लोका मति के भोरा रे।
जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहिं कहा निहोरा रे।।
तब हम वैसे अब हम ऐसे, इहै जनमका लाहा रे।।
राम-भगति-परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा रे।।
गुर-प्रसाद साधकी संगति, जग जीते जाइ जुलाहा रे।।
कहै कबीर सुनहु रे सन्तो, भ्रंमि परै जिनि कोई रे।।
जस काशी तस मगहर ऊसर, हिरदै राम सति होई रे।।
पद: 161
पूजा-सेवा-नेम-व्रत, गुड़ियनका-सा खेल
जव लग पिउ परसै नहीं, तब लग संसय मेल।।
पद 162
जाती न पूछो साधकी, पूछि लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवारका, पड़ा रहन दो म्यान।।
हस्ती चढ़िए ज्ञानकौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान-रूप संसार है, भूँकन दे झक मार।।
पद: 163
मेरा-तेरा मनुआँ कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौ ऑखिन देखि, तू कहता कागद्की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यौ उरझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहीयो, तू रहता है सोई रे।
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।
जुगन जुगन समुझावत हारा, कही न मानत कोई रे।
तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारे खोई रे।
सतगुरु धरा निर्मल बाहै, वामै काय धोई रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।।
पद: 164
दुलहिन अँगिया काहे न धोवाई।
बालपने की मैली अँगिया बिषय-दाग परि जाई।
बिन धोये पिय रीझत नाहीं, सेजसे देत गिराई।
सुमिरन ध्यानकै साबुन करि ले सत्तनाम दरियाई।
दुबिधाके भेद खोल बहुरिया मनकै मैल धोवाई।
चेत करो तीनों पन बीते, अब तो गवन नागिचाई।
पालनहार द्वार हैं ठाढ़े अब काहे पछिताई।
कहत कबीर सुनो री बहुरिया चित अंजन दे आई।।
पद:165
मोरि चुनरी में परि गयो दाग पिया।
पाँच तत्व की बनी चुनरिया, सारेहसै बंद लागे जिया।
यह चुनारी मोरे मैके ते आई ससुरेमे मनुवाँ खोय दिया।
मलि मलि धोई दाग न छूटे ज्ञानकी साबुन लाय पिया।
कहै कबीर दाग कब छुटिहै जब साहब अपनाय लिया।
पद:166
तेरा जन एक आध है कोई।
काम-क्रोध अरु लोभ बिवर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥
राजस-तामस-सातिग तीन्यु, ये सब तेरी माया।
चौथै पद कौ जे जन चिन्हें, तिनहि परम पद पाया॥
असतुति-निंदा-आसा छांडै, तजै मांन-अभिमानां ।
लोहा-कचन समि करि देखै, ते मूरति भगवाना॥
च्यंतै तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा।
त्रिस्ना अरु अभिमांन रहित है कहै कबीर सो दासा।
पद: 167
अबूझा लोग कहाँलौ बूझे बुझनहार बिचारो।।
केते रामचंद्र तपसी से जिन जग यह भरमाया।
केते कान्ह भये मुरलीधर तिन भी अन्त न पाया।।
मच्छ-कच्छ बाराह स्वरूपी वामन नाम धराया।
केते बौध भये निकलंकी तिन भी अन्त न पाया।।
केतिक सिध-साधक-सन्यासी जिन बन बास बसाया।
केते मुनिजन गोरख कहिये तिन भी अन्त न पाया।।
जाकी गति ब्रह्मै नहिं पाये सिव-सनकादिक हारे।
तोके गुण नर कैसे पैहो कहै कबीर पुकारे।।
पद: 168
साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कहौ तौ मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत, राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी-धर्मी, प्रात करे असनाना ।
आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।
पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।
माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।
घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।
गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।
बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।
करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।
हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घरसे भागी ।
वह करै जिबह, वाँ झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।
या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।
पद:169
मीयाँ तुम्हसौ बोल्याँ बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बन्दे तुम्हरा जस मनि भावै।।
अलह अवलि दीनका साहिब, जोर नहीं फुरमाया।
मुरिसद-पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँथै आया।।
रोजा करै निवाज गुजारै कलमै भिसत न होई।
सतरि काबे इक दिल भीतरि जे करि जानै कोई।।
खसम पिछांनि तरस करि जियमै, माल मनीं करि फीकी।
आया जाँनि साँईकूं जाँनै, तब है भिस्त सरीकी।।
माटी एक भेप धरि नाँनाँ, सबमे ब्रह्म समानाँ।
कहै कबीर भिस्त छिटकाई दिजग ही मनमानाँ।।
पद:170
वै क्यू कासी तजै मुरारी। तेरी सेवा-चोर भये बनवारी।।
जोगी-जती-तपी संन्यासी। मठ-देवल बसि परसै कासी।।
तीन बार जे नित् प्रति न्हावे। काया भीतरि खबरि न पावे।।
देवल-देवल फेरी देही। नांव निरंजन कबहुँ न लेही।।
चरन-विरद-कासी को न दैहूं। कहै कबीर भल नरकहि जैहूं।।
पद: 171
बहुविध चित्र बनाय कै, हरि रच्यौ क्रीडा-रास।
जेहि न इच्छा झुलिवे की, ऐसी बुधि केहि पास।।
झुलत-झुलत बहु कलप बीते, मन न छोड़े आस।
रचि हिंडोला अहो-निसि हो चारि जुग चौमास।।
कबहुँ ऊँचसे नीच कबहूँ, सरग-भूमि ले जाय।
अति भ्रमत भरम हिंड़ोलवा हो, नेकु नहिं ठहराया।।
डरत हौं यह झूलबे को, राखु जादवराय।
कहै कबीर गोपाल बिनती, सरन हरि तुअ पास।।
पद: 172
चली मैं खोजमे पियकी। मिटी नहीं सोच यह जियकी।।
रहे नित पास ही मेरे। न पाऊँ यार को हेरे।।
बिकल चहुँ ओरको धाऊँ। तबहुँ नहिं कंतको पाऊँ।।
धरो केहि भाँतिसो धीरा। गयौ गिर हाथ से हीरा।।
कटी जब नैन की झांई। लख्यौ तब गगनमें साईं।।
कबीरा शब्द कहि त्रासा। नयन में यारको बासा।।
पद: 173
तलफै बिन बालम मोर जिया।
दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, तलफ तलफके भोर किया।
तन-मन मोर रहंट-अस डोलै, सून सेज पर जनम छिया।
नैन चकित भए पंथ न सूझै, साईँ बेदरदी सुध न लिया।
कहत कबीर सुनो भइ साधो, हरो पीर दुख जोर किया।
पद: 174
अबिनासी दुलहा कब मिलिहौ, भक्तन के रछपाल॥टेक॥
जल उपजल जल ही से नेहा, रटत पियास पियास।
मैं बिरहिनि ठाढ़ी मग जोऊँ, प्रीतम तुम्हरी आस॥1॥
छोड़्यो गेह नेह लगि तुमसे, भई चरन लौलीन।
तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिन मीन॥2॥
दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा, घर अँगना न सुहाय।
सेजरिया बैरिनि भइ हमको, जागत रैन बिहाय॥3॥
हम तो तुम्हरी दासी सजना, तुम हमरे भरतार।
दीनदयाल दया करि आओ, समरथ सिरजनहार॥4॥
कै हम प्रान तजतु हैं प्यारे, कै अपनी करि लेव।
दास कबीर बिरह अति बाढ़्यो, अब तो दरसन देव॥5॥
पद: 175
नैना अंतरि आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और कूं, नां तुझ देखन देऊँ।
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा, दूजा कहाँ समाई ।
मन परतीति न प्रेम-रस, ना इस तन में ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।''
पद: 176
नैंनो की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकों की चिक डारि कै, पिय को लिया रिझाय।।1।।
प्रियतम को पतिया लिखूं, कहीं जो होय बिदेस।
तनमें, मनमें, नैनमें, ताकौ कहा संदेस।।2।।
पद: 177
अँखियाँ तो झांई परी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।
विरह कमंडल कर लिये वैरागी दो नैन ।
माँगै दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन ॥
सब रंग तात रबाब तान, विरह बजाबै नित्त
और न कोई सुनि सकै, कै साईं कै चित्त
पद: 178
पछा पछीके कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपछ हैंकै हरि भजै, सोई सन्त सुजान।।1।।
अमृत केरी मोटरी, सिरसे धरी उतार।
जाहिं कहौ मै एक है, मोहि कहै दो-चार।।2।।
पद: 179
दुलहिनि तोहि पियके घर जाना।
काहे रोवो काहे गावो काहे करत वहाना।।
काहे पहिरयौ हरि हरि चुरियाँ पहिरयौ प्रेम कै बाना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, बिन पिया नहिं ठिकाना।।
पद: 180
सूतल रहलूँ मैं नींद भरि, पिया दिहलै जगाय।
चरन-कँवलके अंजन हो नैना ले लूँ लगाया।।
जासो निंदिया न आवे हो नहि तन अलसाय।
पियाके वचन प्रेम-सागर हो, चलूँ चली हो नहाय।।
जनम जनमके पापवा छिनमे डारब धोवाय।
यहि तनके जग दीप कियौ प्रीत बतिया लगाय।।
पाँच ततके तेल चुआए व्रह्म अगिनि जगाय।
प्रेम-पियाला पियाइके हो पिया पिया बौराय।।
बिरह अगिनि तन तलफै हो जिय कछु न सोहेय।।
ऊँच अटरिया चढ़ि बैठ लूँ हो जहँ काल न जाय।
कहै कबीर विचारिके हो जम देख डराया।।
पद: 181
अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे
ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥
बहुत दिननके बिछुरे हरि पाये,
भाग बड़े घर बैठे आये।
चरननि लागि करौं बरियाई।
प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन-मंदिर रहौ नित चोपै,
कहै कबीर करहु मति घोषैं॥
पद: 182
तन-मन-धन बाजी लागि हो।
चौपड़ खेलूँ पीवसे रे, तन-मन बाजी लगाय।
हारी तो पियकी भी रे, जीती तो पिय मोर हो
चौसरियाके खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
नर्द अकेली रह गई रे, नहि जीवन की आस हो।
चार बरन घर एक है रे, भाँति भाँतिके लोग।
मनसा-बाचा-कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
लख चौरासी भरमत भरमत, पौपै अटकी आय।
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चौरासी जाय हो।
कहै कबीर धर्मदास रे, जीती बाजी मत हार।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।
पद: 183
नाम अमल उतरै ना भाई ।
औ अमल छिन छिन चढ़ि उतरै, नाम अमल दिन बढ़े सवाई ॥
देखत चढ़े सुनत हिय लागै, सुरत किए तन देत घुमाई ।
पियत पियाला भए मतवाला, पायो नाम मिटी दुचिताई ॥
जो जन नाम अमल रस चाखा, तर गई गनिका सदन कसाई।
कह कबीर गूंगे गुड़ खाया बिन रसना का करै बड़ई ॥
पद: 184
हमरी ननंद निगोडिन जागे।
कुमति लकुटिया निसि-दिन ब्यापै, सुमति देखि नहिं भावै।
निसि-दिन लेत नाम साहबको, रहत रहत रँग लागै।
निसिदिन खेलत रही सखियन-सँग, मोहिं बड़ो डर लागै।
मोरे साहबकी ऊँची अटरिया, चढ़तमे जियरा काँपै।
जो सुख चहै तो लज्जा त्यागै, पियसे हिलि-मिलि लागै।
घूँघट खोल अंग-भर भेंट, नैन-आरती साजै।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, चतुर होय सो जानै।
निज प्रीतमकी आस नहीं है नाहक काजर पारै।
पद: 185
कैसे दिन कटिहै जतन बताये जइयो,
एहि पार गंगा ओहि पार जमुना,
बिचवाँ मडइया हमकाँ छावाये जइयो।
अँचरा फरिके कागज़ बनाइन,
अपनी सुरतिया हियरे लिखाये जइयो।
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
बहियाँ पकरिके रहिया बताये जइयो।
पद: 186
कैसे जीवेगी विरहिनी पिया बिन, कीजै कौन उपाय।
दिवस न भूख रैन नहिं सुख है, जैसे कलिजुग जाम।
खेलत फाग छाँडि चलु सुंदर, तज चलु धन औ धाम।
बन-खंड जाय नाम लौ लावो, मिलि पियसे सुख पाय।
तलफत मीन बिना जल जैसे, दरसन लीजै धाय।
बिना आकार रूप नहीं रेखा, कौन मिलेगी आय।
आपन पुरुष समझिले सुंदरि, देखो तन निरताय।
सब्द सरुपी जिव-पिव बूझो, छड़ो भ्रामरी टेक।
कहैं कबीर और नहिं दूजा, जुग जुग हम-तुम एक।
पद: 187
भींजै चुनरिया प्रेम-रस बूंदन।
आरत साज चली है सुहागिन पिय अपनेको ढूंढन।
काहेकी तोरी बनी है चुनरिया काहेके लगे चारों फूंदन।
पाँच तत्तकी बनी है चुनरिया नामके लागे फूंदन।
चढ़िगे महल खुल गई रे किवरिया दास कबीर लागे झूलन।।
पद: 188
मैं अपने साहिब संग चली।
हाथ में नरियल मुखमें बीड़ा, मोतियन माँग भरी।
लिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी, तापै चढ़ि के चली।
नदी किनारे सतगुरु भेंटे, तुरत जनम सुधरी।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, दोउ कुल तारि चली।
पद: 189
गुरु मोहि घुँटिया अजर पिलाई।
जबसे गुरु मोहि घुँटिया पियाई, भई सुचित मेटी दुचिताई।
नाम-औषधि आधार-कटोरी, पियत अघाय कुमति गई मोरी।
ब्रह्मा-विस्नु पिये नहिं पाये, खोजत संभू जन्म गँवाये।
सुरत निरत करि पियै जो कोई, कहै कबीर अमर होय सोई।।
पद: 190
कबीर भाटी कलालकी, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाइ।।
हरि-रस पीया जाणिए, जे कबहूं न जाइ खुमार।
मैंमंता घुँमत रहै, नाहीं तनकी सार।।
सबै रसायण मैं किया, हरि-सा और न कोई।
तिल इक घटमैं संचरै, तो सब कंचन होइ।।
पद: 191
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥1।।
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया विसाहूणा, बहुरिन आँवौं हट्ट॥2।।
कबीर गुरु गरवा मिल्या, रलि गया आटे लूंण।
जाति पाँति कुल सब मिटैं, नौव घरौगे कौण।।3।।
सतगुरु हमसूँ रीझि करि, एक कहाय परसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥4।।
पद: 192
व दिन कब आवैगे भाइ।
जा कारनि हम देह धरि है,
मिलिबौ अंगि लगाइ।।
हौ जाँनूं जे हिल-मिलि खेलूँ,
तन मन प्रान समाइ।।
या कांमनां करौ परपूरन,
समरथ हौ रांम राइ।।
मांहि उदासी माधौ चाहै,
चितवन रैनि बिहाइ।।
सेज हमारी स्वघं भई है,
जब सोऊँ तब खाइ।।
यहु अरदास दासकी सुनिये,
तनकी तपनि बुझाइ।।
कहै कबीर मिलै जे सांई,
मिलि करि मंगल गाइ।।
पद: 193
मेरी अंखियाँ जांन सुजांन भई।
देवर गरम सुसर संग तजि करि, हरि पीव तहाँ गई।।
बालपनैके करम हमारे, काटे जानि दई।
बाँह पकरि करि किरपा किन्हीं, आप समींप लई।।
पानींकी बूँदेथे जिनि प्यंड साज्या, ता संगि अधिक करई।
दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई।।
पद: 194
इहि बिधि रामसूं ल्यौ लाइ।।
चरन पाषै निरति करि, जिभ्या बिनाँ गुंण गाइ।
जहाँ स्वाँति बूँद न सीप साइर, सहजि मोती होइ।
उन मोतियन मै पोय, पवन अम्बर धोई
जहाँ धरनि बरषै गगन भीजै, चन्द-सूरज मेल।
दोई मिलि तहाँ जड़न लागे, करत हंसा केलि।
एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ।
पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई जनराइ।
जहाँ बिछ्य्यौ तहाँ लाग्यौ, गगन बैठो जाइ।
जन कबीर बटाऊवा, जिनि मारग लियौ चाइ।
पद: 195
करो जतन सखी साँई मिलनकी।
गुड़िया गुड़वा सूप सुपलिया,
तजि दें बुधि लरिकैयाँ खेलनकी।
देवता पित्तर भुइयाँ भवानी,
यह मारग चौरासी चलनकी।
ऊँचा महल अजब रँग बँगला,
साँईंकी सेज वहाँ लगी फूलनकी।
तन मन धन सब अपनि कर वहाँ,
सुरत सम्हार परु पइयाँ सजनकी।
कहै कबीर निर्भय होय हंसा,
कुंजी बता दयो ताला खुलनकी।
पद: 196
मोरि लगी गये बान सुरंगी हो।
धन सत गुरु उपदेश दियो है, होई गयो चित्त भिरंगी हो।
ध्यान पुरुषकी बनी है तिरिया, घायल पाँचो सँगी हो।
घायल की गति घायल जाने, की जानै जात पतंगी हो।
का है कबीर सुनों भाई साधो, निसि दिन प्रेम उमंगी हो।
पद: 197
गुरु बड़े भृंगी हमारे गुरु बड़े भृंगी।
कीटसों ले भृंग कीन्हा आपसो रंगी।
पाँव औरै पंख औरै और रँग रंगी।
जाति कूल ना लखै कोई सब भये भृंगी।
नदी-नाले मिले गंगे कहलावै गंगी।
दरियाव-दरिया जा सामने संग में संगी।
चलत मनसा अचल कीन्ही मन हुआ पंगी।
तत्त्मे निःतत्त दरसा संग में संगी।
बंधतें निर्बंध कीन्हा तोड़ सब तंगी।
कहै कबीर किया अगमगम नाम रँग रंगी।।
पद:198
पिया मेरा जागे मैं कैसे सोई री।
पाँच सखि मेरे सँगकी सहेली,
उन रँग रँगी पिया रंग न मिली री।
सास सयानी ननद-बोरानी,
उन डर डरी पिय सार न जानी री।
दादस ऊपर सेज बिछानी,
चढ़ न सकौ मारी ला लजानी री।
रात दिवस मोहिं कूका मारे,
मैं न सुनी रचि रहि संग जार री।
कहै कबीर सुनु सखी सयानी,
बिन सतगुरु पिया मिले न मिलानी री।।
पद: 199
बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम।।1।।
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥2।।
मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणों काम॥3।।
बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न छाँहि॥4।।
पद: 200
परबति परबति मैं फिरता, नैन गँवाए रोई।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातै जीवन होई।।1।।
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़े तुज्झ।
नां तू मिलै न मैं सुखी, ऐसी बदन मुज्झ।।2।।
सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।3।।
पद: 201
आई न सकौ तुज्झपै, सकूँ न तुज्झ बुलाइ।
जियरा यौही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ।।1।।
यहु तन जालौ मसि करौ, लिखौ रामका नांऊँ।
लेखणि करूँ करंककी, लिखि लिखि राम पठाऊँ।।2।।
इस तनका दीवा करौ, बाती मेलूँ जीव।
लोही सिचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौ।।3।।
कै बिरहिनकूँ मीच दे, कै आपा दिखलाइ।
आठ पहरका दाझणा, मोपै सहा न जाइ।।4।।
पद: 202
कबीरा प्याला प्रेमका, अंतर दिया लगाय।
रोम रोमसे रमि रह्या, और अमल क्या खाए।।1।।
कबीरा हम गुरु-रस पिया, बाकी रही न छाक।
पाका कलस कुम्हार का, बहुरि न चढ़सी चाक।।2।।
राता-माता नामका, पीया प्रेम अघाय।
मातवाला दीदार का, माँगें मुक्ति बलाय।।3।।
पद: 203
ऐ कबीर, तै उतरि रहु, संबल परो न साथ।
संबल घटे न पगु थके, जीव बिराने हाथ।।1।।
कबीरा का घर सिखरपर, जहाँ सिलहली मैल।
पाँव न टिकै पिपीलिका, खलकन लादे बैल।।2।।
पद: 204
काल खड़ा सिर उपरे, जागु बिराने मीत
जाका घर है गैलमे, सो कस सोय निचीत।।1।।
पद: 205
छाकी परयों आतम मतवारा।
पीवत रामरस करत बिचारा।।
बहुत मोलि मंहगै गुड़ पावा।
लै कसाब रस राम चुवावा।।
तन पाटन मै कीन्ह पसारा।
माँगि-माँगि रस पीवै बिचारा।।
कहै कबीर फाबी मतवारी।
पीवत रामरस लगी खुमारी।।
पद: 206
सब दुनी सयानी मैं बौरा,
हम बिगरे बिगरौ जनि औरा।
मैं नहिं बौरा राम कियो बौरा,
सतगुरु जार गयौ भ्रम मोरा।
बिद्या न पढूँ वाद नहिं जाँनूं,
हरि गुण कथत-सुनत बौ बौराँनुं।।
काम-क्रोध दोऊ भये बिकारा,
आपहि आप जरै संसारा।।
मिठो कहा जाहि जो भावे,
दास कबीर रांम गुण गावै।।
पद: 207
नैहरमें दाग लगाय आई चुनरी।
ऊ रँगगरेजवा कै मरम न जानै,
नहिं मिलै धोबिया कौन करै उजरी।
तनकै कूंडी ज्ञान का सौदन,
साबुन महँगा बिचाय या नगरी।
पहिरि-ओढ़ीके चली ससुरारिया,
गौवाँ के लोग कहै बड़ी फुहरी।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
बिन सतगुरु कबहूँ नहिं सुधरी।।
पद: 208
सील-संतोखते सब्द जा मुखबसै, संतजन जौहरी साँच मानी।
बदन बिकसित रहै ख्याल आनंदमे, अधरमें मधुर मुस्कात बानी।
साँच गेलै नहीं झूठ बोलै नैन, सूरतमें सुमति सोई श्रेष्ठ ज्ञानी।
कहत हौ ज्ञान पुक्कारि कै सबनसो, देत उपदेस दिल दर्द ज्ञानी।
ज्ञान को पूर है रहनिको सूर है, दया की भक्ति दिलमाही ठानी।
औरते छोर लौ एक रस रहत है, ऐस जन जगतमें बिरले प्रानी।
ठग्ग बटपार संसारमें भरि रहे, हंसकी चाल कहाँ काग जानि।
चपल और चतुर है बने चीकने, बातमें ठीक पै कपट ठानी।
कहा तिनसो कहो दया जिनके नहीं, घाट बहुतै करै बकुलध्यानी।
दुर्मती जीवकी दुबिध छूटै नहीं, जन्म जन्मान्त पड़ नर्क खाली।
काग कुबुद्धि सुबुद्धि पावै कहाँ, कठिन कट्ठोर बिकराल बानी।
अगिनके पुंज है सितलता तन नाही, अमृत औ विष दोऊ एक सानी।
कहा साखी कहें सुमति जागी नहीं, साँचीकी चाल बिन धूर घानी।
सुकृति औ सत्तकी चाल साँची सही, काग बक अधमकी कौन खानी।
कहै कबीर कोऊ सुधर जन जौहरी, सदा सावधान पिये नीर छानी।।
पद: 209
अपनपौ आप ही बिसरो।
जैसे सोनहा काँच मंदिरमें भरमत भूंकि मरो।
जो केहरि वपु निरखि कूप-जल प्रतिमा देखी परो।
ऐसे हि मदगज फाटिक शिलापर दसननि आनि अरो।
मरकर मुठी स्वाद ना बिसरै घर-घर नटत फिरो।
कह कबीर नलनीकै सुनवा तोहि कौन पकरो।।
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