहा जाता है। मोरचे = धब्बे।
सोने के गहने तू न पहन, यह इसलिए कहा जाता है कि (वे गहने) दर्पण में लगे धब्बे के समान (तेरी) देह में (भद्दे) देख पड़ते हैं।
मानहु बिधि तन-अच्छ-छबि स्वच्छ राखिबैं काज।
दृग-पग पोंछन को करे भूपन पायन्दाज॥117॥
अच्छ = अच्छी। दृग पग = नजर के पैर। पायन्दाज = बँगले के दरवाजे पर रक्खा हुआ पैर पोंछने का टाट, पायपोश।
मानो ब्रह्मा ने (नायिका के) शरीर की सुन्दर कान्ति को स्वच्छ रखने के निमित्त के पैर पोंछने के लिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाये हैं- (ताकि देखनेवालों की नजर के पैरों की धूल से कहीं अंग की कान्ति न मलिन हो जाय। इसलिए भूषण-रूपी पायन्दाज बनाया कि अंग पर पड़ने से पहले नजरें अपने पैरों की धूल साफ कर लें!)
सोनजुही-सी जगमगति अँग-अँग-जोवन-जोति।
सुरँग कसूँभी चूनरी दुरँग देह-दुति होति॥118॥
सोनजुही = पीली चमेली। जोबन = जवानी। सुरँग = लाल। कसूँभी = कुसुम रंग की, लाल। देह-दुति = शरीर की कान्ति।
सोनजुही के समान उसके अंग-अंग में जवानी की ज्योति जगमगा रही है। (उस पर) कुसुम में रँगी हुई लाल साड़ी (पहनने पर) शरीर की कान्ति दुरंगी हो जाती है-लाल और पीले के संयोग से अजीब दुरंगा (नारंगी) रंग उत्पन्न होता है।
छिप्यो छबीलौ मुँह लसै नीलै अचर-चीर।
मनौ कलानिधि झलमलै कालिन्दी कैं नीर॥119॥
छिप्यो = ढँका हुआ। छबीलौ = सुन्दर। नीलै अंचर-चीर = नीली साड़ी का अ=ँचरा। कलानिधि = चन्द्रमा। कालिन्दी = यमुना।
नीले अंचल में ढँका हुआ सुन्दर मुखड़ा (ऐसा) शोभ रहा है, मानो चन्द्रमा (नीले जल वाली) यमुना के पानी में झलक रहा हो-अपनी प्रभा बिखेर रहा हो।
लसै मुरासा तिय-स्रवन यौं मुकुतन दुति पाइ।
मानहु परस कपोल कैं रहे सेद-कन छाइ॥120॥
मुरासा = कर्णफूल। मुकुतन = मुक्ताओं, मोतियों। परसे = स्पर्श। कपोल = गाल। सेद = स्वेद। कन = कण, बिन्दु।
मोतियों की कान्ति पाकर (मुक्ता-जटित) कर्णफूल, नायिका के कानों में यों शोभते हैं, मानो (उसके) गालों के स्पर्श से (उन कर्णफूलों पर) पसीने के कण छा रहे हों।
नोट - धन्य बिहारी! तुमने प्राणहीन कर्णफूलों पर भी स्त्री के गालों के सौंदर्य का जादू डाल ही दिया! कोमल कपोलों के स्पर्श से कर्णफूलों के भी पसीने निकल आये-सात्विक भाव हो आया!
सहज सेत पँचतोरिया पहिरत अति छबि होति।
जल-चादर कै दीप लौं जगमगाति तनि जोति॥121॥
सहज = स्वाभाविक। सेत = श्वेत, सफेद। पँचतोरिया = एक प्रकार का झूना सफेद रेशमी कपड़ा। लौं = समान।
स्वाभाविक रूप से सफेद पँचतोरिया पहनने पर उसकी शोभा बढ़ जाती है। जल-चादर के अन्दर रक्खे हुए दीपक के समान (उस पंचतोरिया के भीतर से उसके) शरीर की कान्ति जगमगाने लगती है।
नोट - जल-चादर = राजाओं के बाग में पहले ऐसी सजावट होती थी कि फव्वारे से होकर चादर की तरह पानी गिरता था, और उसके बीच में दीपक रक्खे जाते थे, जो अलग से झलमलाते-से देख पड़ते थे।
सालति है नटसाल-सी क्यौंहूँ निकसत नाँहि।
मनमथ-नेजा-नोक-सी खुभी खुभी जिय माँहि॥122॥
सालती = चुभती है, पीड़ा पहुँचा रही है। नटसाल = बाण की नोक का वह तिरछा भाग, जो टूटकर शरीर के भीतर ही रह जाता है। मनमथ = कामदेव। नेजा = कटार। खुभी = लौंग के आकार का एक प्रकार का कान का गहना। खुभी = गड़ी।
कामदेव के कटार की नोक के समान (नायिका के कानों की) खुभी (मेरे) मन में गड़ गई है। बाण की टूटी हुई गाँसी की तरह पीड़ा पहुँचा रही है-किसी प्रकार नहीं निकलती।
अजौं तर्यौना ही रह्यौ स्तुति सेवत इकरंग।
नाक-वास बेसरि लह्यौ वसि मुकुतनु कैं संग॥123॥
अजौं = आज भी। तर्यौना = (1) कर्णफूल (2) तर्यौ + ना = नहीं तरा। स्तुति = (1) श्रुति, वेद (2) कान। इकरंग = एक मात्र, एक ढंग से। नाक = (1) नासिका (2) स्वर्ग। बेसरि = (1) नाक का भूषण, झुलनी, खच्चर। (2) बे+सरि = जिसकी समानता न हो, अनुपम। मुकुतनु = (1) मुक्ता (2) मुक्त लोग, महात्मा।
श्लेषार्थ - एकमात्र वेद ही की सेवा करने से-सत्संग न कर केवल वेद ही पढ़ते रहने से-कोई अभी तक नहीं तरा। (किन्तु) मुक्तात्माओं-जीवनमुक्त महात्माओं-की सत्संगति से अनुपम स्वर्ग का वास (बहुतों ने पाया)।
एकमात्र (एक ढंग से)कानों को सेते रहने से आज भी यह ‘कर्णफूल’ कर्णफूल ही रह गया। (किन्तु) मुक्ताओं की संगति करके बेसर ने नाक का सहवास पा लिया।
नोट - इस दोहे में भी बिहारी ने श्लेष का अपूर्व चमत्कार दिखलाया है।
(सो.) मंगल बिन्दु सुरंगु, मुख ससि केसरि आड़ गुरु।
इक नारी लहि संगु, रसमय किय लोचन जगत॥124॥
सुरंगु = लाल। आड़ = टीका। गुरु = वृहस्पति। रसमय = तृप्तिमय, रसयुक्त, जलमय।
(ललाट में लगी) लाल बेंदी ‘मंगल’ है। मुख ‘चन्द्रमा’ है। केसर का (पीला) टीका ‘बृहस्पति’ है। (यों मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पति-तीनों ने) एक स्त्री का संग पाकर-स्त्री का संग पाकर-स्त्री योग में पड़कर-संसार के लोचनों को सरस (शीतल) कर दिया है।
नोट- ज्योतिष के अनुसार मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पति के एक नाड़ी में आ जाने से खूब वर्षा होती है। मंगल का रंग लाल, चन्द्रमा का श्वेत और बृहस्पति का पीला कहा गया है।
गोरी छिगुनी नखु अरुनु छला स्यामु छबि देइ।
लहत मुकति-रति पलकु यह नैन त्रिबेनी सेइ॥125॥
छिगुनी = कनिष्ठा अँगुली। छला = छल्ला, अँगूठी। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष। रति-प्रीति। पलकु = एक क्षण।
गोरी कनिष्ठा अँगुली, (उसका) लाल नख और (उसमें पहनी गई नीलम जड़ी) साँवली अँगूठी-ये तीनों शोभा दे रहे हैं! नेत्र, इस त्रिवेणी (गोरी गंगा, लाल सरस्वती और श्यामला यमुना के संगम)-का सेवन करके, एक क्षण में ही, प्रीति-रूपी मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
तरिवन कनकु कपोल दुति बिच-बीच ही विकान।
लाल-लाल चमकति चुनी चौका चीन्ह समान॥126॥
तरिवन = तरौना, तरकी, कर्णभूषण विशेष। कपोल = गाल। चुनी = चुन्नी, मणि के टुकड़े। चौका = अगले चारों दाँत।
सोने की तरकी गालों की कान्ति के बीच ही में बिग गई-लीन हो गई देख नहीं पड़ती (हाँ, उस तरकी में जड़ी हुई) लाल-लाल चुन्नियाँ अगले चारों दाँतों के चिह्न के (साथ-साथ) समान भाव से चमक रही हैं।
सारी डारी नील की ओट अचूक चुकै न।
मो मन-मृग करवर गहै अहे अहेरी नैन॥127॥
डारी = (डाली) डाल आदि की बनी हुई हरी टट्टी, जिसकी ओट से शिकारी शिकार करते हैं। कर-बर = (कर-बल) हाथ से ही। अहे = अरी। अहेरी = शिकारी।
नीली साड़ी की टट्टी की ओट से अचूक निशान चलाते हैं, कभी चूकते नहीं। अरी! (तुम्हारे) नेत्र-रूपी शिकारी ने मेरे मनरूपी मृग को हाथ ही से पकड़ लिया।
तन भूपन अंजन दृगनु पगनु महावर रंग।
नहिं सोभा कौं साजियतु कहिबैं ही कौं अंग॥128॥
पगन = पाँवों में। साजियतु = सजता है, बढ़ाता है।
शरीर में गहने, आँखों में काजल, पाँवों में महावर का रंग-ये सब केवल कहने-भर के ही (शृंगार के) अंग हैं, ये शोभा की सामग्री नहीं है-इनसे शोभा की वृद्धि नहीं होती।
पाइ तरुनि-कुच-उच्च पदु चिरम ठग्यौ सब गाँउ।
छुटैं ठौरु रहिहै वहै जु हो मोल छबि नाँउ॥129॥
चिरम = गुंजा, करजनी। ठौर = स्थान। वहै = वही। जु हो = जो वास्तव में है। मोल = दाम। नाँउ = नाम।
नवयुवती के स्तनों पर ऊँचा स्थान पाकर गुंजे ने समूचे गाँव को ठग लिया-सभी को भ्रम हो गया कि हो न हो, यह मूँगा है। किन्तु (वह) स्थान छूटने पर नवयुवती के गले से उतर जाने पर-वही (स्वल्प) मूल्य, वही (भद्दी) शोभा और वही (गुंजा) नाम रह जायगा, जो (वास्तव में) है।
उर मानिक की उरबसी डटत घटतु दृग-दागु।
छलकतु बाहिर भरि मनौ तिय हिय कौ अनुरागु॥130॥
उरबसी = गले में पहनने का एक आभूषण, मणिमाला, हैकल, चौंका। डटत = देखते। दृग-दागु = आँखों की जलन। अनुरागु = प्रेम (अनुराग ‘प्रेम’ का रंग भी माणिक्य की तरह लाल माना गया है)
हृदय पर मणिमाला देखते ही आँखों की जलन घट जाती है। (वह ऐसी दीख पड़ती है) मानो (उस) नायिका के हृदय का प्रेम बाहर होकर झलक रहा है।
जरी-कोर गोरै बदन बरी खरी छवि देखु।
लसति मनौ बिजुरी किए सारद-ससि परिबेखु॥131॥
जरी-कोर = जरी की किनारी। बरी = प्रज्वलित होती। खरी = अधिक। बिजुरी = बिजुली। सारद = शरद ऋतु के। परिबेखु = मण्डल, घेरा।
गोरे मुखड़े पर (साड़ी में टँकी) जरी किनारी इस अत्यंत उद्दीप्त शोभा को तो देखो। (मालूम पड़ता है) मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चारों ओर से घेरे हुए बिजली सोह रही हो।
नोट - यहाँ जरी की किनारी बिजली, मुखमंडल शरद ऋतु का चन्द्रमंडल है। विद्युत्मण्डल से घिरा हुआ चन्द्रमण्डल! अद्भुत कवि-कल्पना है।
देखी सो न जुही फिरति सोनजुही-से अंग।
दुति लपटनु पट सेतु हूँ करति बनौटी-रंग॥132॥
सोनजुही की-सी देहवाली उस (नायिका) को तो तुमने देख न ली (अर्थात तुमने भी देखी) जो (अपने सुनहले शरीर की) आभा की लपटों से उजले वस्त्र को भी (पीले) कपासी रंग का बनाती हुई (वाटिका में) घूमती है।
तीज-परब सौतिनु सजे, भूषन बसन सरीर।
सबै मरगजे-मुँह करी इहीं मरगजैं चीर॥133॥
तीज-परब = भादो बदी 3 का त्योहार। मरगजैं = मलिन, रौंदी हुई। चीर = साड़ी।
तीज के व्रत के दिन सौतिनों ने गहनों और कपड़ों से अपने शरीर को सिंगारा, किन्तु उसने अपनी (उस रति-मर्दित) मलिन साड़ी से ही सबका मुँह मलिन कर दिया।
नोट - पति-सहवास में रौंदी हुई उसकी मलिन साड़ी देखकर सौतों ने यह जाना कि रात में इसने प्यारे के साथ केलि-रंग किया है।
पचरँग-रँग बेंदी खरी उठी जागि मुखजोति।
पहिरैं चोर चिनौटिया चटक चौगुनी होति॥134॥
चिनौटिया चीर = कई रंगों से रँगी लहरदार चुनरी। चटक = चमक।
पचरँगे रंग की बेंदी बनी है। (उसे लगाते ही) आबदार मुख की ज्योति (और) जगमगा उठी। (उसपर) रंग-बिरंगी चुनरी पहनने से चमक (और भी) चौगुनी हो जाती है।
बेंदी भाल तँबोल मुँह सीस सिलसिले बार।
दृग आँजे राजै खरी एई सहज सिंगार॥135॥
भाल = ललाट। तँबोल = पान। सिलसिले = सजाये हुए, चिकनाये हुए। बार = केश। आँजे = काजल लगाये। खरी = अत्यन्त। एई = इसी। सहज = स्वाभाविक।
ललाट में बेंदी, मुख में पान, सिर पर सजाये हुए बाल और आँखों में काजल लगाये-इसी स्वाभाविक शृंगार से (नायिका) अत्यन्त शोभ रही है।
हौं रोझी लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल।
सोन जुही-सी होति दुति मिलत मालती-माल॥136॥
रीझिहौ = मोहित (मुग्ध) हो जाओगे। सोनजुही = पीली चमेली।
हे छबीले लाल-रसिया श्रीकृष्ण! मैं देखकर मोह गई हूँ, तुम भी (उसकी) शोभा देख मोह जाओगे। (कैसी स्वाभाविक कान्ति है!) मालती की (उजली) माला (उसके गोरे शरीर से) मिलकर सोनजुही के समान (पीली) द्युति की हो जाती है।
झीने पट मैं झुलमुी झलकति ओप अपार।
सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार॥137॥
झीने = महीन, बारीक। पट = वस्त्र। झुलमुली = कान में पहनने का कनपत्ता नामक गहना, चकाचौंध करती हुई। ओप = कान्ति। सुरतरु = कल्पवृक्ष। लसत = शोभता है। डार = शाखा।
महीन कपड़े में (चकाचौंध करती हुई) कनपत्ते की अपार कान्ति झलमला रही है। (वह ऐसा मालूम होता है) मानो कल्पवृक्ष की पल्लव-युक्त शाखा शोभा पा रही हो।
फिरि फिरि चितु उतहीं रहतु टुटी लाज की लाब।
अंग अंग छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव॥138॥
लाव = लंगर की रस्सी। झौंर = समूह।
पहिरत हीं गोरैं गरैं यौं दौरी दुति लाल।
मनौ परसि पुलकित भई बौलसिरी की माल॥144॥
गरे = गले। परसि = स्पर्श करके। बौलसिरी = मौलसिरी, फूल-विशेष।
उसके गोरे गले में पहनते ही, हे लाल, ऐसी चमक (उस माला में) आ गई, मानो (वह) मौलसिरी की माला भी उसके स्पर्श से पुलकित हो गई हो-रोमांचित हो गई हो!
कहा कुसुम कह कौमुदी कितक आरसी जोति।
जाकी उजराई लखैं आँख ऊजरी होति॥145॥
कुसुम = फूल, जो कोमलता और सुन्दरता में प्रसिद्ध है। कौमुदी = चाँदनी। आरसी = आईना, दर्पण। आँख ऊजरी होति = आँखें तृप्त हो जाती हैं-प्रसन्न अथवा विकसित हो जाती हैं।
फूल, चाँदनी और दर्पण की ज्योति की उज्ज्वलता को कौन पूछे? (वह नायिका इतनी गोरी है कि) जिसकी उज्ज्वलता को देखकर (काली) आँखें उजली हो जाती हैं।
कंचन तन धन बरन बर रह्यौ रंगु मिलि रंग।
जानी जाति सुबास हीं केसरि लाई अंग॥146॥
घन = नायिका। बरन = वर्ण, रंग।
नायिका के सुनहले शरीर के श्रेष्ठ रंग में (केसर का) रंग मिल-सा गया है। (फलतः) अंग में लगी हुई केसर अपनी सुगंध से ही पहिचानी जाती है।
अंग अंग नग जगमगत दीपसिखा-सी देह।
दिया बढ़ाऐं हू रहै बड़ो उज्यारो गेह॥147॥
नग = आभूषणों में जड़े हुए नगीने। दीपसिखा = दीपशिखा, दीपक की टेम या लौ। दिया बढ़ाऐं हू = दीपक को बुझाने पर भी। उज्यारो = उजेला।
दीप की लौ के समान उसके अंग-प्रत्यंग में नग जगमगा रहे हैं। अतएव, दीपक बुझा देने पर भी घर में (ज्योतिपूर्ण शरीर और नगों के प्रकाश से) खूब उजेला रहता है।
ह्वै कपूरमनिमय रही मिलि तन-दुति मुकुतालि।
छिन-छिन खरो बिचच्छनी लखति छाइ तिनु आलि॥148॥
कपूरमनि = कर्पूरमणि = कहरवा, यह पीले रंग का होता है और तिनके का स्पर्श होते ही उसे चुम्बक की तरह पकड़ लेता है। दुति = चमक। मुकुतालि = मुक्तालि, मुक्ताओं के समूह। खरी = अत्यन्त। बिचच्छनी = चतुरा स्त्री। छाइ = छुलाकर। तनु = तिनके। आलि = सखी।
शरीर की (पीली) द्युति से मिलकर मुक्ता की (उजली) माला (पीले) कर्पूरमणि-कहरुवा-की माला-सी हो रही है। अतएव, अत्यन्त सुचतुरा सखी क्षण-क्षण (उस माला से) तिनका छुला-छुलाकर देखती है (कि अगर कहरुवा की माला होगी, तो तिनके को पकड़ लेगी)।
खरी लसति गोरैं गरैं धँसति पान की पीक।
मनौ गुलीबँद लाल की लाल लाल दुति लीक॥149॥
धँसति = हलक के नीचे उतरती है। खरी = अधिक। लसति = शोभती है। गुलीबँद = गले में बाँधने का आभूषण, जिसे कंठी कहते हैं। लाल = लाल मणि। लीक = रेखा, लकीर।
(उस गोरी के) गोरे गले में उतरती हुई पान की पीक बड़ी अच्छी लगती है। (उसे कंठ तक करते समय अत्यन्त सुकुमारता के कारण) जो पीक की ललाई बाहर झलकती है, (सो) लाल-लाल लकीरों की चमक (ऐसी मालूम पड़ती है) मानो लाल मणियों की कंठी (उसने पहली) हो।
बाल छबीली तियन मैं बैठी आपु छिपाइ।
अरगट ही फानूस-सी परगट होति लखाइ॥150॥
(वह) सुन्दरी बाला स्त्रियों (के झुण्ड) में अपने-आपको छिपाकर जा बैठी। किन्तु फानूस (की ज्योति) के समान वह अलग ही (साफ) प्रकट दीख पड़ने लगी।
डोठि न न परत समान दुति कनकु कनक सौं गात।
भूषन कर करकस लगत परस पिछाने जात॥151॥
डीठि = दृष्टि। दुति = चमक, आभा। कनक = सोना। कर = हाथ। करकस = कठोर। परस = स्पर्श। पिछाने = पहिचाने।
एक ही प्रकार की आभा होने से (उसके) सोने के ऐसे (गोरे) शरीर में सोना (सुनहला गहना) नहीं दीख पड़ता- वह शरीर के रंग में मिल जाता है। (अतएव, सोने के) गहने हाथ में कठोर लगने से स्पर्श-द्वारा ही पहचाने जाते हैं।
करतु मलिनु आछी छबिहिं हरतु जु सहजु विकासु।
अंगरागु अंगनु लगै ज्यौं आरसी उसासु॥152॥
आछी = अच्छी। अंगराग = केसर, चंदन, कस्तूरी आदि का सौंदर्यवर्द्धक लेप। आरसी = आईना। उसास = उच्छ्वास = साँस की भाप।
जो सुन्दर शोभा को भी मलिन कर देता है, स्वाभाविक रूपविकास को भी हर लेता है। (उसके) शरीर में लगा हुआ अंगराग आईने पर पड़ी साँस भी भाप-सा (मालूम पड़ता) है।
नोट - आईने पर साँस की भाप पड़ने से जिस प्रकार उसकी ज्योति धुँधली हो जाती है, अंगराग से नायिका के शरीर की स्वाभाविक ज्योति भी उसी प्रकार मलिन हो जाती है।
अंग-अंग प्रतिबिम्ब परि दरपन सैं सब गात।
दुहरे तिहरे चौहरे भूपन जाने जान॥153॥
आईने जैसे (चमकीले) शरीर में प्रतिबिम्ब (छाया) पड़ने से (अंग-अंग के गहने) दुहरे तिहरे और चौहरे दीख पड़ते हैं-एक एक गहना दो-दो, तीन-तीन, चार-चार तक मालूम पड़ता है।
अंग-अंग छबि की लपट उपटति जाति अछेह।
खरी पातरोऊ तऊ लगै भरी-सी देह॥154॥
उपटति जाति = बढ़ती ही जाती है। अछेह = निरंतर, अबाध रूप। खरी = अत्यन्त। पातरीऊ = पतली होने पर भी।
अंग-प्रत्यंग से शोभा की लपट अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। (अतएव) अत्यन्त पतली होने पर भी कान्ति के (अधिकाधिक उमाढ़ के कारण) उसकी देह भरी-सी (पुष्ट) जान पड़ती है।
रंच न लखियति पहिरि यौं कंचन-सैं तन बाल।
कुँभिलानैं जानी परै उर चम्पक की माल॥155॥
रंच = जरा, कुछ। उर = हृदय।
सोने के ऐसे (गोेरे) शरीरवाली (उस) बाला के हृदय पर चंपा की माला (शरीर की द्युति और चंपा की द्युति एक-सी होने के कारण) जरा भी नहीं दीख पड़ती। (हाँ) जब वह कुम्हिला जाती है, तभी दीख पड़ती है।
नोट - तुलसीदास का एक बरवै भी इसी भाव का है-
चंपक हरवा अंग मिलि अधिक सुहाइ।
जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाइ॥
भूपन भारू सँभारिहै क्यौं इहिं तन सुकुमार।
सूधे पाइ न धर परै सोभा हीं कैं भार॥156॥
सुकुमार = नाजुक। सूधे = सीधे। धर = धरा, पृथ्वी।
यह सुकुमार शरीर गहनों के भार को कैसे सँभालेगा? जब सौंदर्य के भार ही से सीधे पैर पृथ्वी में नहीं पड़ते!
नोट - इस दोहे में बिहारी ने मुहाविरे का अच्छा चमत्कार दिखलाय है। ‘सीधे पैर नहीं पड़ना’ का अर्थ है ‘ऐंठकर चलना’। कोई सखी नायिका से व्यंग्यपूर्वक कहती कि बिना भूषण के ही तुम ऐंठकर चलती हो, फिर भूषण पहनने पर न मालूम क्या गजब ढाओगी? साथ ही, इसमें सुकुमारता और सुन्दरता की भी हद दिखाई गई है।
न जक धरत हरि हिय धरैं नाजुक कमला-बाल।
भजत भार भयभीत ह्व घनु चंदनु बनमाल॥157॥
जक = डर। घनु = कर्पूर।
(उसका पागलपन तो देखिये।) वह लक्ष्मी-सी सुकुमारी बाला श्रीकृष्ण को हृदय में धारण करने से तो नहीं डरती, किन्तु कर्पूर, चंदन (आदि के लेप) तथा वनमाला के बोझ से डरकर भाग जाती है (कि उनका बोझ कैसे सँभालूँगी!)
नोट - श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल नायिका अंगराग आदि नहीं लगाती है। इस दोहे में ‘कमला’ शब्द बहुत उपयुक्त है। कमला = जिसकी उत्पत्ति कमल से हो। इस शब्द से नायिका की अत्यंत सुकुमारता प्रकट होती है।
अरुन बरन तरुनी चरन अँगुरी अति सुकुमार।
चुवत सुरँगु रँगु सी मनौ चँपि बिछियनु कैं भार॥158॥
अरुन = लाल। बरन = वर्ण, रंग। सुरंग = लाल। चँपि = दबकर। बिछियनु = अँगुलियों में पहनने के भूषण।
उस नवयुवती के चरण लाल रंग के हैं। उसकी अँगुलियाँ अत्यन्त सुकुमार हैं (ऐसा मालूम होता है) मानो बिछुओं के बोझ से दबकर (उसकी सुकुमार अँगुलियों से) लाल रंग-सा चू रहा हो।
छाले परिबे कैं डरनि सकै न पैर छुवाइ।
झिझकति हियैं गुलाब कैं झँवा झँवैयत पाइ॥159॥
छाले = फोड़े। झँवाँ; जली हुई रुखड़ी ईंट; वह वस्तु जिससे स्त्रियाँ अपने तलवों को साफ करती हैं। झँवैयत = झाँवाँ से साफ करना।
उसके पैर इतने सुकुमार हैं कि फोड़ा पड़ जाने के डर से दासी अपने हाथ उसके पैर से छुवा ही नहीं सकती। (यहाँ तक कि) गुलाब-फूल के झवें से पैर को झँवाते समय-साफ करते समय-भी हृदय में झिझक उठती है (कि कहीं गुलाब का कोमल पुष्प भी इसके पैर में न गढ़ जाय)!
नोट - कृष्ण कवि ने इसकी टीका यों की है-
प्यारी के नाजुक पायँ निहारिकै हाथ लगावत दासी डरैं।
धोवत फूल गुलाब के लै पै तऊ झझकै मति छाले परें॥
मैं बरजी कै बार तूँ इत कति लेति करौट
पँखुरी लगैं गुलाब की परिहै गात खरौट॥160॥
बरजी = मना किया। इत = इधर। कति = क्यों। पँखुरी = पंखड़ी गुलाब के फूल की कोमल पतियाँ। खरौट = खरौंच, निछोर।
मैं कई बार मना कर चुकी। (फिर भी) तू इस ओर क्यों करवट बदलती है? (देख, इधर गुलाब की पँखुड़ियाँ बिखरी हैं।) गुलाब की पँखड़ियों के लगने से तुम्हारे शरीर में खरौंच पड़ जायँगे-शरीर छिल जायगा।
कन दैबौ सौंप्यो समुर बहू थुरहथी जानि।
रूप रहचटैं लगि लग्यौ माँगन सबु जगु आनि॥161॥
कन = कण = भिक्षा। बहू = वधू = पतोहू। थुरहथी = छोटे हाथों वाली। रहचटैं = चाह, लालच। लगि = लगकर। आनि = आकर।
(कंजूस) ससुर ने भिक्षा देने का (भार उसी को) सौंपा (इसलिए कि हथेली छोटी है, भिक्षुकों को थोड़ा ही अन्न दिया जा सकेगा); किन्तु (उसके) रूप के लालच में पड़ सारा संसार ही आकर (उससे भिक्षा) माँगने लगा!
नोट - छोटी हथेली स्त्रियों की सुन्दरता का सूचक है।
त्यौं त्यौं प्यासेई रहत ज्यौं ज्यौं पियत अघाइ।
सगुन सलोने रूप की जु न चख-तृषा बुझाइ॥162॥
अघाइ = अफरकर, तृप्तिपूर्वक, छककर। सगुन = गुणसहित। सलोने = लावण्ययुक्त, नमकीन। चख = नेत्र। तृषा = प्यास।
जितना ही अघा-अघाकर पीते हैं, उतना ही प्यासे रह जाते हैं। गुणों से युक्त लावण्य-भरे रूप की- इन नेत्रों की-प्यास शान्त नहीं होती-अर्थात् इन नेत्रों को उसके लावण्यमय रूप के देखने की जो प्यास है, वह नहीं बुझती।
नोट - ‘सलोने’ शब्द यहाँ पूर्ण उपयुक्त है। नमकीन पानी पीने से प्यास नहीं बुझती। त्योंही लावण्यमय रूप देखने से आँखें नहीं ऊबतीं या अघातीं।
रूप-सुधा-आसव छक्यौ आसव पियत बनै न।
प्यालै ओठ प्रिया-बदन रह्यौ लगाऐं नैन॥163॥
रूपसुधा = अमृत के समान मधुर रूप। आसव = मदिरा। छक्यौ = भरपेट पीने से। बदन = मुख।
अमृततोपम सौंदर्य-रूपी मदिरा पीने के कारण (साधारण) मदिरा पीते नहीं बनती। (मदिरा के) प्याले तो ओंठ से लगे हैं, और आँखें प्यारी के मुख पर अड़ी हैं, वह एकटक प्यारी का मुख देख रहा है, पर बेचारे से मदिरा पी नहीं जाती।
दुसह सौति सालैं सुहिय गनति न नाइ बियाह।
धरे रूप-गुन को गरबु फिरै अछेह उछाह॥164॥
गनति न = नहीं गिनती, परवा नहीं करती। नाह = पति। अछेह = अनन्त, अधिक। उछाह = आनन्द, उत्साह।
सौतिन सदा दुस्सह होती है, वह हृदय में सालती है (यह जानकर भी वह नायिका) पति के (दूसरे) विवाह की परवा नहीं करती। (अपने) रूप और गुण के गर्व में मस्त हो अनन्त आनन्द से विचार रही है।
लिखन बैठि जाकी सवी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर॥165॥
सबी = चित्र। गरूर = अभिमान। केते = कितने। चितेरे = चित्रकार। कूर = बेवकूफ।
(उस नायिका के रूप का क्या कहना!) जिसके चित्र को अत्यन्त गर्व और अभिमान के साथ बनाने के लिए बैठकर संसार के कितने चतुर चित्रकार बेवकूफ बन गये-उनसे चित्र नहीं बन सका!
(सो.) तो तन अवधि अनूप, रूप लग्यौ सब जगत कौ।
मो दृग लागे रूप, दृगनु लगी अति चटपटी॥166॥
अवधि = सीमा, हद। दृग = आँख। चटपटी = व्याकुलता।
तुम्हारा शरीर अनुपमता की सीमा है-इसकी समानता संसार में है ही नहीं। (क्योंकि इसके रचने में) संसार-भर का सौंदर्य लगाया गया है- (जहाँ, जिस पदार्थ में, कुछ सौंदर्य मिला, सब का संमिश्रण इसमें कर दिया गया है)- मेरी आँखों में (तुम्हारा वह) रूप आ लगा है-समा गया है; (फलतः) आँखों में अत्यन्त व्याकुलता छा गई है-वे व्याकुल बनी रहती हैं।
त्रिबली नाभि दिखाइ कर सिर ढँकि सकुच समाहि।
गली अली की ओट ह्वै चली भली विधि चाहि॥167॥
त्रिबली = नाभी के निकट की तीन रेखाएँ। सकुच समाहि = लाज में समाकर, लज्जित होकर। अली = सखी। चाहि = देखकर।
त्रिबली और नाभी दिखकर (फिर) लज्जित हो सिर ढँककर हाथ उठाकर-हे सखि, वह (अपनी) सखियों की ओट हो भली भाँति (नायक को) देखती हुई गली में चली गई।
देख्यौ अनदेख्यौ कियै अँगु-अँगु सबै दिखाइ।
पैंठति-सी तन मैं सकुचि बैठी चितै लजाइ॥168॥
सकुचि = संकोच करके। लजाय = लजाकर।
(पहले तो उस नायिका ने) सभी अंग-प्रत्यंग दिखाकर (नायक को) देखती हुई भी अनदेख कर दिया-यद्यपि वह उसे देख रही थी, तो भी न देखने का बहाना करके अपने सभी अंग उसे दिखा दिये। (फिर उस नायक के) तन में पैठती हुई-सी-उसके चित्त में खुबती हुई-सी-वह मन में लजाकर संकोच के साथ बैठ गई।
बिहँसि बुलाइ विलोकि उत प्रौढ़ तिया रसघूमि।
पुलकि पसीजति पूत कौ पिय चूम्यौ मुँहु चुमि॥169॥
बिहँसि =हँसकर, मुस्कुरा। उत =उधर। प्रौढ़ = प्रौढ़ा, पूर्णयौवना। रसघूमि = रस में मस्त होकर। पुलकि = रोमांचित होकर। पसीजति = पसीजती है, पसीने से तर होती है।
हँसकर, बुलाकर, (और) उधर (नायक की ओर) देखकर वह पूर्णयौवना स्त्री, रस में मस्त हो, पति द्वारा चूके गये अपने पुत्र के मुख को चूमकर, रोमांचित तथा पसीने से तर होती है।
रहौ गुही बेनी लखे गुहिबे के त्यौनार।
लागे नीर चुचान जे नीठि सुखाये बार॥170॥
रहौ = रह जाओ, ठहरो। त्यौनार = ढंग। नीर = पानी। नीठि = मुश्किल से। बार = बाल, केश।
ठहरो भी, (तुम) वेणी गूँथ चुके। (तुम्हारा) वेणी गूँथने का ढंग देख लिया। मुश्किल से सुखाये हुए इन बालों से (पुनः) पानी चुचुहाने लगा।
नोट - नायिका की चोटी गूँथते समय प्रेमाधिक्य के कारण नायक के हाथ पसीजने लगे, जिससे सूखे हुए बाल पुनः भींग गये।
स्वेद-सलिलु रोमांचु-कुसु गहि दुलही अरु नाथ।
हियौ दियौ सँग हाथ कैं हँथलैयैं हीं हाथ॥171॥
स्वेद = पसीना। रोमांचु-कुसु = खड़े हुए रोंगटे के कुश। नाथ = दुलळा। हियौ = हृदय। हँथलेयैं = पाणिग्रहण।
पसीना-रूपी पानी और रोमांच-रूपी कुश लेकर वर और दुलहिन (दोनों) ने पाणिग्रहण के समय में ही अपने हाथ के साथ ही अपना-अपना हृदय भी (एक दूसरे के) हाथ में दे दिया।
सनि कज्जल चख झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु।
क्यौं न नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेस सबु देहु॥175॥
सनि = शनैश्चर। चख = आँख। झख = मीन। सुदिन = शुभ घड़ी। सुदेस = सुन्दर देश।
काजल शनैश्चर है, आँखें मीन लग्न हैं। (यों इस शनैश्चर और मीन लग्न के संयोग की) शुभ घड़ी में प्रेम की उत्पत्ति हुई है। (फिर वह प्रेम) समूचे शरीर-रूपी सुन्दर देश को पाकर (उसका) राजा बन क्यों न भोग करें?
नोट - ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार मीन-लग्न में शनैश्चर पड़ने से राजयोग होता है।
चितई ललचौहैं चखनु डटि घूँघट पट माँह।
छल सौं चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छाँह॥176॥
चितई = देखा। ललचौहैं = मन ललचाने वाले। चखनु = आँखें। छिनकु = एक क्षण। छाँह = छाया, परिछाई।
घूँघट के कपड़े के भीतर से डटकर-निःशंक होकर- (उसने) लुभावनी आँखों से (मुझे) देखा। (फिर वह) छबीली छल से एक क्षण के लिए अपनी छाया (मेरे शरीर से) छुलाकर चली गई।
नोट - छाया छुलाने से नायिका का यह तात्पर्य है कि मैं आप (प्रेमी) से मिलना चाहती हूँ।
कीनैं हूँ कोटिक जतन अब कहि काढ़ै कौनु।
भौ मन मोहन रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु॥177॥
कहि = कहौ। काढ़ै = निकाले, बाहर करे। लौनु = नमक।
करोड़ों यत्न करने पर भी, कहो अब कौन (उसे) बाहर कर सकता है? श्रीकृष्ण के रूप से मिलकर (मेरा) मन पानी में का नमक हो गया-जिस प्रकार नमक पानी में घुलकर मिल जाता है, उसी प्रकार मेरा मन भी श्रीकृष्ण से घुल-मिल गया है।
नेह न नैननु कौं कछू उपजी बड़ो बलाइ।
नीर भरै नित प्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाइ॥178॥
बलाय = बला, रोग। तऊ = तो भी। नित प्रति = नित्य, प्रतिदिन।
(यह) प्रेम नहीं है-कौन इसे प्रेम कहता है? (मेरी) आँखों में (निस्संदेह) कोई भारी रोग उत्पन्न हो गया है। (देखो न) सदा पानी से भरी रहती हैं-आँसुओं में डूबी रहती हैं, तो भी (इनकी) प्यास नहीं बुझती!
छला छबीले लाल कौ नबल नेह लहि नारि।
चूँवति चाहति लाइ उर पहिरति धरति उतारि॥179॥
छला = छल्ला, अँगूठी। नवल = नया। लहि = पाकर। चाहति = देखती है। लाइ उर = हृदय से लगाकर। धरति = रखती है।
छबीले लाल की-रसिया श्रीकृष्ण की-अँगूठी नवीन प्रेम में (उपहार-स्वरूप) पाकर (वह) स्त्री (उसे) चूमती है, देखती है, छाती से लगाकर पहनती है और उतारकर रखती है-पगली-सी ये सारी चेष्टाएँ कर रही है।
थाकी जतन अनेक करि नैंकु न छाड़ति गैल।
करी खरी दुबरी सुलगि तेरी चाह चुरैल॥180॥
नेकु = जरा, तनिक। गैल = राह। खरी = अत्यन्त। सु लगि = अच्छी तरह लगकर।
अनेक यत्न कर-करके थक गई, (किन्तु) जरा भी राह नहीं छोड़ती-पिंड नहीं छोड़ती- छुटकारा नहीं देती। तेरी चाह-रूपी चुड़ैल ने अच्छी तरह लगकर उसे बहुत ही दुबली बना दिया है।
उन हरकी हँसि कै इतै इन सौंपी मुसुकाइ।
नैन मिलैं मन मिलि गए दोऊ मिलवत गाइ॥181॥
हरकी = हटकी, रोका। इतै = इध्र। मिलवत = मिलाते समय।
उन्होंने-श्रीकृष्ण ने-हँसकर मना किया (नहीं, मेरी गायों में अपनी गायें मत मिलाओ), इधर इन्होंने-श्रीराधिका ने-मुस्कुरारकर सौंप दी (लौ मेरी गौएँ, मैं तुम्हीं को सौंपता हूँ), यों गायों को मिलाते समय आँखें मिलते ही दोनों (राधा-कृष्ण) का मन भी मिल गया।
फेरू कछुक करि पौरि तैं फिरि चितई मुसुकाइ।
आई जावनु लेन तिय नेहैं गई जमाइ॥182॥
फेरु = बहाना। पौरि = दरवाजा, ड्यौढ़ी। चितई = देखा। जावनु = वह थोड़ा-सा खट्टा दही, जिसे दूध में डालकर दही जमाया जाता है।
कुछ बहाना करके दरवाजे से लौट (उसने) मुस्कुराकर (मेरी ओ) देखा। (यों) वह स्त्री आई (तो) जामन लेने, (और) गई प्रेम जमाकर- प्रेम स्थापित कर।
या अनुरागी चित्त की गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यौं बूड़ै स्याम रँग त्यौं-त्यौं उज्जल होइ॥183॥
गति = चाल। कोइ = कोई। स्याम-रँग = काला रंग, कृष्ण का रंग। उज्जल = उज्ज्वल, निर्मल।
इस प्रेमी मन की (अटपटी) चाल कोई नहीं समझता; (देखो तो) यह ज्यों-ज्यों (श्रीकृष्ण के) श्याम-रंग में डूबता है, त्यों-त्यों उजला ही होता जाता है।
होमति सुख सुरबु करि कामना तुमहिं मिलन की लाल।
ज्वालमुखी-सी जरति लखि लगनि अगिन की ज्वाल॥184॥
होमति = होम करती है, आग में डालती है। लखि = देखो। लगनि = प्रेम।
हे लाल! तुमसे मिलने की कामना करके (वह) सुख का होम (विसर्जन) कर रही है। देखो! (उसकी) प्रेमाग्नि की ज्वाला (पर्वत) के समान जल रही है। (वह ज्वाला शान्त नहीं होती, क्योंकि सुखों की आहुति तो बराबर पड़ रही है।)
मैं हो जान्यौ लोइननु जुरत बाढ़िहै जोति।
को हो जानत दीठि कौं दीठि किरकिरी होति॥185॥
मैं हो जान्यौ = मैं जानती थी। लोइननु = आँखें। को हो जानत = कौन जानता था। दीठि = नजर, दृष्टि। किरकिरी = आँख में पड़ी धूल।
मैं जानती थी कि आँखों के मिलने (लड़ने) से आँखों की ज्योति बढ़ेगी (दो के मिलने से दुगुनी ज्योति बढ़ेगी)। (किन्तु) कौन जानता था कि नजर के लिए नजर (बालू की) किरकिरी-सी होती है-उसे केवल पीड़ा ही पहुँचाती है!
जौ न जुगुति पिय-मिलन की धूरि मुकुति मुँह दीन।
जौ लहियैं सँग सजन तौ धरक नरक हूँ की न॥186॥
जुगुति = उपाय। मुकुति = मुक्ति, मोक्ष। सजन = प्रीतम, अपना प्यारा। धरक = घड़क, भय।
यदि प्रीतम से मिलने का उपाय न हो-यदि इससे प्रीतम न मिल सके-(तो) मोक्ष के मुख पर भी धूल डालो-उसे तुच्छ समझो। (और) यदि अपने प्यारे का संग पाओ, तो नरक का भी डर नहीं-प्रीतम के साथ नरक भी सुखकर है।
मोहूँ सौं तजि मोहु दृग चले लागि इहिं गैल।
छिनकु छवाइ छबि गुर-डरी छले छबीलै छैल॥187॥
मोहुँ सो = मुझसे भी। मोह = ममता। गैल = राह। छिनकु = एक क्षण। छ्वाइ = छुलाकर, स्पर्श कराकर। गुर-डरी = गुड़ की डली या गोली, भेली।
मुझसे भी ममता छोड़कर (मेरे) नेत्र उसी राह पर जाने लगे-उसी नायक के लिए व्याकुल रहते हैं। एक क्षण के लिए शोभा-रूपी गुड़ की गोली (इनके मुख से) छुलाकर (उस) छबीले छैल ने-सुन्दर रसिक ने-(इन्हें) छल लिया।
को जानै ह्वैहै कहा व्रज उपजी अति आगि।
मत लागै नैननु लगैं चलै न मग लगि लागि॥188॥
को = कौन। कहा = क्या। अति आगि = विचित्र अग्नि, अर्थात् प्रेम की अग्नि। लगि लागि = निकट होकर।
कौन जानता है, क्या होगा? व्रज में विचित्र आग पैदा हुई है, (वह) आँखों में लगकर हृदय में लग जाती है। अतएव तू (उस) रास्ते के निकट होकर भी न चल-उस रास्ते से दूर ही रह।
तजतु अठान न हठ पर्यौ सठमति आठौ जाम।
भयो वामु वा वाम कौं रहैं कामु बेकाम॥189॥
अठान = अनुष्ठान। सठमति = मूर्ख। जाम = पहर। बामु = विमुख। बाम = स्त्री। काम = कामदेव। बेकाम = व्यर्थ।
मूर्ख (कामदेव) आठों पहर अपना अनुष्ठान-सताने की आदत-नहीं छोड़ता-(अजीब) हठ पकड़ लिया है। वह कामदेव व्यर्थ ही उस अबला से (यों) विमुख बना रहता है-क्रुद्ध हुआ रहता है।
लई सौंह-सी सुनन की तजि मुरली धुनि आन।
किए रहति नित रात-दिन कानन लाए कान॥190॥
सौंह = शपथ, कसम। आन = दूसरा। रति = प्रीति, रुचि। किए रहति = (सुनने की) चाह लगाये रहती है। कानन = जंगल। लाए = लगाये।
मुरली की ध्वनि छोड़कर दूसरी चीज सुनने की (उसने) कसम-सी खा ली है। (वह) नित्य रात-दिन जंगल की ओर-वृन्दावन की ओर-(वंशी-ध्वनि में) कान लगाये (प्रेमोत्कंठित) रहती है।
भृकुटी-मटकनि पीत-पट चटक लटकती चाल।
चल चख-चितवनि चोरि चितु लियौ बिहारीलाल॥191॥
भृकुटी = भँव। चटक = चमक। लटकती चाल = इठलाती चाल। चल = चंचल। चख = आँखें। चोरि लियौ = चुरा लिया।
भँवों की मटकन, पीताम्बर की चमचमाहट, मस्ती की चाल और चंचल नेत्रों की चितवन से बिहारीलाल (श्रीकृष्ण) ने चित्त को चुरा लिया।
दृिग उरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर-चित प्रीति।
परत्ति गाँठि दुरजन हियैं दई नई यह रीति॥192॥
दृग = आँख। उरझत = उलझती है, लड़ती है। टूटत कुटुम = सगे सम्बन्धी छूट जाते हैं। जुरत = जुड़ता है; जुटता है। हियैं = हृदय। दई = ईश्वर। नई = अनोखी।
उलझते हैं नेत्र, टूटता है कुटुम्ब! प्रीति जुड़ती है चतुर के चित्त में, और गाँठ पड़ती है दुर्जन के हृदय में! हे ईश्वर! (प्रेम की) यह (कैसी) अनोखी रीति है!
नोट - साधारण नियम यह है कि जो उलझेगा, वही टूटेगा; जो टूटेगा, वही जोड़ा जायगा; और जो जोड़ा जायगा, उसीमें गाँठ पड़ेगी। किन्तु यहाँ सब उलटी बातें हैं, और तुर्रा यह कि उलटी होने पर भी सत्य हैं। यह दोहा बिहारी के सर्वोत्कृष्ट दोहों में से एक है।
चलत घैरु घर घर तऊ घरी न घर ठहराइ।
समुझि उहीं घर कौं चलै भूलि उहीं घर नाइ॥193॥
घैरु = निन्दा, चबाव। तऊ = तो भी। समुझि = जान-बूझकर। उहीं = उसी (नायक के घर को)।
घर-घर में निन्दा (की चर्चा) चल रही है-सब लोग निंदा कर रहे हैं-तो भी वह घड़ी-भर के लिए (अपने) घर में नहीं ठहरती। जान-बूझकर उसी (नायक) के घर जाती है, और भूलकर भी उसीके घर जाती है (प्रेमांध होने से निन्दा की परवा नहीं करती)।
डर न टरै, नींद न परै हरै न काल बिपाकु।
छिनकु छाकि उछकै न फिरि खरौ विषमु छवि-छाकु॥194॥
काल बिपाकु = निश्चित समय का व्यतीत हो जाना। छाकि = पीकर। उछकै = उतरै। फिरि = पुनः। खरौ = अत्यन्त। विषमु = विकट, विलक्षण। छबि = सौंदर्य। छाक = मदिरा, नशा।
डर से दूर नहीं होता, नींद पड़ती नहीं, समय की कोई निश्चित अवधि बीतने पर भी नष्ट नहीं होता। थोड़ा-सा भी पीने से फिर कभी नहीं उतरता। (यह) सौंदर्य का नशा अत्यन्त (विकट या) विलक्षण है।
नोट - नशा डर से दूर हो जाता है, उसमें नींद भी खूब आती है, तथा एक निश्चित अवधि में दूर भी हो जाता है। किन्तु सौंदर्य (रूप-मदिरा) के नशे में ऐसी बातें नहीं होती। यह वह नशा है, जो चढ़कर फिर उतरना नहीं जानता।
झटकि चढ़ति उतरति अटा नैंकु न थाकति देह।
भई रहति नट कौ बटा अटकी नागर नेह॥195॥
झटकि = झपटकर। अटा = कोठा, अटारी। नैंकु = अरा। अटकी = फँसी हुई। नागर = चतुर। नेह = प्रेम। बटा = बट्टा।
झपाटे के साथ कोठे पर चढ़ती और उतरती है। (उसकी) देह (इस चढ़ने-उतरने में) जरा भी नहीं थकती। चतुर (नायक) के प्रेम में फँसी वह नट का बट्टा बनी रहता है-जिस प्रकार नट अपने गोल बट्टे को सजा उछालता और लोकता रहता है, उसी प्रकार वह भी ऊपर-नीचे आती-जाती रहती है।
लोभ लगे हरि-रूप के करी साँटि जुरि जाइ।
हौं इन बेंची बीच हीं लोइन बड़ी बलाइ॥196॥
साँटि करी = सौदे की बातचीत कर डाली। जुरी जाइ = मिलकर। हौं = मुझे। लोइन = लोचन, आँखें।
श्रीकृष्ण के रूप के लोभ में पड़ (उनकी आँखों से) मिलकर (मेरी आँखों ने) सट्टा-पट्टा किया-सौदे की बातचीत की। (और बिना मुझसे पूछताछ किये ही!) इन्होंने मुझे बीच ही में बेच डाला-ये आँखें बड़ी (बुरी) बला हैं!
नई लगनि कुल की सकुच बिकल भई अकुलाइ।
दुहूँ ओर ऐंची फिरति फिरकी लौं दिन जाइ॥197॥
सकुच = संकोच, लाज। ऐंची फिरति = खिंची फिरती है। फिरकी = चकरी नामक काठ का एक खिलौना, जिसमें डोरी बाँधकर लड़के नचाते फिरते हैं। लौं = समान। दिन जाइ = दिन कटते हैं।
(प्रेम की) नई लगन (एक ओर) है और कुल की लाज (दूसरी ओर) है। (इन दोनों के बीच पड़कर) वह घबराकर व्याकुल हो गई है। (यों) दोनों ओर खिंची फिरती हुई (उस नायिका के) दिन चकरी के समान व्यतीत होते हैं।
इततैं उत उततैं इतैं छिनु न कहूँ ठहराति।
जक न परति चकरी भई फिरि आवति फिरि जाति॥198॥
जक = कल, चैन। फिरि = पुनः। चकरी = एक खिलौना, फिरकी।
इधर-से-उधर और उधर-से इधर (आती-जाती रहती है)। एक क्षण भी कहीं नहीं ठहरती। (उसे) कल नहीं पड़ती। चकरी की तरह पुनः आती और पुनः जाती है।
तजी संक सकुचति न चित बोलति बाकु कुबाकु।
दिन-छिनदा छाकी रहति छुटतु न छिन छबि छाकु॥199॥
बाकु कुबाकु = सुवाच्य कुबाच्य, अंटसंट। छिनदा = रात। छाकी रहति = नशे में मस्त रहती है। छिनु = क्षण भर के लिए। छबि = सौंदर्य। छाकु = नशा, मदिरा।
डर छोड़ दिया। चित्त में लजाती भी नहीं। अंटसंट बोलती है। दिन-रात नशे में चूर रहती है। एक क्षण भी सौंदर्य (रूप-मदिरा) का नशा नहीं उतरता।
ढरे ढार तेहीं ढरत दूजै ढार ढरैं न।
क्यौं हूँ आनन आन सौं नैना लागत नै न॥200॥
ढार = ढालू जमीन। आनन = मुख। आन = दूसरा। नै = झुककर।
(जिस) ढार पर ढरे हैं- उसी ओर ढरते हैं, दूसरी ढार पर नहीं ढरते-जिस ढालू जमीन की ओर लुढ़के हैं, उसी ओर लुढ़केंगे, दूसरी ओर नहीं। किसी भी प्रकार दूसरे के मुख से (परे) नयन झुककर नहीं लग सकते-दूसरे के मुख को नहीं देख सकते।
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